होला मोहल्ला के बहाने याद आईं घटनाएं जो नफरत के बीज बोने वालों की आंखे खोल दें

ओपिनियन

Update: 2022-03-12 08:47 GMT
संजय वोहरा।
खूबसूरत नजारों वाली शिवालिक पर्वत श्रृंखला की तलहटी में पंजाब (Punjab) और हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बसा ऐतिहासिक नगर आनंदपुर साहिब (Anandpur Sahib) 18 मार्च से तीन दिवसीय उत्सव 'होला मोहल्ला' (Hola Mohalla) का गवाह बनेगा. खालसा सैनिकों के पराक्रम , युद्ध कौशल और शक्ति को परखने के लिए गुरू गोबिंद सिंह के जमाने में शुरू की गई 'सैन्य अभ्यास' की ये परम्परा ज़माना पहले धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक उत्सव में बदल गई है. मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के कहने पर क़त्ल किए गए अपने पिता गुरु तेग बहादुर की शहादत का बदला लेने और धर्म परिवर्तन कराने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती व क्रूर तौर तरीके आजमाए जाने के खिलाफ उन्होंने मुग़ल शासन में बागी तेवर अपनाए लिहाज़ा जीवन में ज्यादातर समय मुगलों से लड़ते रहे.
यही नहीं बरसों चली इस लड़ाई में उन्होंने अपनी मां और चारों बेटों को भी खोया. गुरु गोबिंद सिंह के जीवन से जुड़ी इन सब घटनाओं के बारे में काफी कुछ सुना और लिखा पढ़ा गया है. एक बड़े वर्ग ने इन ऐतिहासिक तथ्यों को इस तरह भी पेश किया है जिससे गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) की इस्लाम विरोधी छवि बनाई जाए ताकि अपने हित साधे जा सकें. असलियत ये है कि एक सैनिक और संत के साथ-साथ गुरु गोबिंद सिंह एक तर्कशील, विचारक, समाज शास्त्री और साहित्य रचियता वाली ऐसी हस्ती के मालिक थे जिनको कई बार आड़े वक्त में उन्हीं लोगों ने मदद की जो इस्लाम को मानते थे. इनका जीता जागता सबूत है उन घटनाओं से जुड़ी यादों का अब भी विभिन्न रूप में कायम मिलना. इन यादों का सिख कौम तहे दिल से सम्मान ही नहीं करती बल्कि उन लोगों के किये को हमेशा के लिए अपने ऊपर किये गए अहसान के तौर पर लेती है. कम प्रचारित ये वो स्थान हैं जहां सिख पूरे श्रद्धा भाव से नत मस्तक होते हैं.
रोपड़ के पास गुरुद्वारा बीबी मुमताज़ साहिब
ये नाम पढ़ कर उन काफी लोगों को अजीब लग सकता है जो सिखों के इतिहास को सतही तौर पर जानते हैं या जिनके मन में सिखों की इस्लाम विरोधी इमेज है. बीबी मुमताज़ (Bibi Mumtaz) असल में , पंजाब के रोपड़ (रूप नगर) के नज़दीक सरसा नदी के किनारे कोटला निहंग खान के शासक निहंग खान की बेटी थी. निहंग खान गुरु गोबिंद सिंह का मित्र भी था और उनके विचारों का कायल भी था. आनंदपुर की आख़री लड़ाई के दौरान 1705 में जब गुरु गोबिंद सिंह और उनके परिवार को आन्दपुर छोड़ना पड़ा तब सरसा नदी के किनारे युद्ध के दौरान उनके एक सेनापति (जनरल) भाई बछित्तर सिंह बुरी तरह घायल हो गये थे. उनको लगभग मरणासन्न अवस्था में गुरु गोबिंद सिंह के बेटे अजीत सिंह ने भाई मदन सिंह की मदद से निहंग खान के किले में पहुंचाया.
तब गुरु गोबिंद सिंह निहंग खान को भाई बछित्तर सिंह की देखभाल का ज़िम्मा सौंपने के बाद चले गये थे. इसी बीच मुग़ल सेना को भनक मिल गई. किसी खोजी ने सूचना दी कि भाई बछित्तर को निहंग खान के किले में हो सकते हैं. इसकी खोज खबर लेने मुग़ल सैनिक वहां पहुंच गए. इस बीच निहंग खान ने अपनी बेटी मुमताज़ को उस कमरे में भेज दिया जहां घायल बछित्तर सिंह को रखा गया था. मुमताज़ को उनकी सेवा करने को कहा गया. सैनिक जब वहां तलाशी के लिए पहुंचे तो उस कमरे का दरवाज़ा बंद पाया. निहंग खान ने सैनिकों को बताया कि भीतर उनकी बेटी है जो अपने बीमार पति की सेवा कर रही है. सैनिकों को पिता की कही ये बात मुमताज़ ने सुन ली थी. सैनिक जब कमरे में गये तो उन्होंने ये बात सही पाई. दरअसल घायल भाई बछित्तर सिंह का शरीर और चेहरा चादर से ढका हुआ था और मुमताज़ उनके पैरों को थामे बैठी थीं. सैनिक ये देख लौट गये.
इतिहास के कुछ जानकार इस घटना का ज़िक्र करते ये भी बताते हैं कि मुमताज़ ने सैनिकों को बताया कि चादर ओढ़े सो रहे शख्स उनके बीमार पति ही हैं. बेशक हालात की मज़बूरी और बछित्तर सिंह की जान बचाने के लिए उन्होंने ऐसा किया लेकिन बीबी मुमताज़ के जहन में ये बात बैठ गई और उन्होंने मन में ही योद्धा बछित्तर सिंह को पति का स्थान दे दिया. घायल बछित्तर सिंह ने अगले ही दिन प्राण त्याग दिए. निहंग खान ने तमाम तरह के जोखिम उठाकर चुपचाप भाई बछित्तर सिंह का अंतिम संस्कार कर दिया. इसके बाद बीबी मुमताज़ ने निकाह नहीं किया और जीवन पर्यन्त अपनी उस जबान को किसी को झूठा साबित करने का मौका नहीं दिया. बीबी मुमताज़ की मृत्यु के बाद उनकी याद में इस गुरूद्वारे का निर्माण किया गया जिसे 'गुरुद्वारा यादगार बीबी मुमताज़ साहिब' भी कहा जाता है. यहां सिख संगत बेहद श्रद्धा भाव के साथ आती है और उस घटना को याद करके शीश नवाती हैं. कोटला निहंग खान में ही भाई बछित्तर सिंह की याद में गुरुद्वारा बनाया गया है.
मलेरकोटला में 'गुरुद्वारा हा दा नारा साहिब'
गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) के परिवार के बिखरने के बाद जहां युद्ध में वे खुद लुधियाना के माछीवाड़ा में दुश्मन सैनिकों से घिरे थे तभी उनके चार में से दो छोटे बेटों ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को बंधक बना लिया गया और सरहिंद के मुग़ल गवर्नर वज़ीर खान के आदेश पर ईंट की दीवारों में जिंदा चुनवा दिया गया था. पोतों के वियोग में माता गुजरी ने भी प्राण त्याग दिए थे. गुरु गोबिंद सिंह के इन दोनों बच्चों को सज़ा देने से पहले अदालत लगाई गई जिसमें कई रियासत के नवाबों को बुलाया गया. ज़ोरावर सिंह (Zorawar Singh) की उम्र 9 साल और फतेह सिंह (Fateh Singh) की सिर्फ 7 साल थी. उस भरी कचहरी में सिर्फ मलेर कोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान ने गुरु गोबिंद सिंह के बच्चों को इस सज़ा का विरोध करते हुए 'हा का नारा' (Cry For Justice) बुलंद किया था.
अपनी दलील में उन्होंने पिता की सज़ा बच्चों को देने की मनाही, उम्र के हिसाब से दया और इस्लामी कानूनों का हवाला भी दिया. हालांकि उनकी दलीलें क्रूर शासक वज़ीर खान के फैसले को न बदल सकीं थीं लेकिन जब ये बात बाद में गुरु गोबिंद सिंह तक पहुंची तो उन्होंने बच्चों की जान बचाने की कोशिश के लिए नवाब शेर खान का अहसान माना और एक तरह से मलेरकोटला विशेष सम्मान दिया. इसी घटना के सम्मान स्वरूप और इसकी याद को हमेशा ताज़ा रखने के लिए यहां गुरुद्वारा बनाया गया जिसे गरुद्वारा 'हा दा नारा साहिब' (Gurudwara Haa Da Naara Saahib) कहा जाता है . यहां तो सहिष्णुता और सिख-मुस्लिम भाई चारे का आलम ये है यहां पर गुरबाणी का तो पाठ होता ही है, नमाज़ पढ़ने के लिए भी जगह है. पंजाब में लुधियाना- संगरूर हाईवे पर मलेरकोटला को पिछले साल (जून 2021) में ही सूबे का नया जिला बनाया गया.
