यहां अभिवादन करने वाले की हैसियत देख कर जवाब दिया जाता है
दुनियां के सभी मुल्कों में अभिवादन के बाद प्रत्याभिवादन का रिवाज़ है
दुनियां के सभी मुल्कों में अभिवादन के बाद प्रत्याभिवादन का रिवाज़ है. यानि किसी ने आपको नमस्कार किया तो आप भी उसके नमस्कार का जवाब देंगे. यह सभ्यता की पहली निशानी है. मुस्लिम समाज में अस्सलाम वालेकुम का जवाब वालेकुम अस्सलाम है. आमतौर पूरे मुस्लिम जगत में अभिवादन और प्रत्याभिवादन का यही रिवाज़ है. इसके अतिरिक्त वह भाईजान बोलते हैं. इसी तरह ईसाई समाज में भी गुड मॉर्निंग, गुड नून, गुड आफ़्टर नून या गुड ईवनिंग स्वागत के अभिवादन हैं और गुड नाइट विदाई लेने का. लेकिन भारतवर्ष में समाज अभी भी सामंती मानसिकता में आकंठ डूबा है.
यहां अभिवादन करने वाले की हैसियत देख कर जवाब दिया जाता है. याद करिए, गांव में जब कोई आपको देख कर उठ खड़ा होता था और आपके पद के अनुरूप अभिवादन करता था, तो आप क्या करते थे. किसी को उसी गर्मजोशी के साथ, तो किसी को ढीले-ढाले अन्दाज़ में जवाब दिया. कहीं हथेली को माथे तक ले गए तो किसी को जवाब सिर हिला कर दिया. बहुत जो खड़े होते थे, उनके अभिवादन का जवाब तक नहीं देते थे. आज भी यही सब देखने को मिलता है. वास्तविक दुनियां में भी और आभासी दुनियां में भी.
भारत गांवों से निकल कर शहरों में बस रहा है
आज भारत गांवों से निकल रहा है और शहरों का तेज़ी से विस्तार हुआ है. लेकिन हिंदी भाषी प्रांतों में यह त्वरा नहीं दिखती. इसके अतिरिक्त समाज अपने ग्रामीण मूल्यों को ही लादे है. इसके मूल में हिंदू धर्म के अपने संस्कार हैं. चूंकि हिन्दी पट्टी के हिंदू समाज ने सुधारों को सदैव नकारा इसलिए उसके ये मूल्य और संस्कार भी जड़ हो गए हैं. ये संस्कार हैं सोशल हायरार्की के. सामाजिक स्थिति से हीन व्यक्ति की सदैव उपेक्षा करनी है. इस हायरार्की में ऊपर के पांवदान पर बैठा व्यक्ति नीचे वाले को हेय दृष्टि से ही नहीं देखता, बल्कि उसका नाम बिगाड़ कर बोलेगा. इसके विपरीत बराबर वाले के नाम के बाद 'जी' या 'साहब' लगाया जाएगा और अपने से ऊपर की स्थिति वाले को सरनेम से बुलाया जाएगा. यह उस व्यक्ति से फ़ेवर लेने की कुत्सित कोशिश है. जैसे ठाकुर साहब, ख़ान साहब, गुप्ता जी, पंडित जी आदि-आदि. ये संबोधन और आदतें समाज की निरंतर ह्रास होती स्थिति को बताते हैं.
आपने किसी को नमस्ते, नमस्कार, प्रणाम, सलाम या आदाब बोला, तो सामने वाले का रिस्पांस ही आपकी हैसियत को बताता है. इसे प्रत्याभिवादन कहते हैं. यह बहुत महत्त्वपूर्ण है. प्रत्याभिवादन के अन्दाज़ से समाज में शूद्रत्त्व, दासत्त्व और स्त्री ग़ुलामी की शुरुआत हुई. इसे सूत्र-वाक्य न समझें, बल्कि कभी महसूस करें. प्रत्याभिवादन से ही समाज में आपकी जाति, दर्जे, मज़हब और आर्थिक हैसियत का पता चलता है. जातियों, मज़हबों और लैंगिक भेदभाव का यह रिस्पांस जीता-जागता प्रमाण है. वैचारिक दूरियों का भी. नामी-गिरामी लोग यहां तक कि लेखक, कलाकार, कवि, चिंतक और फ़ेमिनिस्ट भी अक्सर अभिवादन का जवाब नहीं देते अथवा देतीं. वह आपको पहचानने से मना कर देते हैं.
