कांग्रेस पार्टी में जल्द बड़े बदलाव नहीं हुए तो BJP और AAP की लड़ाई में हर बार नुकसान उसका होगा

अब हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, कनार्टक और दूसरे राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप नया समूह बनाने की तैयारी में जुट जाएंगे

Update: 2022-03-11 08:01 GMT
राशिद किदवई।
पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और उत्तर प्रदेश में मिली चुनावी हार से कांग्रेस (Congress) का भविष्य अनिश्चित और अंधकारमय नजर आ रहा है. विचार, मुद्दे और प्रचार करने वाले नेताओं से विहीन, इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी को अब आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) और तृणमूल कांग्रेस (TMC) जैसी क्षेत्रीय दलों से भी चुनौती मिलने वाली है.
अब हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, कनार्टक और दूसरे राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप नया समूह बनाने की तैयारी में जुट जाएंगे. संभव है कि कांग्रेस के कुछ क्षमतावान नेताओं को आप, तृणमूल और बीजेपी को ओर से अपने यहां आने के ऑफर भी मिले. मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और कुछ अन्य राज्य में कांग्रेस पारंपरिक रूप से बीजेपी को चुनौती देने वाली पार्टी रही हैं, लेकिन अब इन राज्यों में आप पार्टी बड़े जोरशोर से अपनी धमक देने के लिए तैयार हैं. जाहिर तौर पर आप पार्टी की जंगी आह्वान बीजेपी से दो-दो हाथ करना और उसे हारना होगा, लेकिन इसका अंतिम नुकसान कांग्रेस को ही होगा.
पार्टी मैनेजरों के मामले में राहुल की पसंद भी चौंकाने वाली है
राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी की राजनीतिक ताकत को जबरदस्त झटका लगा है. गांधी परिवार ने जिस तरह से पंजाब की राजनीति को हैंडल किया, – कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह नवजोत सिंह सिद्धू को लाना और फिर नवजोत सिंह सिद्धू की जगह चरणजीत सिंह चन्नी को लाना – उससे पार्टी को यहां भारी शिकस्त मिली. पूरे समय, कांग्रेस इस जमीनी हालात से बेखबर रही है कि पंजाबी वोटर की जरूरतें क्या हैं. हमेशा की तरह जल्दबाजी में राहुल ने वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की सलाह पर चन्नी को चुना. लेकिन दलित कार्ड अपना असर दिखाने में नाकामयाब रहा है. नाराजगी से मोहभंग की हालात तक पहुंचे सिद्धू से प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष पद से पहले ही इस्तीफा दे दिया और हो सकता है कि उन्होंने निष्क्रिय होने का विकल्प चुना हो, जिससे पार्टी को एक प्रभावशाली प्रचारक और कुशल वक्ता से हाथ धोना पड़ा.
पार्टी मैनेजरों के मामले में राहुल की पसंद भी चौंकाने वाली रही. उत्तराखंड के लिए उन्होंने दिल्ली के पूर्व विधायक देवेंद्र यादव को चुना. उत्तराखंड कांग्रेस में हरीश रावत और प्रीतम सिंह की अंतर्कलह इतनी अधिक थी कि यादव उसे दूर नहीं कर सकते थे, क्योंकि न तो वह इतने सीनियर नेता थे या न ही वह एक परिपक्व पीसमेकर की जिम्मेदारी उठा सकते थे. पंजाब के लिए AICC की ओर से प्रतिनिधि हरीश चौधरी के मामले में भी यही बात लागू होती है. राजस्थान के एक मंत्री चौधरी के पास इतनी क्षमता नहीं थी वे चन्नी और सिद्धू के बीच शांति स्थापित करा पाएं या सुनील जाखड़, जिन्होंने पंजाब चुनाव के दौरान खुद को प्रचार से दूर रखने का फैसला किया, को समझा पाएं.
गोवा में कांग्रेस बहुत हड़बड़ी में और तर्कहीन बनी रही. यह सही है कि तृणमूल ने खुद को सत्ता का उम्मीदवार बताने में अपनी ओर से एकतरफा घोषणा कर दी, लेकिन चुनावी तैयारियों के बीच टीएमसी की ओर से कांग्रेस को गठबंधन करने की पेशकश की गई थी. कांग्रेस के सीनियर लीडर पी चिदंबरम इस प्रस्ताव को ठुकराते रहे. यह रवैया या अहंकार, 1999 के उस दौर के ठीक उलट था, जब कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) सहयोगी पार्टियां थीं, और शरद पवार ने विदेशी मूल के मुद्दे को उठाते हुए सोनिया गांधी के खिलाफ विद्रोह कर दिया था. समय गुजरने के साथ, कांग्रेस नर्म पड़ गई और 2019 में यह शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली महाराष्ट्र विकास अघाड़ी सरकार शामिल हुई. 24, अकबर रोड में रहने वाले लोग इस बात को लेकर आश्चर्यचकित हैं कि सोनिया की व्यावहारिकता में स्पष्टता की कमी दिखने लगनी है और उसमें जंग पकड़ चुकी है.
AICC को अपना पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनना होगा
प्रियंका गांधी का उत्तर प्रदेश प्रचार अभियान शुरू से ही बेजान रहा. प्रियंका ने यूपी में जितनी कड़ी मेहनत की, वह वोटरों को लुभाने में नाकाफी साबित हुआ. अगर वह महिला सशक्तिकरण के अपने नारे 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' को सभी पांच चुनावी राज्यों में लागू करतीं तो शायद पार्टी के लिए चुनावी परिणाम कुछ अलग और उत्साहजनक हो सकते थे. लेकिन यूपी के बाहर कांग्रेस महिलाओं को 30, 40 या 50 फीसदी टिकट देने से हिचकिचाती रही. दूसरी ओर, बीजेपी को मजबूत महिला वोटर मिले.
हालांकि, सबसे पुरानी पार्टी के लिए अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. कांग्रेस को अपनी जड़ों की ओर लौटने की जरूरत है. पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना करना, ऐसे मुद्दों की पहचान करना जो लोगों के दिलो दिमाग को छू सकें, वगैरह पार्टी के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत बन सकते हैं. सोनिया गांधी को तत्काल अंतरिम अध्यक्ष से इस्तीफा दे देना चाहिए और AICC को अपना पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनने का मौका देना चाहिए. संगठनात्मक चुनाव कराने की हास्यास्पद दरबारी सलाह को खारिज कर दिया जाना चाहिए.
यदि गांधी परिवार के सदस्य अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवारी नहीं पेश करते (जैसा कि राहुल गांधी 25 मई 2019 को स्वयं ऐसा कहा था), एआईसीसी नया पूर्णकालिक अध्यक्ष चुन सकती है, इसके लिए क्षेत्रीय नेताओं और जी-23 के नेताओं में से किसी को चुना जा सकता है. केवीसी के पसंदीदा व्यक्तियों सुरजेवाला और एआईसीसी सेक्रेटेरिएट को चलाने वाले दूसरे लोगों को सोनिया गांधी के साथ इस्तीफा देने के लिए कहा जाना चाहिए ताकि एक नई शुरुआत की जा सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं.)
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