किसी भी देश की तरक्की को मापने की जो आधुनिक कसौटियां हैं, उनमें एक अहम कसौटी यह है कि वहां की स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति कैसी है? निस्संदेह, विगत कुछ दशकों में भारत ने महिलाओं के उन्नयन के लिहाज से सभी क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन किया है। महिला साक्षरता दर जहां 70 फीसदी से भी ऊपर पहुंच गई है, तो वहीं सुरक्षित मातृत्व के मामले में भी देश ने अच्छी प्रगति की है। दो दशक पहले प्रति एक लाख प्रसव के दौरान 300 से अधिक माओं की जान चली जाती थी, आज यह संख्या घटकर 110 के करीब आ गई है। स्थानीय निकायों में उनका प्रतिनिधित्व पुरुषों के बराबर हो चला है। लेकिन आर्थिक मामले में अब भी उन्हें लंबा सफर तय करना है, और उनकी वास्तविक प्रगति तभी संभव होगी, जब वे आर्थिक रूप से खुदमुख्तार हो सकेंगी। हाल के वर्षों में हुए कई कानूनी प्रावधानों ने पैतृक संपत्ति में बेटी को स्पष्ट वैधानिक अधिकार दिए हैं, मगर हकीकत यही है कि एक बेटी या बहू के लिए खानदानी जायदाद से हिस्सा हासिल करना सामाजिक तौर पर अब भी बहुत कठिन है। देश के संविधान ने तो अपने वजूद के साथ ही उन्हें सारे हक बराबरी से दिए, मगर पितृ सत्तात्मक समाज को सदियों पुरानी जकड़न से निकलने में वक्त लगना ही था। ऐसे में, एक के बाद दूसरी सरकारों, नीति-निर्धारकों ने उनके सशक्तीकरण के लिए कदम उठाए हैं। मसलन, स्त्रियों के मालिकाना हक को प्रोत्साहित करने के लिए न सिर्फ उनके नाम संपत्ति के पंजीकरण शुल्क में बड़ी छूट घोषित की गई, बल्कि विभिन्न प्रकार के करों में भी रियायतें दी गई हैं। हालांकि, आदर्श स्थिति तक पहुंचने के लिए अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी कोशिशें इस लिहाज से सार्थक पहल कही जाएंगी। प्रधानमंत्री की घोषणा के गहरे राजनीतिक संदेश भी हैं। कई मौकों पर वह यह जता चुके हैं कि उनकी चुनावी सफलताओं में महिला शक्ति का भारी योगदान है। जाहिर है, चंद महीनों बाद ही कई बड़े प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में उन्हें महिला वोटरों से मुखातिब होना है। ऐसे में, उन्हें आश्वस्त करने का एक और आधार प्रधानमंत्री के पास होगा। बहरहाल, देश की स्थायी खुशहाली के लिए यह जरूरी है कि महिलाएं आर्थिक धरातल पर पूरी मजबूती से खड़ी हों।