स्वास्थ्य योजनाओं की हकीकत

सरकार का उद्देश्य आयुष्मान भारत योजना का विस्तार कर पचास करोड़ परिवारों को इसमें शामिल करना था, मगर लगभग चार वर्षों में इसके विस्तार के बजाय दुरुपयोग की शिकायतों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है।

Update: 2022-07-22 05:41 GMT

विनोद के शाह: सरकार का उद्देश्य आयुष्मान भारत योजना का विस्तार कर पचास करोड़ परिवारों को इसमें शामिल करना था, मगर लगभग चार वर्षों में इसके विस्तार के बजाय दुरुपयोग की शिकायतों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। बड़ी संख्या में आयुष्मान मान्य निजी अस्पतालों द्वारा भर्ती मरीजों को छोटी-छोटी बीमारियों के लिए फर्जी पर्ची के माध्यम से मरीज के पांच लाख रुपए के आयुष्मान कार्ड को खाली करने की शिकायतें प्राप्त हो रही हैं। एक कार्डधारक के पहचान-पत्र से सैकड़ों फर्जी नामों को जोड़ने के अनेक खुलासों के बाद भी सरकार की तरफ से तकनीकी त्रुटि में सुधार के प्रयास नहीं हुए हैं।

देश में बीमारियां और उनका मंहगा इलाज आम आदमी के आर्थिक हालात सुधरने में सबसे बड़ी बाधा हैं। छोटी से छोटी बीमारी एक आम आदमी के महीने भर का वेतन खत्म कर देती है। इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भरता और महंगे इलाज के मद्देनजर केंद्र सरकार ने 2018 में आयुष्मान भारत योजना लागू की थी।

इस योजना में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले, कामगार, निराश्रित, दिहाड़ी, 2011 की आर्थिक जनगणना के आधार पर खाद्य पर्चीधारक और अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को शामिल करते हुए मान्यता प्राप्त निजी अस्पतालों में पांच लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान की गई है। हालांकि इस योजना में राज्यवार भिन्नताएं भी हैं। राज्यों ने अपनी सुविधा से न केवल योजना के नाम में उलट-फेर किया है, बल्कि पात्रता शर्तों को भी घटाया-बढ़ाया है।

फिर भी भारत में सरकार द्वारा नागरिकों के स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली राशि दुनिया के बहुत सारे देशों की तुलना में बहुत कम है। देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का मात्र 3.56 फीसद केंद्र सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर रही है। जबकि तय मानक के अनुसार राज्यों को प्रदेश के कुल बजट का पांच फीसद हिस्सा स्वास्थ्य व्यवस्था पर खर्च करना चाहिए। मगर दिल्ली को छोड़ कर देश का कोई भी राज्य इस मानक की बराबरी तक नहीं पहुंच पाया है।

केंद्र सरकार ने आयुष्मान भारत योजना की बुनियाद को इस प्रकार तैयार किया है कि योजना सिर्फ सीमित पात्रता वाले उन लोगों में सिमट गई है, जिनकी समझ योजना के विषय में नहीं है। देश का मध्यवर्ग स्वास्थ्य पर होने वाले महंगे खर्चों के कारण अपनी आर्थिक तंगी की सीमा से बाहर आने में नाकाम ही रहता है। वहीं आयुष्मान भारत योजना हितग्राहियों को लाभ कम, भ्रष्टाचार का निवाला अधिक बनी हुई है।

जनवरी 2022 तक आयुष्मान भारत योजना में सत्रह करोड़ परिवारों को शामिल कर लगभग दो करोड़ नागरिकों का पांच लाख रुपए तक खर्चे का इलाज किया जा चुका है। सरकार का उद्धेश्य आयुष्मान भारत योजना का विस्तार कर पचास करोड़ परिवारों को इसमें शामिल करना था, मगर लगभग चार वर्षों में इसके विस्तार के बजाय, दुरुपयोग की शिकायतों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। बड़ी संख्या में आयुष्मान मान्य निजी अस्पतालों द्वारा भर्ती मरीजों को छोटी-छोटी बीमारियों के लिए फर्जी पर्ची के माध्यम से मरीज के पांच लाख रुपए के आयुष्मान कार्ड को खाली करने की शिकायतें प्राप्त हो रही हैं।

एक कार्डधारक के पहचान-पत्र से सैकड़ों फर्जी नामों को जोड़ने के अनेक खुलासों के बाद भी सरकार की तरफ से तकनीकी त्रुटि में सुधार के प्रयास नहीं हुए हैं। अकेले मध्यप्रदेश में अभी तक तीन हजार आयुष्मान चिकित्सा मान्यता प्राप्त अस्पतालों की जांच कर उनके आठ सौ करोड़ रुपए के फर्जी भुगतान बिलों पर सरकार ने रोक लगा दी है। 2020-21 में पूरे देश से आयुष्मान कार्ड के दुरुपयोग संबंधी तेईस हजार से अधिक मामले दर्ज हुए थे, जिसमें छत्तीसगढ़, पंजाब, झारखंड और मध्यप्रदेश से सर्वाधिक शिकायतें मिलीं।

