हिन्दू मुसलिम- पार्ट 4: क़ुरआन में क्या सनातन धर्म का ज़िक्र है?
मैंने इससे पहले वाले अंक में आप से वादा किया था कि आपको इस भाग में उस नाम से परिचित करवाऊँगा जो ऐसा प्रतीत होता है
शकील शमसी। मैंने इससे पहले वाले अंक में आप से वादा किया था कि आपको इस भाग में उस नाम से परिचित करवाऊँगा जो ऐसा प्रतीत होता है कि सनातन धर्मियों के लिए क़ुरआन में इस्तेमाल हुआ है। मुझे लगता है कि इस रहस्य पर से पर्दा इसलिए भी उठाया जाना बहुत ज़रूरी है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दीवार उठाने के लिए काफ़िर शब्द का सबसे अधिक प्रयोग किया जाता रहा है। जबकि काफ़िर का अर्थ होता है इंकार करने वाला। (सनातन धर्म ने भी इसी आशय को व्यक्त करने वाला नास्तिक शब्द हज़ारों साल पहले दुनिया को दिया था।)
यह शब्द एकेश्वरवाद पर विश्वास रखने वालों के लिए प्रयोग नहीं हो सकता क्योंकि 1400 वर्ष पूर्व जिन लोगों ने पैगंबर हज़रत मोहम्मद के एकेश्वरवाद के संदेश को क़ुबूल करने से इंकार किया उनको क़ुरआन में काफ़िर कहा गया और बहु वचन में उनको कुफ़्फ़ार ए क़ुरैश कहा गया। यह शब्द उस विशेष समूह के लिए प्रयोग किया गया जो मक्का और आसपास के इलाक़ों में आबाद था। इस समूह के अलावा क़ुरआन में तीन अन्य धर्मों के नाम आये हैं। एक धर्म का नाम नसारा (ईसाई), दूसरे का यहूदी और तीसरे का साबइन बताया गया है। दुख की बात है कि मुसलिम उलेमा ने काफ़ी लम्बे समय तक यह जानने की कोशिश नहीं की कि साबइन किस समूह के लिए प्रयोग हुआ है।
अधिकतर लोग यही कहते रहे कि साबइन सितारों और नक्षत्रों पर विश्वास रखने वाले धर्म समूह के लिए प्रयोग हुआ है। उर्दू के शब्दकोष में भी यही लिखा है कि सितारों पर यक़ीन रखने वाली क़ौम। मगर पिछली सदी में कुछ मुसलिम उलेमा ने साबइन शब्द की व्याख्या की और यह लिखा कि क़ुरआन ने साबइन के नाम से जिस धर्म समूह को सम्बोधित किया है वह सनातन धर्म है। वैसे भी साबइन और सनातन शब्द का पहला और और अंतिम अक्षर एक ही है जिससे इस बात का अंदाज़ा लगाना बिलकुल मुश्किल नहीं कि जिस तरह क़ुरआन ने ईसाइयों को ईसाई के बजाय नसारा के नाम से सम्बोधित किया उसी तरह सनातन धर्मियों को शायद साबइन कह कर समबोधित किया गया हो।
एक उल्लेखनीय बात यह है कि क़ुरआन में सूरा ए बक़रा की 62वीं आयत में अल्लाह ने वादा किया है, "बेशक जो लोग मोमिन (नेक व सच्चे मुसलमान) हैं और जो यहूदी हैं और नसारा (ईसाई) हैं और साबइन हैं उनमें से जो अल्लाह (ईश्वर) पर आखिरी दिन ([प्रलय) पर ईमान लाएँ (विश्वास करें) और पुण्य के काम करें तो उनके लिए उनके रब्ब (पालनहार) के पास अज्र (पुरस्कार) है, न उन पर भय छायेगा और न वह ग़मगीन (दुखी) होंगे"। इस आयत से स्पष्ट होता है कि अल्लाह उन लोगों को पुरस्कृत करने का वादा कर रहे हैं जो ईश्वर के होने, प्रलय के आने पर यक़ीन रखते हैं और पुण्य के काम करते हैं।
साबइन के सनातन धर्मी होने की बात इसलिए भी मानी जा सकती है कि इब्ने कसीर द्वारा की गई क़ुरआन की व्याख्या की पुस्तक में अब्दुल रहमान बिन ज़ैद का यह कथन है, "साबइन स्वयं को हज़रत नूह की उम्मत (ऋषि मनु का मानने वाला) कहते थे"।(हम पिछले भागों में इस बात को बता चुके हैं कि ऋषि मनु जिनको भारत के लोग कहते हैं, उन्हीं को मुसलमान हज़रत नूह कहते हैं।) विकिपीडिया में साबइन का जो परिचय दिया गया है उसमें लिखा गया है कि साबइन साबी का बहुवचन है, ये लोग वे हैं जो प्रारम्भ में यक़ीनन किसी सच्चे धर्म पर चलने वाले रहे होंगे क्योंकि क़ुरआन में यहूदियों और ईसाइयों के साथ इनका भी नाम लिया गया है। उसमें यह भी कहा गया है कि साबइन खुद को हज़रत नूह (मनु) को मानने वाला वर्ग कहते थे।
विकिपीडिया में यह भी लिखा गया है कि साबइन एक धार्मिक वर्ग था जो एकेश्वरवाद और ईश्वर के उतारे हुए संदेश वाहकों (अवतारों) पर विश्वास रखता था। यह वर्ग वास्तव में अहले किताब (ईश्वरीय धर्म ग्रंथ वाला समूह) था। वैसे मुसलिम धर्मगुरु मौलाना शम्स नवेद उस्मानी ने अपनी किताब "अगर अब भी न जागे तो" में साबइन को सनातन धर्मी साबित करने के लिए बहुत सी दलीलें दी हैं।
मौलाना उस्मानी ने तो यह बात भी साबित की है कि क़ुरआन के सूरा ए शोअरा और सूरा ए नहल में अन्य धर्म ग्रंथों के लिए अरबी भाषा में जो शब्द प्रयोग किये गये हैं उनका अर्थ आदि ग्रंथ और वृहत पन्ने होता है (चूँकि पुराने ज़माने में कुछ भी लिखने के लिए पत्तों का इस्तेमाल होता था तो उनको अलग पन्नों की शक्ल में ही रखा जा सकता था इसलिए क़ुरआन में ईश्वर द्वारा भेजी गई अन्य पुस्तकों को वृहत पन्नों का नाम दिया गया)। ख़ुशी की बात यह है कि कुछ उलेमा ने हिन्दू और मुसलिम धर्म का अध्ययन करके दोनों धर्मों को निकट लाने की कोशिश की।