सेहत की बात: पानी के साथ बीमारी भी
इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास किए होते!
हर घर जल मिशन की गूंज भले ही गांव-गांव में हो रही हो, लेकिन करोड़ों लोगों के कंठ तर करने की इस महत्वाकांक्षी योजना का मूल आधार भूजल है। तथ्य यह भी है कि हमारे देश में आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे रसायनों से युक्त भूजल जहर बन गया है। बस्तर का कांकेर, राजनांदगांव, धमतरी हो या झारखंड का गढ़वा, लातेहार, पलामू, रांची या फिर ओडिशा के बोलांगिर, खुर्दा, कालाहांडी, नवापाड़ा जिले-यहां की बड़ी आबादी दांत के दर्द, हड्डियों की दिक्कत जैसी असीम पीड़ा को अपनी नियति मान चुकी है।
मध्य प्रदेश के बैतूल से आठनेर जाते समय ताप्ती नदी पार करते ही आदिवासी बहुल गांव सीवनपाट की लड़कियों की शादियां नहीं होतीं, क्योंकि उनके पीले दांत इसमें आड़े आ जाते हैं। यह केवल एक गांव की त्रासदी नहीं है, जिले की बड़ी आबादी यही दर्द झेल रही है। लोग तो यही मानते थे कि पाताल से निकला पानी सबसे शुद्ध होगा, लेकिन उन्हें बहुत देर से पता चला कि जीवनदायी जल में फ्लोरोसिस नामक एक ऐसे रसायन की अधिकता है, जिसने उनकी जिंदगी को नर्क बना दिया है। मंडला जिले के तिलइपानी में कुछ दशक पहले पानी का संकट था। इस जल संकट को दूर करने के लिए अधिकारियों ने हैंडपंप लगाए, पर उन्हें क्या पता था कि यह जल जीवनदायी नहीं, जहर है! महज 542 लोगों के इस गांव में 85 बच्चे विकलांग हो गए। यहां तीन से बारह साल के अधिकांश बच्चों के हाथ-पैर टेढ़े हैं। वे घिसट कर चलते हैं और उनकी हड्डियों और जोड़ों में असहनीय दर्द रहता है। जब मीडिया में शोर मचा, तो हैंडपंप बंद किए गए, लेकिन तब तक हालात बिगड़ चुके थे। भले ही आज वहां अंग टेढ़े होने की शिकायत न हो, लेकिन दांतों की खराबी यहां के हर बाशिंदे की त्रासदी है।
मध्य प्रदेश के 15 जिलों के 80 विकास खंडों में करीब 14 हजार गांव ऐसे हैं, जहां का पानी विकलांगता का कारण रहा है। इनमें 2,286 गांव अत्यधिक प्रभावित और 5,402 संवेदनशील माने गए हैं। उत्तर प्रदेश के 75 में से 63 जिलों का पानी भी फ्लोराइड युक्त है। छत्तीसगढ़ में 154 गांव-मजरे-टोले के 54,828 लोग पानी के साथ बीमारी पी रहे हैं। फ्लोराइड पानी का एक स्वाभाविक-प्राकृतिक अंश है और इसकी 0.5 से 1.5 पीपीएम मात्रा मान्य है। लेकिन देश के हजारों ट्यूबवेल और हैंडपंपों से निकले पानी में यह मात्रा 4.66 से 10 पीपीएम और उससे भी अधिक है। समस्या बेहद गंभीर है, लेकिन राज्य सरकारें अपने इस मद के बजट का बड़ा हिस्सा महज सर्वे में खर्च करती हैं। फिर कुछ गांवों में विटामिन या कैल्सियम बांटा जाता है। समस्याग्रस्त गांवों में पेयजल की वैकल्पिक या सुरक्षित व्यवस्था करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जाता।
पानी के साथ लगातार अधिक फ्लोराइड शरीर में जाने से रीढ़, टांग, पसलियां और खोपड़ी की हड्डियां प्रभावित होती हैं। 'फ्लोरोसिस' के नाम से पहचाने जाने वाले इस रोग का कोई इलाज नहीं है। जब कभी भूजल में फ्लोरोसिस के कारण विकलांगता का हल्ला होता है, तो सरकारी अमले हैंडपंप बंद करवा देते हैं। पानी की वैकल्पिक व्यवस्था किए बिना हैंडपंप बंद करने पर लोगों को नदी-पोखरों का प्रदूषित पानी पीना पड़ता है, जिससे हैजा, आंत्रशोथ, पीलिया जैसी बीमारियां होती हैं। डॉक्टरों का कहना है कि गाय-भैंसों के दूध में भी फ्लोराइड की मात्रा बेतहाशा बढ़ी हुई है, जिसका सेवन हानिकारक है। इन इलाकों में फ्लोराइड युक्त टूथपेस्टों की बिक्री भी धड़ल्ले से जारी है। लोकसभा के पिछले सत्र में जल संसाधन मंत्री ने बताया था कि देश में 4,592 गांवों के पानी में फ्लोराइड की अधिकता है।
फ्लोराइड से निपटने में 'नालगोंडा विधि' खासी कारगर रही है। इसके अलावा नीरी, नागपुर और तेजपुर, असम विश्वविद्यालय ने भी कुछ प्रौद्योगिकी विकसित की है, जिससे दस लीटर प्रति व्यक्ति हर रोज के हिसाब से छह सदस्यों के एक परिवार को साल भर तक पानी शुद्ध करने का खर्च मात्र 15 से 20 रुपये आता है। आधे घंटे के प्रशिक्षण के बाद लोग स्वयं ही घर में इसका उपयोग कर सकते हैं। काश, सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास किए होते!
सोर्स: अमर उजाला