ग्रामीण भारत में कैसे ले जल संकट की थाह?

जल-संकट और इस बारे में चर्चा का दौर प्रतिवर्ष अप्रैल से शुरु होता है और 15 जून के आसपास दम तोड़ देता है

Update: 2022-05-10 06:14 GMT
जल-संकट और इस बारे में चर्चा का दौर प्रतिवर्ष अप्रैल से शुरु होता है और 15 जून के आसपास दम तोड़ देता है. जाहिर है जल-संकट एक बार फिर से मौसमी मुद्दा है. हालांकि, यही अवसर होते हैं, जब हम सभी तक स्वच्छ जल के अधिकार के लिए पैरवी कर सकते हैं. कई राज्यों ने पिछले कई वर्षों में इतनी भीषण गर्मी नहीं देखी है, तथ्य पुष्टि कर रहे हैं कि पिछले दो महीनों में बढ़ते तापमान ने जल-संग्रहण में 27 प्रतिशत की कमी कर दी है.
बता दें कि लगातार बढ़ता तापमान स्वाभाविक रूप से पानी के उपयोग और पानी के वाष्पीकरण के कारण पानी के भंडारण में कमी को प्रभावित करता है. इस लिहाज से पिछले दो महीनों के दौरान बांध में पानी का भंडारण आम तौर पर प्रति माह पांच से सात प्रतिशत तक कम हो जाता है. लेकिन, इसी के साथ यह बात गौर करें कि इस वर्ष यह कमी तीन गुना तक बढ़ गई है.
हालांकि, पानी की खपत में वृद्धि का एक कारण भीषण गर्मी है, वहीं हर वर्ष की तरह इस वर्ष की सुर्खियां बता रही हैं कि देश के कई हिस्सों में हर किसी के पास पानी सही मात्रा उपलब्ध नहीं हो पाता है. मूल रूप से, पानी के उपयोग के मामले में. प्रश्न है कि जल-संकट के नये आयाम पर ध्यान देते हुए क्या हम इस संकट हो हल नहीं तो कम कर सकते हैं?
गांव और शहर में समान क्यों नहीं खपत की मात्रा?
इस प्रश्न का उत्तर जब हम ढूंढते हैं तो हमारे मन में एक अन्य प्रश्न आना चाहिए. यह प्रश्न है कि देश में जल-संकट से जुड़ी सबसे अधिक तस्वीरें किसी क्षेत्र और तबके से आती हैं. दूसरा, प्रशासन के स्तर पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच पानी की आवश्यकता तथा खपत के बीच कितना अंतर किया है. यहां कई राज्यों में नीतिगत स्तर पर देखें यह स्पष्ट होता है कि गांव के मुकाबले शहरी क्षेत्र को अधिक पानी दिया जा रहा है, जबकि इसका कारण स्पष्ट नहीं किया गया है.
उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र राज्य के शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 150 लीटर पानी की उम्मीद करते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर 135 लीटर रखी गई है. खबरें बता रही हैं कि गांव में इतना पानी भी सभी को नहीं मिलता है. दूसरा कि गांवों में कृषि और पशुधन के लिए पानी का प्रश्न मानव उपभोग से ज्यादा गंभीर होता जा रहा है, इसलिए राज्यों की नीतियों को लेकर एक बार फिर से समीक्षा की जानी चाहिए.
जल-संकट के इस आयाम को महाराष्ट्र के उदाहरण से समझें तो पिछले दो महीनों में मराठवाड़ा, विदर्भ, कोंकण और उत्तरी महाराष्ट्र में तीन से चार बार लू चली हैं. राज्य भर में अधिकतम तापमान औसत से ऊपर रहा है. पिछले साल अच्छी बारिश और 15 महीने लगातार बारिश के कारण राज्य के बांधों में पर्याप्त जल-भंडार है, मगर फिर ऐसी क्या वजह है कि जल-संकट की चर्चा यह फिर जोरो पर है. ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य अपने जल-भंडार से महज 44 प्रतिशत की ही जलापूर्ति कर सकता है, जबकि गर्मियों का मौसम दो महीने तो होता ही है, 15 जून में अभी एक महीने का समय और है.
पानी ट्रेन के बाद क्या है स्थिति?
हालांकि, मौसम विभाग ने इस साल अच्छी बारिश की भविष्यवाणी की है, लेकिन पिछले कुछ सालों का अनुभव जून में अच्छी बारिश की गारंटी नहीं देता है. इसके अलावा, अप्रैल में प्री-मानसून बारिश न होने के कारण पानी की उपलब्धता में कोई मामूली वृद्धि नहीं हुई है. पिछले दो महीने में राज्य के सबसे ज्यादा जल संग्रहण में कमी पुणे संभाग में कमी आई है. यहां जल-संग्रहण का अनुपात 38 प्रतिशत रहा. यह अनुपात नासिक संभाग में 24 प्रतिशत, जबकि मराठवाड़ा में 21 प्रतिशत रहा.
