अगर आप मजबूत और बहादुर औरत हैं तो आपके सेक्सुअल हैरेसमेंट की कहानी पर लोग कम यकीन करेंगे
अगर आप एक ऐसी स्त्री हैं, जिसमें स्त्रीत्व (पारंपरिक अर्थों में) कूट-कूटकर भरा हुआ है, आपमें कमनीय अदाएं हैं,
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अगर आप एक ऐसी स्त्री हैं, जिसमें स्त्रीत्व (पारंपरिक अर्थों में) कूट-कूटकर भरा हुआ है, आपमें कमनीय अदाएं हैं, आप स्त्रियों की तरह नाजुक हैं, वैसे ही व्यवहार करती हैं तो इस बात की ज्यादा संभावना है कि जब आप अपने सेक्सुअल हैरेसमेंट की बात करें तो आपकी बात को ज्यादा विश्वसनीय माना जाए, ज्यादा गंभीरता से लिया जाए, उस पर यकीन किया जाए. वहीं दूसरी ओर अगर आप ऐसी स्त्री हैं, जो स्त्रीत्व की टिपिकल मर्दवादी अवधारणा को अप्रूव नहीं करतीं, ज्यादा स्त्रियों वाले लटके-झटके नहीं दिखाती, टॉम बॉय टाइप हैं, मजबूत हैं, जिम्मेदार हैं, आप में स्त्रियों वाली कमनीय अदाएं नहीं हैं तो आपके सेक्सुअल हैरेसमेंट की बात को कम विश्वसनीय माना जाएगा.
ये कहना है यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की एक नई स्टडी का. 4000 महिलाओं पर किए गए इस अध्ययन में अंग्रेजी का जो शब्द इस्तेमाल किया गया है, वह है 'प्रोटोटाइप', जिसका अर्थ है कोई चीज, जो अपने मूल अर्थ, परिभाषा और स्वरूप में है. प्रोटोटाइप वुमेन का मतलब हुआ एक ऐसी स्त्री, जो स्त्रीत्व की पारंपरिक परिभाषा और मानदंडों पर खरी उतरती है. दुनिया की हर सभ्यता में शांत, सुंदर, सरल, शर्मीला और आज्ञाकारी होना ही स्त्री होने का बुनियादी मानदंड है. ये स्टडी विस्तार से प्रोटोटाइप के इस अर्थ की व्याख्या करती है और बताती है कि अगर कोई प्रोटोटाइप स्त्री सेक्सुअल हैरेसमेंट का आरोप लगाए तो समाज उस पर ज्यादा भरोसा करता है, बनिस्बतन एक ऐसी स्त्री के, जो स्त्रियों की तरह डरपोक और शर्मीली नहीं है. साथ ही यह स्टडी यह भी कहती है कि प्रोटोटाइप स्त्रियों के साथ हैरेसमेंट होने की संभावना भी ज्यादा रहती है.
14 जनवरी को 'जरनल ऑफ पर्सनैलिटी एंड सोशल साइकोलॉजी' में प्रकाशित हुआ. यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की पूर्व रिसर्च स्कॉलर जिन गोह और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी नथन चीक ने मिलकर यह अध्ययन किया है.
यह अध्ययन कहता है कि नॉन प्रोटोटिपिकल यानी गैरपारंपरिक किस्म की स्त्रियों के प्रति यह पूर्वाग्रह इतना व्यापक और गहरा है कि उनके साथ कानूनी पक्षपात की संभावना भी बढ़ जाती है. कानून से जुड़े और न्याय की प्रक्रिया में शामिल लोगों को भी लगता है कि उसके साथ ज्यादा या गंभीर किस्म का अब्यूज नहीं हो सकता. इस कारण उसका अब्यूज करने वाले को सजा देने के प्रति भी गंभीरता कम हो जाती है.
यह अध्ययन करने वाली शोधकर्ताओं का कहना है कि उनके दिमाग में इस स्टडी का आइडिया मीटू मूवमेंट के बाद आया, जब कई अभिनेत्रियों ने 2017 में हार्वी वाइंस्टाइन पर उनके यौन शोषण का आरोप लगाया. जिसका नतीजा ये हुआ कि लाखों की संख्या में पूरी दुनिया में महिलाओं ने बरसों पुरानी चुप्पी तोड़ी और हैशटैग मीटू के साथ सोशल मीडिया पर अपने यौन शोषण की कहानियां साझा करनी शुरू की.
