इमरान खान ने जताई अपनी हत्या की आशंका, फिर भी खामोश है पाकिस्तान सरकार और सेना
ओपिनियन
विवेक शुक्ला |
जम्मू से चालीस किलोमीटर दूर पाकिस्तान (Pakistan) के स्यालकोट शहर में इमरान खान पिछले शनिवार को लगभग नाम-निहाद सुरक्षा के बीच भारी भीड़ को चीरते हुए अपनी रैली में शामिल होने के लिए पैदल ही जा रहे थे. यकीनन वह मंजर डरावना लग रहा था. उनके समर्थक उनके करीब आने की हरचंद कोशिशें कर रहे थे. शाम ढल रही थी और बेकाबू भीड़ उनके करीब आने के लिए जोर-जबरदस्ती कर रही थी. बेशक, उस वक्त कुछ भी हो सकता था. फिलहाल पाकिस्तान में सरकार नाम की कोई चीज सिर्फ कागजों पर ही है. इसलिए वह इमरान खान (Imran Khan) के दुश्मनों के लिए बहुत सुनहरा मौका था. वे खुद भी बार-बार कह रहे हैं कि पर उनकी जान को खतरा है.
रैली को क्यों रोका ईसाइयों ने
दरअसल इमरान खान को स्यालकोट शहर के जिस स्थान पर रैली करनी थी वहां पर आखिरी मौके पर उन्हें रैली करने से रोक दिया गया था. वह जगह ईसाइयों की बताई जाती है. उन्होंने अपनी जगह पर किसी सियासी रैली को करने की इजाजत देने से एक दम मना कर दिया था. उसके बाद इमरान खान की रैली करीब के क्रिकेट ग्राउंड में आयोजित हुई. इस्लामाबाद में रहने वाले पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार हमजा हबीब कहते हैं कि तहरीके-इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान की रैली को आखिरी मौके पर कैंसिल करने का मतलब समझ नहीं आया. वे पहले से तय जगह पर पहुंच गए थे. वहां पर पुलिस, ईसाइयों तथा इमरान खान के समर्थकों में काफी बवाल हुआ. इसके बाद रैली की जगह को तुरंत एक अन्य जगह में शिफ्ट किया गया. रैली की नई जगह में इमरान खान जब मंच पर जा रहे थे तब सैकड़ों लोगों की भीड़ उनके करीब आ रही थी. वे जैसे-तैसे मंच पर सुरक्षित पहुंच गए.
कहां हुआ दो प्रधानमंत्रियों का कत्ल
पाकिस्तान को जानने वाले जानते हैं कि वहां के पहले प्रधानमंत्री साहिबजादा लियाकत अली खान की 16 अक्तूबर, 1951 को रावलपिंडी में उस वक्त हत्या कर दी गई थी जब वे एक सभा को संबोधित करने ही वाले थे. उन्होंने मंच पर आकर बोलना शुरू ही किया था कि उनके भाषण को सुनने आया एक शख्स अपनी जगह से उठा और उसने लियाकत अली खान को गोली मार दी. यह घटना रावलपिंडी के कंपनी बाग में हुई थी. उसे तब ईस्ट इंडिया कंपनी बाग भी कहा जाता था.
हत्यारे का नाम सैद अकबर खान था. वह अफगान मूल का था. उसे भी वहां ही सुरक्षा कर्मियों ने मार डाला. इसलिए पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री के कत्ल की गुत्थी कभी सुलझी ही नहीं. हालांकि लियाकत अली खान के कत्ल में सेना का रोल भी माना जाता है. इसकी वजह यह है कि हत्यारा वहां पर बैठा था जहां पर क्राइम इनवेस्टिगेशन डिपार्टमेंट (सीआईडी) के अफसरों को बैठना था. वह वहां कैसे बैठा, किसने बिठाया? कहने वाले यह भी कहते हैं कि जिन्होंने हत्यारों को मारा था उन्हें आगे चलकर सैनिक तानाशाह अयूब खान ने सम्मानित भी किया. जिन पुलिस वालों ने प्रधानमंत्री की हत्या की गुत्थी को सुलझने नहीं दिया उन्हें सम्मानित करने का मतलब क्या हो सकता है?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़े अयूब खान पर मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को 1967 में भी मरवाने के आरोप लगे थे. कोलकाता से डेंटल सर्जन की डिग्री लेने वाली फातिमा जिन्ना ने 1967 में अयूब खान के खिलाफ राष्ट्रपति पद का चुनवा लड़ा था. खैर, लियाकत अली खान के कत्ल के बाद बेनज़ीर भुट्टो की हत्या भी रावलपिंडी में 27 दिसंबर, 2007 को हुई. बेनजीर भुट्टो पर हमला करने वाले आत्मघाती हमलावर की पहचान सईद बिलाल के रूप में हुई थी. लेकिन, उस केस का सच भी कभी सामने नहीं आया. हालांकि आरोप लगे थे तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ बेनजीर भुट्टो को मरवाना चाहते थे.
इमरान खान के वीडियो में क्या
अब फिर लौटेंगे इमरान खान पर. पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने लगातार दावा करना चालू कर दिया है कि उनकी जान को खतरा है. वे यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने एक वीडियो बनाया है, जिसमें उन सबके नाम हैं जो उनके खिलाफ साजिश कर रहे हैं. हमजा हबीब कहते हैं कि इमरान खान लगातार सेना के रोल पर हमले बोल रहे हैं. पाकिस्तान में सेना की इमेज तार-तार हो चुकी है. उसके करप्शन से मुल्क वाकिफ हो चुका है. इन सब कारणों के चलते सेना के बड़ी मूंछों और मोटी तोंद वाले अफसर परेशान हैं. मुमकिन है कि वे इमरान खान के खिलाफ कोई गहरी साजिश रच ही रहे हों.
बेशक, इमरान खान एरोगेंट तो हैं. पर पाकिस्तान का नौजवान उन्हें इसलिए पसंद करता है क्योंकि उनके ऊपर अठन्नी करप्श्न करने के भी आरोप नहीं हैं. ये उनकी ताकत है. उनके सामने शरीफ बंधु, आसिफ अली जरदारी और सेना है. ये सब करप्शन में ऊपर से नीचे तक डूबे हुए हैं. इन सबसे एक साथ इमरान लड़ रहे हैं. जाहिर है, उनकी जान को खतरा है. वह सुरक्षित नहीं हैं. इमरान खान को स्यालकोट की तरह खुले आम अवाम के बीच में चलने से बचना होगा. कौन जाने कि उस भीड़ में सैद अकबर खान या सईद बिलाल जैसे हत्यारे भी हों.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)