हार्वर्ड यूनिवर्सिटी : बदलनी होगी स्वास्थ्य नीति से जुड़ी सोच

वसा को वरीयता दी जाती है। त्योहारों पर अधिक मीठा व वसायुक्त खाने का चलन इसी का परिणाम है।

Update: 2021-12-12 01:50 GMT

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का एक ताजा अध्ययन बताता है कि यदि हम पैकेज्ड खाने में 20 फीसदी और पेय पदार्थों (बेवरेज) में 40 प्रतिशत शुगर कंटेंट कम कर दें, तो दिल से संबंधित 2.48 लाख बीमारियों के मरीज को कम कर सकते हैं। इससे मधुमेह के 7.5 लाख मरीजों की संख्या कम की जा सकती है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अमेरिका ऐसा करके अगले 10 साल में स्वास्थ्य क्षेत्र में 4.28 अरब डॉलर बचाएगा। अमेरिकी स्वास्थ्य नीति में क्यूरेटिव के साथ प्रिवेंटिव अप्रोच भी जुड़ते जा रहे हैं। दुनिया के किसी भी देश का स्वास्थ्य क्षेत्र तीन अप्रोच पर काम करता है-प्रिवेंटिव, क्यूरेटिव और प्रोमोटिव। प्रिवेंटिव का मतलब है बीमारियों की रोकथाम का अप्रोच, क्यूरेटिव का अर्थ है, यदि बीमारी हो जाए, तो उसका इलाज और प्रोमोटिव का मतलब है कि जो व्यक्ति स्वस्थ है, उसे स्वस्थ बनाए रखा जाए।

