यदि भारत का मुसलमान अपनी लड़कियों का भविष्य संवारना चाहता है तो उसे हिजाब, बुर्का आदि छोडऩा होगा

इन दिनों मुस्लिम महिलाओं की पर्दा प्रथा पर खूब चर्चा हो रही है

Update: 2022-02-23 15:17 GMT
अर्शिया मलिक। इन दिनों मुस्लिम महिलाओं की पर्दा प्रथा पर खूब चर्चा हो रही है। इसका कारण कर्नाटक के उडुपी में एक कालेज से उठा वह विवाद है, जिसमें मुस्लिम छात्राओं को कक्षा के अंदर हिजाब पहने की इजाजत नहीं दी गई। इसके विरोध में छह लड़कियां धरने पर बैठ गईं। धीरे-धीरे उनका समर्थन करने वाले सामने आ गए। माना जा रहा है कि हिजाब के लिए लड़कियों को उकसाने का काम कैंपस फ्रंट आफ इंडिया के इशारे पर हुआ, जो अतिवादी संगठन पापुलर फ्रंट आफ इंडिया की छात्र शाखा है।
मुस्लिम समाज और खासकर इस समाज की महिलाओं को इससे परिचित होना चाहिए कि 1979 में इस्लामी जगत में तीन बड़ी घटनाएं हुईं, जिन्होंने रूढि़वादी तौर-तरीकों को पनपाया। पहली, रूस ने अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेज दीं, जिनका सामना करने के लिए मुजाहिदीन आ गए। दूसरी घटना मक्का शरीफ में आतंकियों के हमले की थी। इन आतंकियों ने सैकड़ों लोगों को बंधक बनाने के बाद एलान किया कि सऊदी शासक इस्लाम के रास्ते से भटक गए हैं। इन आतंकियों से निपटने के लिए सऊदी शासकों ने अन्य देशों से मदद लेकर सैन्य कार्रवाई की। 1979 की तीसरी अहम घटना थी पेरिस में रह रहे आयतुल्ला खुमैनी की ईरान में वापसी और ईरान का वहाबी और सलाफी इस्लाम को अपनाना। इन तीनों घटनाओं ने एशिया के मुसलमानों को सदियों पीछे पहुंचा दिया। इन घटनाओं का असर कश्मीर घाटी में भी हुआ। पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल जिया ने आइएसआइ की शह से कश्मीर में आतंकवाद भड़काना शुरू किया। इसके नतीजे में 1989-90 में घाटी से कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़ा। इस दौरान घाटी के सेक्युलर मुसलमानों को भी निशाना बनाया गया।
मैं श्रीनगर के लाल चौक इलाके से हूं और मुझे याद है कि कश्मीर में आतंक के उभार के साथ आतंकियों ने किस तरह लड़कियों और महिलाओं पर हिजाब, बुर्का, नकाब आदि थोपना शुरू कर दिया था। उन दिनों मस्जिदों और बिजली के खंभों पर पोस्टर चिपकाए जाते थे कि बुर्का न पहनने वाली महिलाओं पर एसिड फेंक दिया जाएगा। ब्यूटी पार्लर चलाने वाली महिलाओं और सिनेमाघर मालिकों को भी निशाना बनाया जाने लगा। यह सब सलाफी और वहाबी इस्लाम के कारण हो रहा था, जो सऊदी अरब और अन्य इस्लामी देशों से पेट्रो डालर के जरिये फैलाया जा रहा था। सलाफी मुल्ला-मौलवी मुसलमानों को यह समझाते थे कि दुनिया में जहां भी काफिर रहते हैं, वह सब जगह इस्लाम के दायरे में आनी चाहिए। इसके लिए वे हदीसों और अन्य इस्लामी साहित्य की बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते।
