चीनी बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार हैं क्वाड और IPEF जैसे भारत समर्थित संगठन
युद्धग्रस्त यूक्रेन को एक तरफ रख दें तो दुनिया की सबसे बड़ी हलचलों का केंद्र आजकल टोक्यो बना हुआ है
चंद्रभूषण |
युद्धग्रस्त यूक्रेन (Ukraine War) को एक तरफ रख दें तो दुनिया की सबसे बड़ी हलचलों का केंद्र आजकल टोक्यो बना हुआ है. क्वाड शिखर सम्मेलन (QUAD Summit) से ठीक पहले, 22 मई दिन सोमवार को वहां 12 देशों के एक नए ट्रेड ब्लॉक इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (IPEF) का गठन हुआ. इस व्यापारिक समूह में दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संघ आसियान के तीन सदस्यों लाओस, कंबोडिया और म्यांमार को छोड़कर इसके बाकी सातों देश थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलयेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई, फिलीपींस और विएतनाम शामिल हैं. साथ ही भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और दक्षिण कोरिया भी इसका हिस्सा हैं. दुनिया के 40 प्रतिशत जीडीपी का प्रतिनिधित्व करने वाले इस संगठन की अमेरिका से स्वाभाविक नजदीकी होगी. इससे बड़ी बात यह कि पहले दिन से ही यह चीनी प्रभाव वाले व्यापारिक समूह आरसीईपी के समानांतर खड़ा होगा और उसपर कुछ अघोषित शर्तों की सीमाएं बांध देगा.
आईपीईएफ की सफलता और चीजों से ज्यादा इसके प्रति अमेरिका के रुख पर निर्भर करेगी, लेकिन एक बात तय है कि यह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन की व्यापारिक उड़ान को बेकाबू नहीं होने देगा. आरसीईपी यानी रीजनल कोऑपरेशन इकोनॉमिक पार्टनरशिप 2020 में बना 15 देशों का ट्रेड ब्लॉक है, जिसमें सिर्फ भारत को छोड़कर आईपीईएफ के सभी 11 देश शामिल हैं. साथ ही आसियान के बचे तीन देश और चीन भी उसका हिस्सा है. 1 जुलाई 2023 से 15 देशों के आयात और निर्यात करों का ढांचा आरसीईपी के तहत निर्धारित होने लगेगा, लेकिन तब तक उसके समानांतर आईपीईएफ भी चर्चा में आ जाएगा.
चीन पर काबू पाने के लिए इस तरह के संगठनों की जरूरत
इस तरह अगले एक-दो वर्षों में आसियान के ही इर्दगिर्द दो ट्रेड ब्लॉक एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मौजूद होंगे, जिनमें एक पर चीन का प्रभाव ज्यादा होगा, जबकि दूसरे में भारत की ज्यादा चलेगी और उसे अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त होगा. पहली नजर में यह चीन और अमेरिका की शैडो बॉक्सिंग जैसा ही जान पड़ता है. आरसीईपी के लिए सालों-साल चली बातचीत में भारत पूरे दम से शामिल था, लेकिन ऐन मौके पर उसने इस ऐतराज के साथ इससे हटने का फैसला किया कि आरसीईपी के ढांचे में किसी भी सामान के मूल उत्पादक देश (कंट्री ऑफ ओरिजिन) का जिक्र मौजूद नहीं था. यह शर्त अगर आईपीईएफ में लागू कराई जा सकी तो थाईलैंड या मलेशिया या विएतनाम में बना कोई ऐसा सामान सस्ते में भारत नहीं आ सकेगा, जो ब्रैंडिंग या फाइनल प्रॉसेसिंग से पहले चीन में बना हो.
क्वाड पर लौटें तो भूगोल में एक-दूसरे से काफी दूर पड़ने वाले चार लोकतांत्रिक देशों का यह ढीला-ढाला मंच इतने कम समय में एक ताकतवर संगठन की शक्ल ले लेगा, ऐसा कौन सोच सकता था. हालत यह है कि लोगों को अब यह भी याद नहीं रह गया है कि क्वाड शब्द का ईजाद क्वाड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग को एक संक्षिप्त नाम देने के लिए किया गया था. भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्राध्यक्षों का क्वाड शिखर सम्मेलन के रूप में एक साथ बैठना भी दूसरी बार ही हो रहा है. वर्चुअल बातचीत को छोड़ दें तो टोक्यो से पहले वे सितंबर 2021 में वाशिंगटन डीसी में साथ बैठे थे. सिर्फ नौ महीने के अंदर दो शिखर बैठकें भला कितने अंतरराष्ट्रीय संगठनों की हो पाती हैं? बहरहाल, यह कोई गपशप वाला मामला नहीं है. सम्मेलन इसीलिए हो रहा है क्योंकि इसकी जरूरत है.
और यह जरूरत दो पहलुओं से है. एक तो इसलिए, क्योंकि कोरोना महामारी के मंद पड़ने के साथ ही यूक्रेन पर रूस के हमले से पूरी दुनिया में कई तरह के बने-बनाए संतुलन बिगड़ गए हैं. यूक्रेन की आग कब ताइवान पहुंचकर प्रशांत महासागर के पश्चिमी किनारे को धधका देगी, कोई नहीं जानता. अस्थिरता का दायरा सिर्फ देशों के बीच नहीं, देशों के भीतर भी फैल रहा है. खाद्यान्न और ईंधन, फूड और फ्यूल, दोनों की मांग और आपूर्ति में भारी समस्याएं आ खड़ी हुई हैं, जो छोटे देशों में उपद्रव का कारण बन सकती हैं. क्वाड अगर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में खुद को प्रतिष्ठित करना चाहता है तो इस उथल-पुथल भरे माहौल में उसको धुरी जैसी भूमिका निभाने के लिए तैयार रहना होगा. जरूरत का दूसरा पहलू क्वाड के सदस्य देशों के बदले हुए चेहरे का है.
