राजनीतिक संकट पर सतर्क रहे भारत
नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने व्यापक विरोध के बीच संसद भंग करके सहयोगी दलों को ही गच्चा दे दिया।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत का मुखर विरोध कर सत्ता हासिल करने वाले नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने व्यापक विरोध के बीच संसद भंग करके सहयोगी दलों को ही गच्चा दे दिया। मध्यावधि चुनाव की घोषणा से न केवल कम्युनिस्ट पार्टी वरन नेपाली जनता भी स्तब्ध है और सड़कों पर विरोध जताया जा रहा है। वामदलों के साथ गठबंधन करके वर्ष 2018 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बने ओली लगातार मनमाने व्यवहार से राजनीतिक विरोध का सामना कर रहे थे। पार्टी के भीतर जारी टकराव के बाद रविवार को कैबिनेट की मीटिंग के बाद राष्ट्रपति से संसद भंग करने की सिफारिश की गई थी। साथ ही चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई।
दरअसल, सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में आंतरिक विवाद कई महीनों से जारी था। जहां एक गुट का नेतृत्व ओली तो दूसरे गुट का नेतृत्व पार्टी के सह-अध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' कर रहे थे। नेपाली मामलों के जानकार मान रहे हैं कि ओली सरकार का संसद भंग करने का निर्णय असंवैधानिक है। नये संविधान में राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने के लिये संसद भंग करने का कोई प्रावधान नहीं रखा गया है। दरअसल, ओली आंतरिक राजनीति में शिकस्त खाते नजर आ रहे थे। संवैधानिक परिषद से जुड़े अध्यादेश लाने को लेकर पार्टी में मुखर विरोध हो रहा था, जिससे संवैधानिक पदों पर नियुक्ति का निरंकुश अधिकार प्रधानमंत्री को मिलना था। जाहिर है इस घटनाक्रम से नेपाल में राजनीतिक संकट बढ़ने वाला है। दरअसल न केवल ओली की पकड़ पार्टी पर कमजोर हो रही थी, बल्कि प्रचंड से रिश्तों में भी खटास आ रही थी, जिसके चलते उन पर पद छोड़ने का दबाव बढ़ने के संकेत थे। वहीं अब विपक्षी दल ओली सरकार के फैसले को असंवैधानिक बताकर अदालत में चुनौती देने की चेतावनी दे रहे हैं। नेपाल की राजनीति में हाशिये पर आये राजनीतिक दलों को भी अब मुखर होने का मौका मिलेगा। विपक्षी नेपाली कांग्रेस के लिये भी यह संकट एक अवसर बन सकता है।