रोकना होगा चीन से बढ़ता आयात

वर्ष 2021 के पहले नौ महीनों में जहां भारत में चीन से आयात 68.46 अरब डॉलर था,

Update: 2022-12-27 14:06 GMT

फाइल फोटो 

जनता से रिश्ता वबेडेस्क | वर्ष 2021 के पहले नौ महीनों में जहां भारत में चीन से आयात 68.46 अरब डॉलर था, वह 2022 के पहले नौ महीनों में 89.66 अरब डॉलर हो चुका है. वर्ष 2021 में चीन से कुल आयात 97.5 अरब डॉलर था और अगर आयातों की यही गति रही, तो आंकड़ा इस वर्ष 120 अरब डॉलर पहुंच जायेगा. यूं तो आयात-निर्यात एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन चीन से बढ़ते आयात इस कारण चिंता का सबब बनते हैं, क्योंकि इससे व्यापार घाटा बढ़ता है और देश की विदेशी मुद्रा की देनदारी भी.
इस वर्ष के पहले नौ महीनों में चीन को किये कुल निर्यात मात्र 13.97 अरब डॉलर थे यानी 75.69 अरब डॉलर का व्यापार घाटा. माना जा रहा है कि वर्ष पूर्ण होने तक चीन से व्यापार घाटा 100 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है, जो एक रिकॉर्ड होगा. बढ़ते आयातों के कारण भारत की चीन पर बढ़ती निर्भरता के मद्देनजर सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत विभिन्न उपाय अपनाये हैं. सर्वप्रथम 14 उद्योगों को चिह्नित किया गया, जिनमें इलेक्ट्रॉनिक्स, चिकित्सा उपकरण, थोक दवाएं, टेलिकॉम उत्पाद, खाद्य उत्पाद, एसी, एलइडी, उच्च क्षमता सोलर पीवी मॉड्यूल, ऑटोमोबाइल और ऑटो उपकरण, वस्त्र उत्पाद, विशेष स्टील, ड्रोन इत्यादि शामिल थे.
बाद में सेमी कंडक्टर को भी इसमें जोड़ा गया. ये वे उद्योग थे, जो अधिकांशतः पिछले 20 वर्षों में चीन से बढ़ते आयातों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने के कारण बंद हो गये थे या बंदी के कगार पर थे. चीन द्वारा हिंसक कीमतों पर डंपिंग, चीन सरकार की निर्यात सब्सिडी और तत्कालीन सरकार की असंवेदनशील नीति के तहत आयात शुल्कों में लगातार कमी ने चीनी आयातों को भारत में स्थान बनाने में सहयोग दिया.
आज जब भारत सरकार आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के तहत पीएलआइ स्कीम, तकनीकी सहयोग और विभिन्न उपायों के माध्यम से बंद हो चुके या बंदी के कगार पर खड़े उद्योगों को नया जीवन प्रदान करने की कोशिश कर रही है, फिर क्या कारण है कि चीनी आयात बढ़ते ही जा रहे हैं. देखा जा रहा है कि चीनी इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिकल मशीनरी एवं उसके कल-पुर्जे और मध्यवर्ती वस्तुओं के आयात अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं.
सरकारी तर्क यह है कि चूंकि चीन से आयात अधिकांश मध्यवर्ती वस्तुओं में है, इसलिए यह एक अच्छा संकेत है और देश में बढ़ते मैनुफैक्चरिंग की ओर इंगित करता है. यह भी तर्क दिया जाता है कि इन मध्यवर्ती वस्तुओं के आयात पर मूल्य संर्वधन से देश में रोजगार का निर्माण भी होता है. कहा जाता है कि चूंकि ये वस्तुएं सस्ते दामों पर आती हैं, इसलिए उत्पादन लागत भी कम हो जाती है.
इस तर्क के आधार पर इकरियर और भूमंडलीकरण समर्थक अन्य आर्थिक संगठन चीन से बढ़ते आयातों को गलत न मानते हुए, उन पर आयात शुल्क घटाकर उन्हें और बढ़ावा देने की पैरवी करते हैं. गौरतलब है कि चीन से आने वाले आयातों का एक बड़ा हिस्सा तैयार उपभोक्ता वस्तुओं का नहीं, बल्कि मशीनरी और रसायन समेत अन्य मध्यवर्ती वस्तुओं का है.