नवाब शेर मोहम्मद खान एक अफगान था और सैन्य ओहदे पर था. वज़ीर खान की कचहरी में गुरुगोबिंद सिंह के बच्चों के लिए सुनाई गई मौत की सज़ा बख्शने की उसकी अपील पर वहां मौजूद एक अन्य मुग़ल सैन्य अधिकारी ने याद दिलाया कि उसके (नवाब शेर मोहम्मद) भाई और भतीजे को गुरु गोबिंद की सेना ने ही युद्ध में मारा था, तब नवाब शेर खान ने दलील दी थी कि पिता का बदला मासूम बच्चों से लेना गलत है और मज़हब इसकी इजाज़त नही देता. वैसे शेर मोहम्मद खान इसके बाद चप्पड़ चिड़ि की लड़ाई में अपने फौजदार वज़ीर खान के पक्ष में मारा गया था. ये युद्ध बंदा सिंह बहादुर ने गुरुगोबिंद सिंह के दोनों साहिबजादों की मौत का बदला लेने के लिए छेड़ा था.
इसके बाद उन्होंने सरहिंद कूच के दौरान तबाही मचाई लेकिन मलेरकोटला में हिंसा नहीं की. तभी से लोगों में ये धारणा है कि मलेरकोटला और यहां के लोगों को गुरु गोबिंद सिंह का आशीर्वाद है. मलेरकोटला आज भी पंजाब की सबसे घनी मुस्लिम आबादी वाला इलाका है. 1947 में भारत के बंटवारे का सबसे बड़ा भुग्तभोगी बना सूबा पंजाब जबरदस्त साम्प्रदायिक दंगों का शिकार बना था, लेकिन मलेरकोटला के भीतर रहने वाले एक भी मुस्लिम परिवार पर सिखों ने आंच नहीं आने दी थी भले ही इसके बाहर दोनों सम्प्रदायों के बीच कितनी भी हिंसा हुई हो.
गुरुद्वारा उच्च का पीर और आलम गीर मंजी साहिब
चमकौर साहिब की लड़ाई में परास्त होने के बाद गुरु गोबिंद सिंह की सेना के बचे योद्धा छूट गये थे और खुद गुरु गोबिंद सिंह ने माछीवाड़ा के जंगलों में पनाह ले ली थी. इसी दौरान गुलाबा नाम के एक मसंद के यहां उनको छिपने की सुरक्षित जगह मिली और फिर यहीं आए घोड़ों के व्यापारी दो पठान भाइयों गनी खान और नबी खान ने उनकी मदद की. ये दोनों भाई गुरु गोबिंद सिंह से व्यापार के सिलसिले में पहले आनंदपुर में मिलते रहे थे. उन्होंने माछीवाड़ा से गुरु गोबिंद सिंह को अपने एक पीर के भेष में बाहर निकाला. उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह को 'उच्च का पीर' कहकर प्रचारित किया ताकि किसी को शक न हो.
गुरु गोबिंद सिंह आगे के सफर से पहले यहां कुछ देर रुके थे. ये दोनों भाइयों का एक और मकान था. इस घटना की याद में इसी जगह पर 1947 में गुरुद्वारा उच्च का पीर स्थापित किया गया था. इस जगह से कुछ ही दूर पर गांव आलमगीर में वहां भी गुरुद्वारा बनाया गया है जहां कुछ दिन के लिए गुरु गोबिंद सिंह ठहरे थे. यहां पर वो 'मंजी' (खाट) भी है जिसपर वे विश्राम किया करते थे. इस स्थान पर निर्मित गुरूद्वारे को आलमगीर मंजी साहिब कहा जाता है. आलमगीर साहिब गुरुद्वारे के भीतरी हिस्से में प्रवेश द्वार पर सीढ़ियों के ऊपर दोनों पठान भाइयों गनी खान और नबी खान की तस्वीरें भी लगी हैं.
ये याद रखना ज़रूरी है
चार सौ साल पुरानी धार्मिक सद्भाव और सहिष्णुता की उपरोक्त घटनाएं और उनके स्मृति स्थलों की चर्चा आज भी प्रासंगिक है. खासतौर से भारतीय समाज के लिए इनकी भूमिका तब ज्यादा महत्व रखती है जब पूजा पाठ के तौर तरीके में सिर्फ विभिन्नता ही वैर भाव बढ़ाने का कारण बन रही हो. इनकी ज्यादा चर्चा विविधता और विभिन्नता वाले भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इसलिए तब और भी ज़रूरी बन जाती है जब जाति और धर्म के नाम पर आतंकवाद और सियासत चलती हो. भारतीय संस्कृति के उजले पक्ष को उभारते पहलुओं वाली इस तरह की घटनाओं को देश की दशा व दिशा तय करने वाले नम्बरदारों को याद दिलाना भी ज़रूरी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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