सारा इस्लामिक साहित्य अरबी भाषा में है और आम मुसलमान को इतनी फुरसत नहीं कि वह उसे सही तरह पढ़ और समझ सके। वे आलिम पर भरोसा करते हैं और यह मानते हैं कि वे ही उसे सही राह दिखाते हैं। जब पेट्रो डालर के जरिये वहाबी और सलाफी इस्लाम अन्य देशों में फैलाया जा रहा था, तब अपने देश की भी कुछ इस्लामी संस्थाओं ने उसे अपने स्तर पर फैलाना शुरू कर दिया। यह समझने की जरूरत है कि कुरान की आयतों में खिमार और जिलबाब का जिक्र तो है, लेकिन वह महिलाओं को पर्दे में रखने के लिए नहीं है। फिर भी शुक्रवार को होने वाली तकरीरों में मुस्लिम मर्दों को ऐसा ही बताया जाने लगा। जब अपने देश में ऐसा हो रहा था, तब ट्यूनीशिया, मोरक्को, मिस्र, तुर्की आदि देशों में मुस्लिम महिला स्कालर कुरान की व्याख्या करके यह स्पष्ट कर रही थीं कि मर्द आलिमों ने अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए हदीसों को अपने ढंग से लिखा और महिलाओं पर पर्दा थोपा। जो मुल्ला-मौलवी महिलाओं को पर्दे में रहना जरूरी बता रहे, वे दरअसल उस इस्लामी साहित्य का सहारा ले रहे हैं, जो अब्बासी खलीफाओं के जमाने में लिखा गया, न कि मुहम्मद साहब के समय में।
आज जब दुनिया आगे बढ़ गई है, तब रोजमर्रा की जिंदगी जीने के तौर-तरीके कुरान की तफ्सीर यानी व्याख्या, हदीस, सिरा आदि में खोजना खुद को 14 सौ साल पीछे ले जाना है। यह ध्यान रहे कि कुरान की तफ्सीरें, हदीसें वगैरह मुहम्मद साहब के जाने के करीब दो सौ साल बाद लिखी गईं।
आखिर भारत जैसा सेक्युलर देश अपने सभी समुदायों के लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं ला सकता? देश ने मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड बनाकर जो गलती की, उससे सबक लेना चाहिए। वैसे भी भारत के साथ दुनिया के अन्य देशों के तमाम मुसलमान यह समझने लगे हैं कि अन्य मत-मजहब वालों के साथ मिलजुल कर रहने में ही सबकी भलाई है। यह दुखद है कि भारत के कुछ मुसलमान अभी भी जिन्ना की टू नेशन थ्योरी में फंसे हैं। वे उन सियासी नेताओं से प्रभावित हैं, जो मुसलमानों को वहाबी इस्लाम के रास्ते पर धकेलकर खुद विलासी जीवन जीने में लगे हुए हैं। अब समय आ गया है कि आम भारतीय मुसलमान सामने आकर यह आवाज बुलंद करे कि वह भारत को पाकिस्तान नहीं बनने देगा, जहां शिया-सुन्नियों में ही नहीं, देवबंदी और बरेलवियों में भी झगड़ा है और जहां अहमदिया मुसलमानों को मुस्लिम नहीं माना जाता। यदि भारत का आम मुसलमान अपना और साथ ही अपनी लड़कियों और महिलाओं का भविष्य संवारना चाहता है तो उसे हिजाब, बुर्का आदि को छोडऩा होगा, क्योंकि ये न तो इस्लाम का जरूरी हिस्सा हैं और न ही आज इनकी कोई जरूरत रह गई है। भारतीय मुसलमानों को उस सबसे भी सबक सीखने की जरूरत है, जो कुछ आज अफगानिस्तान में हो रहा है। जब वहां मुस्लिम महिलाएं बुर्के से आजादी की लड़ाई लड़ रहीं हैं, तब भारत में कुछ लोग अपनी महिलाओं को बुर्का पहनाने की जिद ठाने हुए हैं।
(लेखिका शिक्षिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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