घर से बाहर निकला तो सामने शास्त्रीजी के लॉन में टैंट लगा हुआ था। शास्त्रीजी कुछ काम कर रहे थे। जिज्ञासावश मैं अंदर लॉन में गया तो भट्टी पर कढ़ाई चढ़ी हुई थी और हलवाई पकौड़े तल रहा था। मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है? मैंने शास्त्रीजी से ही पूछा -'शास्त्रीजी, आज क्या प्रोग्राम है? पकौड़े कैसे तले जा रहे हैं?' शास्त्रीजी मेरे पास ही आ गए और बोले -'शर्मा जी, आपको कुछ भी पता नही होता। अरे भाई आज से हिंदी पखोड़ा (पखवाड़ा) शुरू हो गया है। अभी शाम को हिंदी के उन्नयन के लिए संगोष्ठी होगी, तत्पश्चात हिंदी सेवियों के लिए पकौड़ा-जलेबी का हैवी नाश्ता दिया जाएगा।' मैंने कहा -'लेकिन हिंदी उन्नयन और पकौड़ा-जलेबी का तालमेल मेरी समझ में नहीं आ रहा?' वे हंसने लगे और बोले -'मैं राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का प्रधानमंत्री हूं और विगत चालीस वर्षों से मैं यह अनुष्ठान करता आ रहा हूं। हिंदी के लिए मैंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है।' मैं बोला -'लेकिन उन्नयन में, यह भी अजब-गजब है।' वे बोले -'ये सब हिंदी की देन है। सरकार हिंदी के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए इतना अनुदान संस्था को देती है कि मैं असली घी का गाजर का हलवा भी खिलाता रहूं तो पूरे वर्ष राशि खत्म नहीं हो।' मैंने कहा -'लेकिन आपके दोनों बेटे अंग्रेजी माध्यम से पढक़र ही आगे बढ़ पाए हैं। इसमें हिंदी का कोई योगदान न आपने लिया न हिंदी ने दिया।' वे बोले -'शर्मा जी, वे अंग्रेजी से राइज कर पाए और मैं हिंदी से, फर्क इतना सा है। बाकी कोई अंतर है नहीं।' मैं बोला -'मेरा मतलब वे भी तो हिंदी सेवी हो सकते थे।' शास्त्री ने बात को विराम देने के लिहाज से कहा -'शर्मा जी, छोडि़ए इस मुद्दे को। यह लंबी बहस की बात है। आप तो आइए और हिंदी का पकौड़ा भरपेट खाइए।' यह कहकर वे एक खाली प्लेट लेकर पकौड़े लेने चले गए। तभी वहां अन्य हिंदी सेवियों का भी आगमन शुरू हो गया।
थोड़ी देर में तो पांडाल में हिंदी सेवियों की पूरी जमात आ इक_ा हुई। वे सब प्लेटों में जलेबी-पकौड़ा भर-भर कर गरमा-गर्म बातचीत के बीच पेट भराई में जुटे थे। शास्त्रीजी ने एक प्लेट भरकर मुझे भी पकड़ा दी। जाते-जाते बोले -'मुझे पता है शर्मा जी, हिंदी सेवा को लेकर आपके मन में द्वंद्व छिड़ा हुआ है। उसके लिए पूरा पखोड़ा पड़ा है, आज केवल पकौड़ा।' यह कहकर वे चले गए। मेरे पास एक बुजुर्ग सज्जन खड़े हुऐ थे तथा प्लेट खाली कर रहे थे, मैंने उन्हीं से पूछा -'क्यों सर, आप कब से हिंदी सेवा से जुड़े हुए हैं।' उनके पास भी वक्त नहीं था, वे बोले -'आधा घंटे बाद बात करेंगे, फिलहाल केवल पकौड़ा।' मैं चुप हो गया। मैंने भी प्लेट सलटाने का कार्य शुरू किया तो पाया कि हिंदी सेवा का पकौड़ा बेहद स्वादिष्ट था। तभी एक सज्जन मेरे पास आए और बोले -'माफ करिए, आपको पहले कभी नहीं देखा। आपका परिचय?' मैं बोला -'मैं शास्त्रीजी का पड़ौसी हूं। मेरी नौकरी बाहर थी। वर्षों से बाहर था, इसी साल घर लौटा हूं। शास्त्री जी ने मुझे भी हिंदी सेवी सम्मान से उपकृत कर दिया। सौ यह पकौड़े खा रहा हूं।' 'मुझे आपके पकौड़ा खाने से गुरेज नहीं है। लेकिन आपने हिंदी के लिए किया क्या है?' मैं हतप्रभ रह गया, अनायास ऐसा प्रश्न सुनकर, फिर साहस कर बोला -'हिंदी के लिए मेरे जैसा नाचीज कर भी क्या सकता है? बाई दी वे आप हिंदी के लिए क्या कर रहे हैं?' मैंने उनसे पूछा तो वे बिदक गए, बोले – 'हमसे मत पूछिए यह सवाल। हम तीस-चालीस से शास्त्री जी के साथ लगे हुए हैं। हिंदी पखोड़े का आगाज करके हमीं उसका समापन करके पूरे साल हिंदी सेवा से लबरेज रहते हैं।' मैंने उन्हें नमस्कार किया और घर लौट आया।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal