तालिबान का इतिहास ( पार्ट-1) : जरदारी के व्यापार घाटे ने तैयार किया इस खतरनाक संगठन का बेस
तालिबान का इतिहास
सौरज्य भौमिक।
साल 1994, अफगानिस्तान में काबुल पर कब्जे के लिए भीषण लड़ाई चल रही थी और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बदहाल हालत में थी. इन दोनों देशों की पृष्ठभूमि में तालिबान का जन्म हुआ. अफगानिस्तान में जन्मा तालिबान पाकिस्तान में जाकर पला बढ़ा और इतना ताकतवर बन गया कि आज वह अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो गया है.
उस वक्त काबुल की गद्दी पर ताजिक बुरहानुद्दीन रब्बानी बैठा था. लेकिन उसकी शक्ति देश के उत्तर-पूर्व में और काबुल शहर के आसपास के कुछ इलाकों तक ही सीमित था. दक्षिण में गुलबुद्दीन हिकमतयार कि नजर काबुल पर थी, साथ में उसके सहयोगी थे उज़्बेक राशिद दोस्तम. उसने उत्तर में मजार-ए-शरीफ और आसपास के 6 प्रांतों पर कब्जा कर लिया था. सत्ता की चाहत में दोनों आए दिन काबुल पर हमले कर रहे थे. उस दौरान, हेरात और पश्चिम में तीन अन्य प्रांत ईरान के मित्र इस्माइल खान के हाथों में था. देश के पूर्वी भाग में, पाकिस्तान के तीन प्रमुख पश्तून प्रांतों को एक परिषद द्वारा चलाया जाता था, जिसे अरबी में 'सूरा' कहते हैं और. उनकी शक्ति का केंद्र जलालाबाद था.
इधर पाकिस्तान में, बेनजीर भुट्टो इस्लामाबाद में दूसरी बार सत्ता पर काबिज हुईं. बेनजीर के पति आसिफ अली जरदारी कैबिनेट मंत्री भी रहें. हालांकि जरदारी को पाकिस्तान में राजनेता कम ओर बिजनसमैन के रूप में ज्यादा जाना जाता है. उस वक्त पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कपड़ा उद्योग की अग्रणी भूमिका थी. पाकिस्तान के कुल कार्यबल का 40 से 50 प्रतिशत कपड़ा उद्योग से जुड़ा था. और सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत कपड़ा उद्योग से आता था. न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार विरोधियों की नज़र में जरदारी सत्ता का दुरुपयोग कर भ्रष्टाचार के प्रतीक बन गए थे. चाहे सैन्य अनुबंध, सरकारी संपत्ति की बिक्री, निजीकरण, प्रसारण लाइसेंस, सरकारी एयरलाइनों द्वारा विमान की खरीदारी हो या कपड़े का निर्यात कोटा का वितरण और नियंत्रण, सबके लिए जरदारी को 'कट मनी' देना पड़ता था. जरदारी का कपड़े का व्यापार था.
जरदारी को कपड़े के व्यापार में घाटा
लेकिन 1994 में, पाकिस्तान में कीटों के हमले के कारण लगभग 10 लाख हेक्टेयर कपास भूमि नष्ट हो गई थी. कीटों के कारण जरदारी को कपड़ों के व्यापार में जबरदस्त झटका लगा. कपास के बिना कपड़ा उद्योग असंभव है. पाकिस्तान में कपास सफेद सोना कहा जाता है. कभी-कभी व्यापार में आया संकट नए अवसर भी दे देता है. अपने व्यापार को बचाने के लिए जरदारी ने तुर्कमेनिस्तान में उत्पादित पूरे कपास को खरीदा लिया. उस दौरान शिया-सुन्नी विभाजन और विभिन्न जातीय समूहों के बीच विवादों को लेकर ईरान के साथ पाकिस्तान के संबंध में दरार आना शुरू ही हुआ था. जरदारी ने कपास को समुद्र के रास्ते ईरान से ना लाकर, अफगानिस्तान के हेरात और कंधार के रास्ते पाकिस्तान के क्वेटा लाने का फैसला किया. लेकिन इन सड़कों पर लुटेरों और क्षेत्रीय कमांडरों से सुरक्षा कौन प्रदान करेगा? सत्ता में रहने के कारण जल्दी ही पाक सेना और आईएसआई के जरिए वह शख्स मिल गया जो उन्हें उनकी इस बारे में मदद कर सके. उसका नाम था मुल्ला उमर. एक तरफ उमर, तो दूसरी तरफ जरदारी और सैन्य अभियान के महानिदेशक परवेज मुशर्रफ, फिर क्या था, जरदारी का व्यापार धड़ल्ले से चलने लगा.
1989 से 1992 तक नजीबुल्लाह की सेना के विरोध में लड़ने वाले उमर को मानसिक और शारीरिक चोट पहुंचा था. सन 89 में जलालाबाद की लड़ाई में उसकी दाहिनी आंख चली गई और उसके माथे और गाल पर भी गंभीर चोट लगी. उमर ने पाकिस्तान में इस्लामी कानून का अध्ययन किया और उसे आतंकवाद का पाठ शेख अब्दुल्ला आजम ने पढ़ाया. यह वही आजम है जो सोवियत संघ के खिलाफ जिहाद के वैचारिक आयोजकों और कारीगरों में से एक था और यही ओसामा बिन लादेन का गुरु भी था.
