पिछले एक साल में लगातार बारिशों और भूस्खलन के कारण पहाड़ों को, खासकर हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों को जितना नुक्सान हुआ है, शायद इतना पहले कभी नहीं हुआ। पहाड़ों में अक्सर छोटे भूस्खलन और नदी में जल स्तर का बढ़ना देखा जाता है। बरसातों में, जो पहाड़ी जनजीवन का हिस्सा है, या अधिक बर्फबारी से कुछ दिनों के लिए जीवन अस्त-व्यस्त हो जाना, इससे भी पहाड़ के लोग जूझना जानते हैं। लेकिन पहाड़ पर हमारी अपनी गलतियों की वजह से जब विपदा आती है तो उसे संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। जैसे अधिकतर पहाड़ी इलाकों में मैदानों जैसे भवनों का निर्माण, जो पहाड़ी भवन वास्तुकला काठ कुनी से बिल्कुल अलग है। हिमाचल के पुराने घरों में लकड़ी और पत्थर का प्रयोग किया जाता था। अब भी कुल्लू, चंबा, शिमला, किन्नौर व कांगड़ा में कुछ घर ऐसे हैं जिन्हें संभाल कर रखा है। यही कला मंदिरों के निर्माण में भी इस्तेमाल की जाती थी। घरों में पहली मंजि़ल में पालतू जानवरों, जैसे गाय, बैल इत्यादि को रखा जाता था और पहली मंजिल तथा दूसरी मंजिल पर लोग रहते थे। लकड़ी तथा पत्थर के इन घरों में कई बार उड़द की दाल को पीस कर सीमेंट की तरह इस्तेमाल किया जाता था। चिनाई में बहुत से घरों में जो 100 साल से पुराने हैं, वहां बुजुर्ग यह कहते हुए मिल जाएंगे।
आज टीन की छत के सिवाय सब कुछ मैदानी इलाकों के घरों की तरह हो गया है। लेंटर वाले घर, घर के ऊपर घर, पहाड़ पर बहुमंजिला घर, शिमला की 8 मंजिला इमारत कैसे गिर गई, हादसा दिल दहला देने वाला था। पहाड़ों को काट कर इतने ज़ोर-शोर से सड़कों का निर्माण हुआ है, हो रहा है, मानों हमें वहां 100 की रफ़्तार से गाडि़यां चलानी हैं। पहाड़ में अगर आप गाड़ी एक सीमित रफ़्तार से चलाएंगे, तभी तो पहाड़ का आनंद ले सकेंगे। पहाड़ों को काट-काट कर अगर मैदान कर दिया जाएगा तो फिर हिमाचल कहां रह जाएगा। हिमाचल मतलब हिम का आंचल और हिम बिना पहाड़ों के नहीं होता। किन्नौर जिले में, कुल्लू में सतलुज, व्यास, पार्वती, लारजी तथा दूसरी छोटी नदियों के पानी से बिजली उत्पन्न करने के लिए असंख्य योजनाओं को सरकार ने मंजूरी दी और वह पनपने लगीं। पानी को एक ख़ास ऊंचाई पर ले जाकर फिर उसे एक वेग के साथ नीचे लेकर आना, फिर उससे बिजली उत्पन्न करना, यह खतरे पैदा करता है। जबकि हिमाचल में सौर ऊर्जा की प्रबल संभावनाएं मौजूद हैं। छोटे स्तर पर यह किया भी जा रहा है, लेकिन इसे व्यापक स्तर पर करने की ज़रूरत है, क्योंकि हिमाचल में सूरज साल में अधिकतर समय रहता है। पहाड़ों के गिरने से जान-माल, सबका नुक्सान होता है। किन्नौर में जितने भी भूस्खलन हुए, उन पहाडि़यों को अगर गौर से देखें तो मालूम होगा कि वहां पर केवल नाम मात्र के ही वृक्ष थे या थे ही नहीं। स्पॉट और समतल होती पहाडि़यों पर अगर देवदार, चीड़ के पेड़ नहीं होंगे या दूसरे पेड़ नहीं लगाए जाएंगे तो पहाड़ की मिट्टी रुकेगी कैसे बहने से। सड़कों के किनारों पर मोटे लोहे की रेलिंग लगानी होगी, उन जगहों पर जहां पहाड़ी से नीचे गिरने का खतरा है। हालांकि बहुत जगह ऐसा कर भी दिया गया है। पहाड़ों की पकड़ और मज़बूती के लिए वृक्षों का होना बहुत ज़रूरी है। तत्काल प्रभाव से पहाड़ों का अवैध दोहन बंद करना होगा।
नदियों-नालों के प्रति जागरूकता की बहुत ज़रूरत है। मैदानों से पहाड़ों के प्रति पलायन को रोकना सबसे ज़रूरी है। पहाड़ों में तेज़ी से बढ़ रहे भवन निर्माण पर तभी अंकुश लगेगा। आज यह हालत है कि हर छोटे-बड़े पहाड़ पर जेसीबी चढ़ाने की कोशिश की जा रही है। पहाड़ों से पत्थर मिट्टी निकाल कर उन्हें खोखला किया जा रहा है। पहाड़ पर ग्रेनेड से ब्लास्टिंग बंद कर देनी चाहिए। लगातार पेड़ों का कटान हो रहा है, उसे रोकने की सख्त ज़रूरत है। लकड़ी माफिया पर अंकुश लगाना होगा। सरकार को एक ठोस निर्णय लेना होगा कि पहाड़ पर दो या तीन मंजिला मकान ही बनेंगे, इससे ज्यादा नहीं, ताकि पहाड़ में बने घर सुंदर लगें, जैसे यूरोप के पहाड़ी इलाकों में सभी घर कितने सुंदर दिखते हैं। जहां तक हो सके भवन निर्माण में सतत सामग्री का प्रयोग किया जाए। ऊंचाई पर बनने वाले घरों में वाटर हार्वेस्टिंग का प्रावधान किया जाए ताकि रोज़मर्रा की जिंदगी में प्रयोग किए जाने वाले पानी की कमी न हो। पहाड़ों में सतत विकास की आवश्यकता है, न कि अंधाधुंध, बिना सोचे समझे किया जाने वाला विकास। हिमाचल में पहाड़ों को मानवता जो नुक्सान पहुंचा रही है, उसे रोकना होगा। पहाड़ों की देखरेख का जि़म्मा हम सबको लेना होगा और इसके प्रति जागरूकता का वातावरण तय करना होगा। अगर हम अपने जंगलों, पहाड़ों, नदी-नालों की देखभाल करेंगे तो प्रकृति भी हमारा साथ देगी, वरना न रहेंगे पहाड़ और न रहेंगे पहाड़ी। पहाड़ों का अंधाधुंध दोहन हमें बंद करना होगा। सतत विकास के जरिए ही ऐसा हो सकता है। विकास हो, लेकिन प्रकृति का संरक्षण भी साथ-साथ जरूरी है।
रमेश पठानिया
स्वतंत्र लेखक