भारत के लिए इस अध्ययन और अमेरिका की स्वास्थ्य नीति में बदलाव के बड़े मायने हैं। हमारे देश में 40 फीसदी बीमारियां दूषित जल पीने, साफ-सफाई के अभाव और कुपोषण से फैलती हैं, जिनमें मलेरिया, डायरिया हैजा, माहवारी संबंधी इनफेक्शन, नवजात शिशु और गर्भवती महिलाओं से संबंधित बीमारियां शामिल हैं। ये प्राणघातक बीमारियां हैं। 30 फीसदी बीमारियां गलत जीवन शैली के कारण होती हैं, जिनमें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, तनाव, अस्थमा और मेटाबोलिक सिंड्रोम आदि शामिल हैं। जबकि शेष बची 30 फीसदी में किडनी, दिल आदि से जुड़ी बीमारियां शामिल हैं।
मेडिकल जर्नल लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर वर्ष मलेरिया से दो लाख मौत होती है। यूनिसेफ के अनुसार, दुनिया भर में रोज करीब 800 महिलाओं की गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मौत हो जाती है, जिनमें से 20 फीसदी महिलाएं भारत की होती हैं। संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी एक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017 में भारत में आठ लाख बच्चों की मौत हुई, यानी हर मिनट में तीन मौत। हर साल अकेले डायरिया से 1.2 लाख बच्चे मारे जाते हैं। नवजात बच्चों की सबसे अधिक मौत भारत में होती है।
अक्सर कहा जाता है कि भारत में डॉक्टरों की संख्या कम है। जर्मनी में प्रति हजार लोगों पर 4.3 , स्पेन में 3.9, अमेरिका में 2.9, ऑस्ट्रेलिया में 3.7 और ब्रिटेन में 2.9 डॉक्टर हैं। जबकि भारत में यह आंकड़ा 0.8 है। अपने यहां 11 लाख से ज्यादा एमबीबीएस डॉक्टर प्रैक्टिस करते हैं। साथ ही, 6.3 लाख आयुष डॉक्टर भी हैं। यहां दिक्कत अप्रोच में है। यदि डॉक्टरों की संख्या 22 लाख भी होगी, तो समस्या वही रहेगी। हमारे यहां स्वास्थ्य ढांचा तीन स्तरों पर काम करता है। प्रथम स्तर पर गांव में एक उप सहायता केंद्र होता है, जहां एएनएम की ड्यूटी रहती है, जो गांव में टीकाकरण आदि का काम संभालती है।
वहां एक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र होता है, जहां एमबीबीएस और आयुष डॉक्टर,नर्स, खून जांच करने की प्रयोगशाला, लैब तकनीशियन, फार्मासिस्ट और 249 तरह की जरूरी दवाएं उपलब्ध होती हैं। ऐसे अस्पतालों में चार से छह बेड होते हैं। यहां उन 40 फीसदी बीमारियों का इलाज किया जा सकता है, जो गंदे पानी, साफ सफाई के अभाव व कुपोषण से फैलती हैं।
दूसरे स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तथा टीबी हॉस्पिटल आते हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 30 बेड का मिनी अस्पताल होता है, जहां नौ विशेषज्ञ डॉक्टर होते हैं। यहां पर सभी जरूरी जांच सुविधा और 369 प्रकार की जरूरी दवाएं हर समय मौजूद रहती हैं। यहां जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। जबकि तीसरे स्तर पर जिला अस्पताल आते हैं। उसके बाद मेडिकल कॉलेज हैं, जहां 556 तरह की दवाएं तथा सभी जांच सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। यहां 30 फीसदी क्रॉनिक बीमारियों का इलाज संभव है।
हमारे लिए कुछ चीजों की जानकारी जरूरी है। पहली बात यह है कि हमारे यहां स्वास्थ्य सेवा के ढांचे में कोई कमी नहीं है। ऐसे में, स्वास्थ्य से जुड़े तीनों अप्रोच यहां कारगर हो सकते हैं। दरअसल बिना सही पोषण के इम्युनिटी नहीं बनेगी और बगैर इम्युनिटी के रोग से लड़ाई संभव नहीं है। चिकित्सा के क्षेत्र में क्यूरेटिव अप्रोच अकेला कुछ नहीं कर सकता, जब तक कि उसमें प्रिवेंटिव और प्रोमोटिव अप्रोच को शामिल नहीं किया जाए।
दूसरी बात यह कि हमें प्राथमिक सेवा को दुरुस्त करना होगा। इसके लिए सूची में शामिल सभी जरूरी दवाओं व खून की जांच की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। तीसरी बात, व्यक्ति के स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा दवाओं तथा जांच पर खर्च होता है। यदि सरकार दवा कंपनी से सीधे दवा खरीदे, तो वह सस्ती मिल जाएगी। इससे दवा कंपनियों को कोई नुकसान नहीं है। तमिलनाडु की सरकार सीधे दवा कंपनियों से दवा खरीदती है। चौथी बात, मोटापा, उच्च रक्तचाप और तनाव का मुख्य कारण जंक फूड व खराब जीवन शैली है।
इस मामले में यदि हम प्रिवेंटिव और प्रोमोटिव अप्रोच पर काम करें, तो मानव संसाधन, बजट और काम के घंटे बचा सकते हैं। पांचवीं बात यह कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा दुरुस्त रहने से ही स्वास्थ्य सेवा ठीक रहेगी। स्वास्थ्य सेवा के शीर्ष केंद्र अगर मधुमेह और बुखार से ही लड़ते रहेंगे, तो हम स्वास्थ्य शोध के क्षेत्र में नया क्या करेंगे? छठी बात यह कि बीमारी पर केंद्रित होने के बजाय हमें लोगों के
स्वास्थ्य पर ध्यान देना होगा। और आखिरी बात यह कि हमें स्वास्थ्य क्षेत्र में सांस्कृतिक तत्वों को भी समझना होगा। जैसे हमारी भोजन संबंधी संस्कृति में कार्बोहाइड्रेट ओर वसा को वरीयता दी जाती है। त्योहारों पर अधिक मीठा व वसायुक्त खाने का चलन इसी का परिणाम है।
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