टोक्यो से बनी उम्मीद: नीरज चोपड़ा ने आगे का रास्ता खोल दिया
शनिवार का दिन भारतीय खेल के लिए स्वर्णिम दिन बनकर आया, जब नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा
शनिवार का दिन भारतीय खेल के लिए स्वर्णिम दिन बनकर आया, जब नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा। यह भारतीय एथलेटिक्स के इतिहास में नए अध्याय की शुरुआत है। नीरज चोपड़ा ने आगे का रास्ता खोल दिया है। अपनी उपलब्धि के जरिये वह न सिर्फ जेवलिन थ्रो (भाला फेंक) में, बल्कि अन्य खेलों में भी दूसरे एथलीटों के लिए प्रेरणा का काम करेंगे। इससे दूसरे एथलीटों में भी आत्मविश्वास आएगा कि वे भी ओलंपिक में पदक जीत सकते हैं।
उन्होंने वह कर दिखाया है, जो भारतीय खेल इतिहास में अब तक नहीं हो पाया था। अब तक कोई भारतीय ट्रैक ऐंड फील्ड प्रतियोगिताओं में कोई पदक नहीं हासिल कर सका था। इसलिए नीरज चोपड़ा ने एथलेटिक्स में चले आ रहे पदक के सूखे को खत्म किया है। नीरज चोपड़ा की यह उपलब्धि पूरे देश के लिए गर्व की बात है। उनकी इस जीत के साथ टोक्यो ओलंपिक में भारत ने कुल सात पदक जीते, जो किसी एक ओलंपिक में सबसे अधिक पदक लाने का भारत का नया रिकॉर्ड है। इससे पहले 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत ने छह पदक हासिल किए थे। एथलेटिक्स में हमारा सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है। पर मुझे नहीं लगता कि एथलेटिक्स में हम पिछड़े हुए हैं। कुछेक को छोड़कर हमारे ज्यादातर खिलाड़ियों ने टोक्यो में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया।
जब इतनी बड़ी प्रतियोगिता होती है, तो उसमें थोड़ी-सी कमी की वजह से हम पदक हासिल करने से चूक जाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम एथलेटिक्स में पिछड़े
हुए हैं। कुल मिलाकर टोक्यो में हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहा है। नीरज की इस ऐतिहासिक कामयाबी के पीछे उनके परिवार का त्याग, कोच की भूमिका तो थी ही, एथलेटिक फेडरेशन की भी बड़ी भूमिका थी। फेडरेशन उन्हें हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवा रहा था। ललित भनोत की अगुवाई में 10 साल पहले फेडरेशन ने जेवलिन थ्रो के एथलीटों को तैयार करने की जो मुहिम शुरू की थी, नीरज चोपड़ा को ओलंपिक में मिला स्वर्ण पदक उसी का नतीजा है। नीरज के लिए उवे हॉन जैसा कोच उपलब्ध करवाने में ललित भनोत की ही भूमिका है। उवे हॉन दुनिया के एकमात्र जेवलिन थ्रोअर हैं, जिन्होंने वर्ष 1984 में 104.80 मीटर जेवलिनथ्रो का विश्व रिकॉर्ड बनाया था। मेरी समझ से जेवलिन के लिए उनसे श्रेष्ठ कोच दुनिया में नहीं होगा। नीरज के लिए उनका चयन एथलेटिक्स फेडरेशन ने ही किया। इसके अलावा नीरज को जो भी वैज्ञानिक, चिकित्सीय एवं तकनीकी सहायता की जरूरत थी, वह सब फेडरेशन ने उपलब्ध कराई।
यह ठीक है कि हम फिर भी दोहरे अंकों तक नहीं पहुंच पाए हैं, लेकिन इस बार के ओलंपिक में हमने अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है, यह बहुत बड़ी खुशी की बात है। जिस तरह से देश में खेलों का विकास हो रहा है, सरकारें खेलों का महत्व समझने लगी हैं, उससे उम्मीद है कि हम शीघ्र ही ओलंपिक में दोहरे अंक तक पहुंच जाएंगे। नीरज अभी मात्र 23 साल के युवा हैं और काफी प्रतिभावान हैं। अगर वह स्वस्थ रहते हैं, उन्हें किसी गंभीर चोट का सामना नहीं करना पड़ता है, तो अगले दो ओलंपिकों में वह और भी इतिहास रच सकते हैं। यह समझने की जरूरत है कि हमारे बहुत से खिलाड़ियों को कोविड की वजह से ठीक से प्रशिक्षण नहीं मिल पाया। आवाजाही संबंधी प्रतिबंधों के चलते विदेशी प्रतिस्पर्धाओं में भी वे हिस्सा नहीं ले सके।
