पहचान का संकट

कृश्न चंदर को दुनिया छोड़े चार दशक होने को आ रहे हैं। लेकिन

Update: 2021-10-12 05:25 GMT

कृश्न चंदर को दुनिया छोड़े चार दशक होने को आ रहे हैं। लेकिन नेफा से वापिस आया उनका गधा अपनी आत्मकथा लिखकर लाखों की रॉयल्टी कमाने के बावजूद देश की राजधानी में परेशान घूम रहा है। गधा पढऩे का बेहद शौ$कीन है। नेफा यात्रा के दौरान वह तमाम $कस्बों और शहरों में लाइब्रेरी ढूँढ़-ढूँढ़ अपनी आँखों और दिमाग की खाज मिटाता रहा था। दिल्ली आते ही उसने अपने आप से कहा, 'कौन जाए ज़ौक पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर। वह बड़ी हसरत से घूमते हुए किताबों की उन दुकानों को ढूँढ़ रहा था, जहाँ कभी खड़े होकर वह पूरी किताब चाट जाता था। उसे किताबों की कोई पुरानी दुकान तो नहीं मिली लेकिन एक ठीहे पर चाय पीते हुए उसके कानों में कुछ लोगों की बहस के स्वर उतरने लगे। उसने सुना कि अब लोगों को किताबों पर भी टैक्स देना पड़ेगा। वह सोचने लगा कि जिस देश में वेद उतरे हों, वहाँ नौबत यहाँ तक आ पहुँची है। फिर किसी ने तर्क दिया कि सरकार हर चीज़ का डिजिटाइजेशन करने पर ज़ोर दे रही है। चूँकि प्रजातंत्र में लोगों की अपनी चुनी हुई सरकार होती है। वह हर हाल में लोगों का भला चाहती है। किताबों पर टैक्स लगने से ई-रीडिंग को प्रोत्साहन मिलेगा।


इससे जहाँ पेड़ कटने से बचेंगे, वहीं पर्यावरण में सुधार होगा। लेकिन गधे को अब तक दिल्ली के सही हालात की जानकारी न थी। वह अपनी आत्मकथा पर अमेरिका और यूरोप में आयोजित सम्मेलनों में लगभग एक दशक तक व्याख्यान देने को जब वाशिंगटन उतरा था तो उसकी अगुवाई के लिए स्वयं अमेरिका के राष्ट्रपति हवाई अड्डे पर मौजूद थे। वह उस गधे को देखना चाहते थे जिसने स्वयं अपनी आत्मकथा लिखी है। वरना आजकल गोस्ट राईटिंग का ़फैशन है। जो पढ़े-लिखे नेता अपने संबोधनों में अपने विशिष्ट अन्दाज़ में नर्सरी के बच्चे की तरह गाते हुए अमृत को अमरूत, डिमोक्रेसी को डीमोक्रेसी, पिलर को पीलर और सक को शक बोलते हैं, सुनने में आया है कि वह भी जल्द ही अपनी आत्मकथा बाज़ार में उतारने वाले हैं। गधा उत्सुकता से भर कर पैदल ही घूमने निकल पड़ा। लेकिन उसने देखा कि बेगारी में जुते आदमी को सच और तर्क से कोई मतलब नहीं। सभी अपने-अपने चहेते राजनीतिक दलों और सरकारों का गुणगान ऐसे कर रहे थे मानो देश, विकास और उसकी समस्याएं पड़ोसी के बेटे हों।


कुछ पिछली सरकारों को बेहतर बता रहे थे जबकि कुछ कह रहे थे कि अगर ़फ़कीर ने कपड़े उतरवाए हैं तो सोचकर ही उतरवाए होंगे। यह सुनकर उसे लगा कि किताबों पर जितनी जल्दी टैक्स लगे उतना बेहतर। अंधभक्ति के लिए ज़ाहिल होना ज़रूरी है। ऐसे ही देश में निर्मल बाबा की तीसरी आँख खुल सकती है, राम-रहीम सिनेमाई चमत्कार दिखा सकता है, आसाराम प्रसव पीड़ा से कराह रही औरतों को गोबर खिला सकता है। लोग गौ-मूत्र पीकर भी कैंसर ठीक कर सकते हैं। वह मन ही मन हँसा कि क्या गोबर खाने से दिमा़ग ठीक नहीं हो सकता। गधा सोच रहा था कि देश इतना धार्मिक हो चुका है कि सभी समस्याओं के हल के लिए मन्दिर का घंटा बजाता है या बाँग देता है। लेकिन शासक को पता है कि पहचान के लिए दीवारों पर अपना नाम लिखना ज़रूरी है। कोरोना सर्टि़िफकेट से लेकर हर योजना में चिपकना ज़रूरी है। देश में पर्सनेल्टी डिसऑर्डर है। पहचान का संकट और अंधभक्ति, दोनों पर्सनेल्टी डिसऑर्डर हैं। लेकिन वह चाहे गधा ही सही, उसे अच्छे-बुरे और सही-़गलत की तमीज़ है। तर्क-कुतर्क की पहचान है। लेकिन यहाँ तो आदमी, आदमी होते हुए भी पूरा आदमी नहीं। उसे लगा, हर आने वाले आदमी में तीन व्यक्तित्व छिपे हैं। मुखौटा गधे का, धड़ आदमी का और पूँछ कुत्ते की। ऐसी पूँछ, जो कभी सीधी नहीं होती।

पी. ए. सिद्धार्थ

लेखक ऋषिकेश से हैं


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