क्या इन्हें बनाने का सामर्थ्य भारत में नहीं है? एक देश जो अंतरिक्ष, सॉफ्टवेयर, ऑटोमोबाइल, मिसाइल समेत कई क्षेत्रों में सुपर पावर है, वो जीरो टेक्नॉलजी की मध्यवर्ती वस्तुएं नहीं बना सकता, यह समझ के परे है. चीन द्वारा सस्ते माल की डंपिंग और कई अन्य अनुचित हथकंडे अपना कर भारत में क्षमता निर्माण को बाधित किया गया है. यह षड्यंत्र रूक नहीं रहा है.
कहा जाता है कि व्यापार एक युद्ध है और उसे उसी प्रकार संचालित किया जाना चाहिए. इस संबंध में एक्टिव फार्मास्युटिकल इनग्रेडियंट (एपीआई) का एक ज्वलंत उदाहरण है. आज से 20 वर्ष पूर्व हमारी एपीआइ आवश्यकताओं की 90 प्रतिशत आपूर्ति भारत से ही होती थी, जबकि चीन और अन्य देशों की डंपिंग के कारण एपीआइ उद्योग नष्ट हुआ और आज इसकी 90 प्रतिशत आपूर्ति आयात से होती है. हमारे दवा उद्योग की इतनी बड़ी निर्भरता केवल आर्थिक ही नहीं, स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए भी बड़ा खतरा साबित हो रही है.
पीएलआइ के साथ सरकार को अन्य उपाय भी अपनाने होंगे, ताकि भविष्य में चीनी आयात नये बन रहे एपीआइ उद्योग को नष्ट न कर सके. यहां सवाल केवल चीन से आने वाले प्रत्यक्ष आयातों का ही नहीं है. देश में बड़ी मात्रा में चीनी आयात विभिन्न आसियान देशों के माध्यम से भी होकर आ रहे हैं. भारत का आसियान देशों से मुक्त व्यापार समझौता है, जिसके तहत शून्य आयात शुल्क पर अधिकांश आयात आते हैं. मूल देश की शर्त लगातार जब चीनी आयातों को रोका गया, तो चीनी कंपनियों ने अपनी फैक्ट्रियां आसियान देशों में ही लगा लीं, जिसके कारण उन्हें चीनी बता कर रोका नहीं जा सकता.
भारत में कार्यरत कई विदेशी ऑटो मोबाइल कंपनियां भी कल-पूर्जे विदेशों से मंगा रही हैं. जब भारत ने मोबाईल फोन पर आयात शुल्क बढ़ाये, तो कई विदेशी कंपनियों ने भारत में उन्हें बनाना शुरू कर दिया, पर अभी भी बड़ी मात्रा में कल-पुर्जे चीन व अन्य देशों से मंगाये जा रहे हैं. हजारों वर्षों से कपड़ा उद्योग भारत का एक बड़ा उद्योग है और पिछले 100 सालों में आधुनिक उद्योग का भी विकास देखने को मिलता है.
भारत वस्त्र एवं परिधान हेतु कच्चे माल एवं मध्यवर्ती वस्तुओं के क्षेत्र में पर्याप्त क्षमता रखता है, लेकिन दुर्भाग्य से उसमें भी विदेशों से भारी आयात होते हैं. उदाहरण के लिए, चीन से कपड़ा आयात 2020-21 की तुलना में 2021-22 में 46.2 प्रतिशत अधिक था, जिससे कपड़ा क्षेत्र में क्षमता का बहुत कम उपयोग हो रहा है. हालांकि पीएलआइ स्कीम एवं अन्य उपायों के परिणाम आने अभी बाकी हैं, लेकिन इन उपायों के अतिरिक्त भी कुछ प्रयास करना होगा.
इस संबंध में हम अमेरिका से सीख सकते हैं. वर्ष 2018 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन से आने वाले 250 अरब डॉलर के आयातों पर शुल्क बढ़ा कर 25 प्रतिशत कर दिया था, जिसका असर यह हुआ कि जहां 2017 में इन वस्तुओं के कुल आयात 231.7 अरब डॉलर थे, वे 2021 में 147.5 अरब डॉलर ही रह गये यानी आयात शुल्क बढ़ा कर चीनी आयातों पर रोक लगायी गयी. ऐसा भारत भी करता है, तो उसके दो लाभ होंगे.
एक, व्यापार घाटा कम होगा और विदेशी मुद्रा पर बोझ भी घटेगा. दूसरे, देश में उन उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और मैनुफैक्चरिंग जीडीपी में वृद्धि के साथ रोजगार निर्माण भी होगा. उल्लेखनीय है कि भारत डब्ल्यूटीओ के नियमों के तहत भी आयात शुल्क 40 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है, जबकि आज हमारे आयात शुल्क औसतन 10 प्रतिशत के आसपास ही हैं.
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