चूंकि आयुष्मान कार्डधारक वर्ग गरीब और कम पढ़ा-लिखा है, इसलिए इनसे मिलने वाली शिकायतों की संख्या न केवल कम है, बल्कि अधिकांश को तो उनके साथ हुई ठगी की जानकारी भी नहीं हो पाती है। जहां आयुष्मान अस्पताल मरीज का पलक पांवड़े बिछा कर ऐसा स्वागत करते हैं कि मरीज सम्मोहित होकर यह भी मालूम नहीं कर पाता कि उसके चिकित्सा व्यय का भुगतान अस्पताल प्रबंधन ने कितनी राशि का पेश किया है।

आयुष्मान योजना को नियंत्रित करने वाले संस्थान राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) की निगरानी बहुत प्रभावी नहीं रही है। भ्रष्टाचार और आयुष्मान योजना का दुरुपयोग करने वाले निजी अस्पतालों को प्राधिकरण द्वारा मात्र कारण बताओ नोटिस जारी किए गए हैं। इन अस्पतालों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कराने, उनके लाइसेंस रद्द कराने जैसे सख्त कदम उठाने के बजाय प्राधिकरण जांचों में ही उलझा हुआ है।

आयुष्मान योजना से पूर्व देश में शासकीय सेवा क्षेत्र सहित निजी कंपनियों में कार्यरत कर्मचारियों को नियत प्रीमियम पर स्वास्थ्य बीमा आवश्यक किया गया है। इस प्रकार देश की लगभग आधी आबादी स्वास्थ्य बीमा के दायरे में आ जाती है। मगर शेष आबादी की स्वास्थ्य चिंता को सरकार ने निजी बीमा कंपनियों के भरोसे छोड़ रखा है। वर्ष 2000 में भारत सरकार ने निजी बीमा कंपनियों को एफडीआर के माध्यम से देश में काम करने का मौका दिया। शुरुआत में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद रखी गई थी, जिसे बाद में बढ़ा कर सौ फीसद कर दिया गया।

इसके साथ ही सरकार का नियंत्रण इन बीमा कंपनियों पर कम हो गया है। बीमा दावा भुगतान में इन कंपनियों की विश्वसनीयता शुरू से ही कठघरे में रही है। 2021 तक प्राप्त आंकड़ों में स्वयं की रुचि के आधार पर स्वास्थ्य बीमा लेने वाले नागरिकों की तादाद मात्र पंद्रह करोड़ थी। बीमा कंपनियों द्वारा दावा भुगतान में की जाने वाली ना-नुकुर के कारण देश का आम नागरिक स्वास्थ्य बीमा लेने से डरता है।

वर्ष 2019-20 में बीमा लोकपाल को स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के खिलाफ 30,825 शिकायतें प्राप्त हुई थीं, जिनमें बीमारी के कारण भर्ती मरीजों को बीमा दावा न मिलने और कैशलेस इलाज न मिलने की शिकायतें कुल प्राप्त शिकायतों की सत्तर फीसद थी। बीमा लोकपाल की 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बीमा कंपनियां अपनी शर्तों के प्रति ईमानदार नहीं हैं। बीमा देते समय और दावा निपटाते समय इन बीमा कंपनियों की शर्त परिभाषा बदल जाती है। इसके चलते देश का आम आदमी का निजी बीमा कंपनियों पर भरोसा नहीं बन पा रहा है।

स्वास्थ्य बीमा कंपनियां एक तरफ कैशलेस इलाज की बात करती हैं, लेकिन अस्पताल में भर्ती होते ही पालिसी धारक को परेशान करने लगती हैं। दस्तावेजों में गलतियां निकाल कर उसके दावे को निरस्त कर दिया जाता है। एक सर्वे में यह भी सामने आया है कि सत्तर फीसद दावों में संबंधित बीमा कंपनी प्रथम दृष्टया कैशलेस इलाज उपलब्ध कराने के बजाय पालिसी धारक से विभिन्न दस्तावेजों की कमी दिखा कर पुन: प्रक्रिया में लेने हेतु विलंब करती हैं, जबकि पच्चीस फीसद दावों को सतही स्तर पर ही खारिज कर देती हैं।

प्रतिवर्ष औसतन पंद्रह फीसद पालिसी धारक अपना बीमा दावा प्राप्त करने के लिए उपभोक्ता आयोग और अदालतों का दरवाजा खटखटाने को मजबूर होते हैं। बीमा कंपनियों को लाइसेंस देने और निगरानी हेतु केंद्र सरकार ने बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण को जिम्मेदारी सौपी है। लेकिन बीमा कंपनियों पर प्रभावी नियंत्रण में प्राधिकरण एक पोस्टमैन की भूमिका से अधिक का कार्य नहीं कर सका है।

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