चीन इसे अमेरिकी साजिश मानता है
सन 2004 में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी के बाद क्वाड अस्तित्व में आया था. फिर 2007 में लेबर पार्टी से चुने गए ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री केविन रड ने चीन से रिश्ते सुधारने के लिए इससे निकलने की घोषणा की तो इसे मृतप्राय मान लिया गया. इसके दस साल बाद सन 2017 में आसियान सम्मेलन के नेपथ्य में दक्षिणी चीन सागर के तनाव और डोकलाम संकट के समय इसके पुनर्जीवन की रूपरेखा तैयार हुई. फिर 2020 की गलवान हिंसा ने इसे एक संगठन की शक्ल में ढालने की जरूरत पेश की. तब से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर बाकी तीनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष न सिर्फ बदल चुके हैं, बल्कि उनके तेवर और सोच भी तब के राजनेताओं से बहुत अलग है. इतनी जल्दी दूसरा शिखर सम्मेलन बाकी बातों से पहले उनकी आपसी कमेस्ट्री सुधारने के लिए जरूरी है.
मौजूदा अवतार में क्वाड की शुरुआत के साथ ही ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन इसके उग्र प्रवक्ता जैसी भूमिका निभाते आ रहे थे. लेकिन क्वाड के टोक्यो शिखर सम्मेलन से ठीक पहले मॉरिसन की पार्टी चुनाव हार गई. उनकी जगह लेने वाले नए ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज चीन से व्यापारिक रिश्ते सुधारने के पक्षधर हैं. केविन रड की तरह ही वे भी लेबर पार्टी के नेता हैं, हालांकि क्वाड से निकलने का मूड अब ऑस्ट्रेलिया में नहीं है. वाशिंगटन क्वाड शिखर सम्मेलन के बाद जापान का प्रधानमंत्री पद संभालने वाले फुमियो किशिदा भी अपने पूर्ववर्तियों योशिहिदे सुगा और शिंजो आबे की तुलना में नरमपंथी माने जाते हैं, हालांकि चीन को लेकर उन्होंने कभी कोई नरमी नहीं दिखाई है. जो बाइडेन की सोच बाकी मामलों में भले ही ट्रंप के उलट हो, लेकिन चीन और हिंद-प्रशांत को लेकर अमेरिकी नीति में निरंतरता बनी हुई है. बल्कि इस पहलू पर बाइडन और ज्यादा सख्त हैं. टोक्यो में चारों राष्ट्राध्यक्षों के बीच ट्यूनिंग बन जाए तो क्वाड और हिंद-प्रशांत क्षेत्र, दोनों के लिए अच्छा होगा.
जो अकेली चीज क्वाड में शामिल चारों देशों के भीतरी बदलावों के बावजूद ज्यों की त्यों बनी हुई है, और आगे भी जिसमें आसानी से कोई बदलाव नहीं आने वाला है, वह है हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामकता और अतिशय महत्वाकांक्षा से पैदा हुई चिंता. चीनी राजनेता इस चिंता को निराधार बताते हैं और इसके पीछे अमेरिकी साजिश खोजते हैं. वे हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसिफिक) शब्द से ही चिढ़े हुए हैं. उनका कहना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से एशिया-प्रशांत शब्द ही चलता आ रहा है, वही आगे भी चलना चाहिए. चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने तो क्वांतुंग में बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर कहा कि क्वाड शीतयुद्ध की मानसिकता से संचालित संगठन है. इसका अकेला मकसद चीन की घेरेबंदी करना और उसकी उन्नति को रोकना है. इसीलिए इसका फेल होना निश्चित है.
चीन को अपने पड़ोसियों से रिश्ते सुधारने होंगे
यह सही है कि हिंद-प्रशांत शब्दावली डॉनल्ड ट्रंप के प्रशासन द्वारा ही चलाई गई थी, जिसकी कई रणनीतिक पहलकदमियां आसियान के व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंचाने वाली सिद्ध हुईं. लेकिन क्वाड के मौजूदा स्वरूप के लिए जमीन ट्रंप ने नहीं, खुद चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने तैयार की थी. जिस इलाके से सालाना तीन लाख करोड़ डॉलर का समुद्री व्यापार होता हो, उसके 90 प्रतिशत हिस्से को चीनी क्षेत्र घोषित कर देना, वहां से गुजरने वाले जहाजों को सूचना देने, इजाजत लेने के लिए मजबूर करना कोई शिष्टाचार तो नहीं है.
आपके जहाज चोरी-छिपे या जबर्दस्ती दूसरे देशों की जलसीमा में घुसकर मछली पकड़ रहे हैं. दूर क्यों जाएं, पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारतीय सेना के दस पेट्रोलिंग पॉइंट्स दबा लेने के पीछे भी किसी अमेरिकी साजिश की तो कोई भूमिका नहीं थी. यह काम चीन की सेना ने ही किया और इसमें उसे अपने राजनीतिक नेतृत्व का संरक्षण प्राप्त रहा. इस विस्तारवाद से निपटने के रास्ते तो सारे देश खोजेंगे. चीन अगर अप्रिय स्थितियों से बचना चाहता है तो किसी और पर उंगली उठाने से पहले उसे पड़ोसियों से रिश्ते सुधारने चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)