प्रतियोगिता सबसे जरूरी है, क्योंकि उससे खिलाड़ियों की प्रतिभा में निखार आता है। नीरज आज यहां तक पहुंचे हैं, तो उसकी एक वजह यह भी है कि उन्होंने काफी विदेशी प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लिया। जबकि डिस्कस थ्रो में फाइनल में पहुंचकर छठे स्थान पर रही कमलप्रीत कौर को इस वर्ष एक भी विदेशी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने का मौका नहीं मिला। अगर उन्हें अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में खेलने का मौका मिले, तो मुझे उम्मीद है कि अगले ओलंपिक में डिस्कस थ्रो में भी हमें स्वर्ण पदक मिलेंगे। कहने का मतलब यह कि जब हालात ठीक हो जाएंगे और हमारे खिलाड़ी अच्छी तरह से प्रशिक्षण लेकर विदेशी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेंगे, तो उनकी प्रतिभा में और भी निखार आएगा तथा अगले ओलंपिक में हम ज्यादा पदक जीत पाएंगे।
हालांकि यह भी मानना पड़ेगा कि जमीनी स्तर पर हमारे खिलाड़ियों को जो सुविधाएं मिलनी चाहिए, वे हम नहीं उपलब्ध करा पाते। जो खिलाड़ी नाम कमा लेते हैं, उन्हें तो सुविधाएं दी जाती हैं, लेकिन जो शुरुआती संघर्ष के दौर में होते हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि उन्हीं पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। स्कूल के स्तर पर ही अगर हम खिलाड़ियों पर खर्च बढ़ाएं, उन्हें खेल सुविधाएं उपलब्ध कराएं, तो बहुत-सी नई खेल प्रतिभाएं सामने आएंगी। भले हम ऊपर के स्तर पर थोड़े खर्च घटा दें, लेकिन निचले स्तर पर खेल में ज्यादा निवेश करने की जरूरत है। स्कूली स्तर पर ही जो खेल प्रतिभाएं उभरती हैं, उन्हें सालाना वित्तीय मदद और खेल सुविधाएं उपलब्ध कराने के बारे में सरकारों को सोचना चाहिए। इस संबंध में एक नीति बना लेनी चाहिए।
हरियाणा एवं कुछ अन्य राज्य सरकारें ऐसा कर भी रही हैं। महिला हॉकी टीम में जितनी भी लड़कियां हैं, वे लगभग सभी गरीब परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। अब हरियाणा सरकार ने सबको 50-50 लाख रुपये देने की घोषणा की है, तो इससे उन्हें थोड़ी-बहुत मदद मिल जाएगी। इसलिए केंद्र सरकार को एक नीति बनानी चाहिए कि खिलाड़ियों को इतना पैसा हम देंगे और इतना पैसा राज्य सरकारें देंगी। ऐसा नहीं कि कोई राज्य एक करोड़ रुपये दे रहा है और कोई एक लाख। इनाम में एकरूपता होनी चाहिए। हॉकी की दोनों टीमों को तैयार करने में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने हॉकी टीम के प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए जो किया है, वैसा काम किसी ने नहीं किया। खिलाड़ियों को इस तरह का समर्थन सभी राज्य सरकारों को देना चाहिए और वह भी पदक जीतने के बाद नहीं, बल्कि पदक जीतने से पहले, ताकि वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकें। अगर राज्य सरकारों के पास फंड की कमी है, तो उन्हें खेल मंत्रालय से इस संबंध में संपर्क करना चाहिए, पर खिलाड़ियों की मदद के लिए उन्हें आगे आना होगा।
अमर उजाला