तालिबान की उत्पत्ति
किसी भी दमनकारी नेता के उदय के पीछे देश में चल रही सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता की कहानी होती है और साथ में उस नेता और उसके अनुयायियों द्वारा फैलाई गई मनगढ़ंत कहानी, जो आग में डाली गई घी की तरह काम करती है. ज्यादातर मामलों में इन कहानियों का मूल विषय वस्तु होता है, इनके नेताओं को ईश्वर द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर दिया गया अंतर्दृष्टि. उमर उस समय कंधार के एक मदरसे में शिक्षक था. उस दौरान पूरे अफगानिस्तान में, 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' जैसा हाल था, चारों तरफ भ्रष्टाचार, हत्या, हिंसा, लूट, डकैती और अनैतिकता व्याप्त थी. कहा जाता है, उमर को भी ऐसी ही 'दिव्य दृष्टि' मिली थी. कहते हैं, उमर को हज़रत मुहम्मद के संदेश में शांति बहाल करने का आदेश मिला. पैगंबर के संदेश पर भरोसा करते हुए, उमर मोटरसाइकिल पर सवार होकर छात्रों की खोज में निकल पड़ा, जिन्हें अरबी में तालिबान कहते हैं. वे एक के बाद एक मदरसे गया. कुछ दिनों में ही करीब 200 छात्र उमर के साथ जुड़ गये, और देखते ही देखते 6 महीने के अंदर यह संख्या 200 से 20,000 तक पहुंच गई.
तालिबान का उदय
कंधार का स्पिन बोल्डक जिला, जहां 40 दिन पहले पुलित्जर विजेता भारतीय फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी की तालिबान ने हत्या कर दी थी. इसी स्पिन बोल्डक से पाकिस्तान के चमन की दूरी 16 किलोमीटर है. अक्टूबर 1994 में, तालिबान ने स्पिन बोल्डक जिले में एक शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया था. 20,000 कलाश्निकोव राइफलें (कुछ स्रोतों के अनुसार 80,000) और 120 तोपें उनके हाथ लगी थीं, और आधिकारिक तौर पर यहीं से तालिबान ने अपनी यात्रा कि शुरुआत की.
29 अक्टूबर को जरदारी का पहला निर्यात किया गया कपास तुर्कमेनिस्तान से पाकिस्तान पहुंचा. ठीक एक हफ्ते बाद, 4 नवंबर, 1994 को तालिबान ने कंधार पर कब्जा कर लिया था. पाकिस्तान ने तालिबान को धन और हथियारों की आपूर्ति कि. शुरू-शुरू में पाकिस्तान के खुफिया विभाग आईएसआई को तालिबान पर थोड़ा संदेह था. अफगानिस्तान की आंतरिक राजनीति में उनका समर्थन हिकमतयार के प्रति था. इस बार उन्हें एक नया विकल्प मिला. पहले से ही तालिबान के प्रति मुशर्रफ, जरदारी, बेनज़ीर भुट्टो सरकार और सेना सहानुभूति रखते थे, इस बार आईएसआई ने भी हाथ मिलाया. और यहीं से पाकिस्तान का तालिबान को समर्थन देने की सिलसिला शुरू हुआ.
1994 के अंतिम महीनों में, तालिबान और आईएसआई के आपसी संबंध और घनिष्ठ हुए. तालिबान ने आधिकारिक तौर पर आईएसआई के इस्लामाबाद मुख्यालय में महानिदेशक जावेद अशरफ काजी से मुलाकात की और एक ही मांग रखी – मुजाहिदीन को और कोई मदद नहीं दिया जाय.
इस बीच तालिबान ने कंधार पर कब्जा करने के कुछ ही दिनों में हेरात और जलालाबाद पर भी कब्जा कर लिया. 1996 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया. 1997 तक तालिबान के पास 50,000 सैनिकों, रिजर्व बेंच पर 40,000 प्रशिक्षित सैनिकों, 300 टैंकों और कुछ मिग लड़ाकू विमानों का जखीरा था. तालिबान आपूर्ति स्थलों में पाकिस्तान के अटोक, कराची, पेशावर और बलूचिस्तान के मदरसे शामिल हैं.
तालिब कौन है?
जमात-ए-इस्लाम उस समय भुट्टो सरकार की सहयोगी थी. उनके द्वारा चलाए जा रहे मदरसों से एक के बाद एक तालिब निकल रहे थे. यह तालिब कौन हैं? 1969 में अफगान युद्ध के कारण लगभग 30 लाख शरणार्थियों ने पाकिस्तान में प्रवेश किया. उनमें से कई अनाथ थे, जिनका कोई आश्रय नहीं था. उस समय तालिबान के कहने पर पाक सरकार ने सूफी दरगाह को बंद करके मदरसों को फिर से खोल दिया था. आर्थिक सहायता कर रहा था सऊदी अरब. इन मदरसों में भर्ती हो रही थी. पाकिस्तान की पैरामिलिट्री फ्रंटियर कांस्टेबुलरी कोर उन्हें युद्ध की ट्रेनिंग दे रही थी. तालिबान की जरूरत के मुताबिक कक्षाएं बंद की जा रही थीं. छात्रों को बसों में भरकर जिहाद के लिए कंधार भेजा जा रहा था.
सन 1998 तक अफगानिस्तान की 90 फीसदी जमीन उमर के कब्जे में थी. तालिबान के बढ़ते प्रभाव के कारण बड़े बड़े नेताओं को देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस्माइल खान और हेकमतयार को ईरान से निर्वासित कर दिया गया. दोस्तम को तुर्की भेज दिया गया. अहमद शाह मसूद उत्तरी अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में लड़ रहे थे. बाद में पाक सेना ने अहमद शाह मसूद को पकड़ लिया, जो अफगानिस्तान पर कब्जे की लड़ाई में तालिबान की तरफ से मौजूद थी.