लेकिन ये तो कुछ चंद सक्षम महिलाओं की बात थी. जिन गोह और नथन चीक और गहराई में जाकर यह समझना चाहती थीं कि यौन शोषण के इन आरोपों को लेकर समाज क्या सोचता है. इस पर कितना भरोसा करता है. जो लड़कियां बोल रही हैं, उस पर कितने लोग सचमुच यकीन कर रहे हैं और उनके साथ खड़े हैं.
ये एक गंभीर सामाजिक अध्ययन था, जिसका मकसद हमारी सांस्कृतिक कंडीशनिंग, सोचने के तरीके और पूर्वाग्रहों की पड़ताल करना था. इसके लिए उन्होंने 4000 प्रतिभागियों के साथ कुछ प्रयोग किए. एक लंबा रिसर्च क्वेश्चन पेपर बनाया, जिसमें मुख्यत: तीन श्रेणी के सवाल थे- हमें क्या लगता है कि किसका सेक्सुअल हैरेसमेंट होता है? सेक्सुअल हैरेसमेंट कौन करता है? और हैसेरमेंट का आरोप कैसे साबित हो सकता है?
ये एक सवाल-जवाबों की एक लंबी और जटिल प्रक्रिया थी. बहुत सी काल्पनिक स्थितियों का हवाला देते हुए लोगों से पूछा गया कि वो इस स्थिति के बारे में क्या सोचते हैं. जैसे एक सवाल ये था कि वो बताएं कि किस तरह की महिला का यौन शोषण हो सकता है. उन्हें उस महिला का एक शब्द चित्र बनाना था. फिर उन्हें कई तरह के विकल्प दिए गए, जिसमें से उन्हें उस महिला को चुनना था, जिसका सबसे ज्यादा शोषण हो सकने की संभावना है.
इस अध्ययन का मकसद उन सांस्कृतिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों का अध्ययन करना था, जिसमें आमतौर पर बहुसंख्यक लोग अप्रश्नेय ढंग से विश्वास करते हैं.
इस अध्ययन के नतीजे हालांकि चौंकाने वाले बिलकुल नहीं थे, बल्कि वो उन्हीं पूर्वाग्रहों की पुष्टि कर रहे थे, जिससे हम पहले से वाकिफ हैं. उन्हें एक छरहरी, सुशील और आज्ञाकारी जैसी दिख रही स्त्री के अब्यूज की कहानी एक टॉम बॉय जैसी लड़की के मुकाबले ज्यादा विश्वसनीय लग रही थी.
यह अध्ययन दरअसल यह बता रहा था कि हैरेसमेंट को हमारा समाज किस तरह देखता है. समाज हैरेसमेंट को लेकर एक अवधारणा बनाता है, लेकिन जब वो ये अवधारणा बना रहा होता है, तो इसके साथ ही वो वुमेनहुड या स्त्रीत्व की भी एक धारणा तय करता है. और दिक्कत ये है कि स्त्रीत्व की हमारी यह धारणा या परिभाषा बहुत सीमित और पूर्वाग्रहग्रस्त है. वह खांचों में बंटी हुई है और सच्चाई से बेहद दूर है.
इस अध्ययन को अगर सेक्सुअल हैरेसमेंट की असल कहानियों और केस स्टडी के बरक्स रखकर देखें तो हम पाएंगे कि लोगों की इस सोच का कोई ठोस सामाजिक आधार नहीं है. ऐसा नहीं है कि मजबूत और बहादुर दिखने वाली, टॉम बॉय जैसी लड़कियों का हैरेसमेंट नहीं होता या कम होता है. इसे साबित करने के लिए कोई तार्किक आधार नहीं है. लेकिन पूर्वाग्रहों का तर्क से भला क्या रिश्ता. अगर वो तार्किक बात होती तो पूर्वाग्रह नहीं होती.