हमें नहीं सिखाया जाता कि मोची और सफाई वाले का अभिवादन कैसे करना है
पाणिनि ने अपने 'अष्टाध्यायी' में धातु-रूपों का वर्णन किया है. संस्कृत में भले ही तुम और आप के लिए एक ही शब्द हो और स्त्री-पुरुष के लिए क्रिया-पद में कोई भेद न हो लेकिन व्यक्ति और काल के अनुरूप फ़र्क़ होता है. रामायण में मंथरा और कैकेयी का दोष सामान था बल्कि कैकेयी का अधिक. पर पूरी रामायण पढ़ लीजिए कैकेयी का खल आचरण उस तरह नहीं व्याख्यायित है, जैसे कि मंथरा का आचरण. कोप भवन में लेटी कैकेयी को "शूद्र वेश:" बता कर महर्षि वाल्मीकि आगे बढ़ जाते हैं. पाणिनि की अष्टाध्यायी से पता चलता है, कि कैसे प्रथम वचन और अन्य वचन में यह फ़ासला आया. यह व्याकरण और शब्द संसार ही शूद्र भाव, दास भाव तथा स्त्रियों की गिरती स्थिति को बताते हैं.
दरअसल बचपन में ही हमारे घरों में इस तरह के भाव दिमाग़ में भरे जाते हैं. पंडित जी के पांव छुओ. सेठ जी और ठाकुर साहब को नमस्ते बोलो. लेकिन कभी नहीं सिखाया जाता कि मोची या सफ़ाई कर्मचारी को क्या बोलना है. रिश्तेदारों में भी पत्नी पक्ष के रिश्तेदारों के प्रति एक अनादर का भाव रहता है. समाज एक विवाहित महिला से उम्मीद करता है, कि वह सास के पैर छुवे. ननद को लाड करे और श्वसुर एवं जेठ से लिहाज़. पर कभी नहीं सिखाया जाता कि उसी स्त्री का पति अपने ससुराल में जा कर सास-श्वसुर से किस तरह पेश आएगा. अब भले कुछ लोग सास-श्वसुर के पैर छूने लगे हों, लेकिन पत्नी के समक्ष सदैव श्वसुर को तुम्हारे पिता और सास को तुम्हारी मां कह कर ही संबोधित करेंगे. यानि पत्नी के करीबी से रिश्ता बेगाना ही होगा. हिंदी पट्टी में रिश्ते-नाते जो शब्द है, इसमें रिश्तेदार यानि पुरुष पक्ष के संबंधी और नातेदार स्त्री पक्ष के संबंधियों को कहा जाता है. किसी भी समारोह में इन संबंधियों की उपस्थिति के समय उनके आदर-सम्मान से यह उपेक्षा भाव साफ़ पता चलता है.
हिंदू समाज डेमोक्रेटिक नहीं हो पा रहा
हालांकि, चीजें अब बदलने लगी हैं, फिर भी उपेक्षा के ये भाव हिंदू समाज में दिख ही जाते हैं. एक जाति-आधारित व्यवस्था में समाज में वर्चस्व की भावना प्रबल होती है. बराबर वाले को दबाकर ही वर्चस्व स्थापित किया जा सकता है. यह दबाना एक तो शक्ति के बूते होता है. दूसरे, उसे सदैव अपमानित कर अहसास कराते रहो कि तुम्हारी हैसियत यही है. यह सिर्फ़ स्त्री-पुरुष में ही निहित नहीं है बल्कि जातियों में, धर्मों में समुदायों में भी वर्चस्व स्थापित करने का लगातार प्रयास होता है. यही वजह है, कि हिंदू समाज डेमोक्रेटिक नहीं हो पा रहा. एक लोकतांत्रिक समाज के जो मूल्य और संस्कार होते हैं, उनका हिंदू समाज में घोर अभाव है. समाज और उसकी एक नियति है निरंतर आगे बढ़ते रहना लेकिन जब आगे बढ़ेंगे तो नए डेमोक्रेटिक नॉर्म्स को भी स्वीकार करना होगा. यह हिंदू समाज की एक बड़ी ख़ामी है. हिंदू समाज में स्त्रियों और वंचितों के प्रति उपेक्षा का भाव रहता ही है. यहां मर्द अपनी बढ़त का शोर मचा कर अपने को अगुआ सिद्ध करने के लिए प्रयासरत रहता है. यह भाव समाज को संकुचित करता है.
मैं यहां हिंदू समाज को इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि भारत में यह एक बहुसंख्यक समाज है. कहीं भी जो समाज बहुसंख्यक हो उसी के सामाजिक मूल्यों को अन्य समाज भी धारण करते हैं. इसलिए उसकी खूबियां और ख़ामियां अन्य समुदायों में भी जाती हैं. भारतीय जनता पार्टी ने बंगाल चुनावों के वक्त "जय श्रीराम" का उदघोष कर यही प्रचारित करने की कोशिश की थी. हालांकि वह वहां सरकार नहीं बना पाई, लेकिन स्त्री-पूजक (देवी पूजक) समाज में पुरुषों की वर्चस्ववादी सत्ता स्थापित करने में कुछ तो सफल हुई ही. यह कोई अच्छी बात नहीं है. आज ज़रूरत है हिंदी पट्टी के हिंदू समाज को अपने अंदर के विकृत भावों को निकाल कर लोकतांत्रिक चिंतन को समाहित करने की. लेकिन हिंदू समाज सदियों से जिस बंद समाज में जी रहा है, उससे लगता नहीं कि वह अपने अंदर व्याप्त जड़ता को निकाल पाएगा.