महाराष्ट्र तो उदाहरण है, पर यह सिर्फ एक राज्य तक लागू नहीं है, देश कई राज्यों में भी मानसून की शुरुआत और पानी की पर्याप्त आपूर्ति तक पानी की चिंता बनी रहेगी. भारत गांव में बसता है और पेयजल, कृषि के लिए पानी और उद्योग के लिए पानी के प्राथमिकता क्रम में पर्याप्त पानी नहीं मिलने से अब सभी पक्षों का असमंजस में पड़ना स्वाभाविक है.
सात साल पहले मिरज से लातूर तक पानी की ट्रेन से चली तो इस खबर को बड़ी प्रमुखता मिली. लेकिन, उसके बाद जो हुआ वह स्थायी जल आपूर्ति योजना के बारे में कोई नहीं बताता. देखा जाए तो पिछले कई दशकों में जल-उपयोग योजना पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया है, लेकिन बदलते हुए मौसम और परिस्थितियों में ग्रामीण भारत को लेकर विचार किया जाना चाहिए.
खेती के पैटर्न से बढ़ रही सिंचाई की समस्या
जल-संकट के अनुभवों को यदि एक राज्य पर केंद्रित करते हुए देखें तो कृषि लागत और मूल्य आयोग की एक रिपोर्ट का हवाला दिया जा सकता है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, महाराष्ट्र में गन्ने की खेती राज्य के कुल फसल क्षेत्र के चार प्रतिशत से भी कम है. लेकिन, इस बहुत छोटे से क्षेत्र के लिए सिंचाई के लिए उपलब्ध कुल पानी का 70 प्रतिशत उपयोग किया जाता है.
लेकिन, देश के दूसरे अंचलों में भी पानी पीने वाले अधिकांश गन्ना या अन्य इसी तरह की अधिक पानी मांगने वाली फसल उत्पादक क्षेत्रों में भी इस बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया गया है. इस भयावह हकीकत को इस आंकड़े से समझा जा सकता है कि प्रदेश में शक्कर मिलों तक करीब 40 लाख टन गन्ना पहुंचता है. वहीं, इस वर्ष प्रदेश में 12 लाख 32 हजार हेक्टेयर में गन्ने की बुवाई की गई है.
अब इसे यहां से देखें, जिन जिलों में अधिक सूखा पड़ता है, वहीं चीनी के अधिक कारखाने हैं. उदाहरण के लिए, सोलापुर जैसे सूखाग्रस्त जिले में भी चीनी के कारखाने अधिक हैं. आंकड़े बताते हैं कि कैसे जल नियोजन विफल हो गया है. वर्ष 2012-13 को सोलापुर जिले में आया सूखा वर्ष 1972 की तुलना से कहीं अधिक भयंकर था, तब 28 चीनी मिलों ने 126.25 लाख टन गन्ने की पेराई की थी.
उस वर्ष सोलापुर जिले में 200 पशु-शिविर थे और लगभग 150 गांवों पूरी तरह से टैंकर के पानी पर निर्भर थे. महाराष्ट्र जल एवं सिंचाई आयोग ने बारिश को देखते हुए सोलापुर जैसे कमी वाले इलाकों में गन्ने की खेती पर रोक लगाने के स्पष्ट निर्देश दिए हैं. हालांकि, 2005 के बाद से सोलापुर जिले में गन्ने के रकबे में 160 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. पिछले दो महीनों में सोलापुर को पानी की आपूर्ति करने वाले उजानी बांध का पानी जिस दर से कम हुआ है, वह चौंकाने वाला है. कमोबेश यही स्थिति राज्य और देश के तमाम क्षेत्रों में है.
कैग ने यह भी सवाल किया है कि जब पानी उपलब्ध नहीं है तो चीनी आयोग नई चीनी मिलों को कैसे अनुमति देता है. वर्ष 1982-83 में महाराष्ट्र में चीनी मिलों की संख्या 78 थी. यह पिछले 40 वर्षों में 190 से अधिक हो गई हैं. हालांकि, राज्य सरकार ने वर्ष 2017 में गन्ने की खेती के लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली को अनिवार्य कर दिया है. लेकिन, क्रियान्वयन को लेकर गंभीरता की मांग है.
वहीं, एक प्रश्न है कि बांध में कितना पानी जमा है, इसका अंदाजा कई दशकों के बाद भी एक जैसा कैसे रह सकता है? वजह यह है कि बांधों में गाद जमा होती रहती है, जिससे जल-भंडार कम हो जाते हैं. वहीं, जलवायु-परिवर्तन के कारण निकट भविष्य में जल-संकट और अधिक गहराने की आशंका बढ़ी है. लिहाजा, जल के खपत और कृषि पैटर्न को ध्यान में रखते हुए नीतिगत परिवर्तन समय की मांग है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
शिरीष खरे लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.

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