हल्दीराम ने देश के लिए उन 'भुजिया जेहादियों' से कहीं ज्यादा किया है जो उसकी छवि खराब कर रहे हैं

सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था जब तक कि एक पारिवारिक झगड़े ने उनको अपनी पहचान तलाशने के लिए मजबूर नहीं कर दिया

Update: 2022-04-08 13:29 GMT
मेधा दत्ता यादव।
अगर हल्दीराम (Haldiram) की शुरुआत 1937 में न होकर, नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के दौर में हुई होती तो इस स्नैक्स कंपनी को मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया की व्यावसायिक पहल का आदर्श उदाहरण माना जाता. इसके बदले यह 'राष्ट्र-विरोधी' लोगों के खिलाफ एक टीवी न्यूज चैनल के कैंपेन का शिकार हो गया है. यह लव जिहाद की तर्ज पर भुजिया जिहाद (Bhujia Jihad) जैसा लग रहा है. हल्दीराम, जिसका मुख्यालय नागपुर में है, की स्थापना 1937 में श्री गंगा भीषण अग्रवाल ने की थी. उन्हें उनकी दादी प्यार से हल्दीराम बुलाती थीं और यहीं से इस ब्रैंड का नाम रखा गया. पाकिस्तान की सीमा से लगे रेगिस्तानी शहर बीकानेर में गंगा भीषण अग्रवाल जी परिवार द्वारा संचालित नमकीन की दुकान में अपने पिता की सहायता करते थे. सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था जब तक कि एक पारिवारिक झगड़े ने उनको अपनी पहचान तलाशने के लिए मजबूर नहीं कर दिया.
अपनी पत्नी की पाक कला और परिवार की एक बुजुर्ग महिला की रेसिपी, जिसमें गंगा भीषण अग्रवाल ने अपना प्रयोग करते हुए बेसन की जगह पिसी हुई मोठ दाल डाली की सहायता से स्वादिष्ट पतली भुजिया बनाई. हल्दीराम तब तक कोलकाता शिफ्ट हो चुके थे और वहां अपने ट्रेडमार्क भुजिया को हाथ गाड़ी पर लादकर मारवाड़ी इलाकों में घूम-घूम कर बेचा करते थे. कम ही समय में उनकी भुजिया की लोकप्रियता बढ़ गई और यह धड़ाधड़ बिकने लगी.
100 रुपए से शुरू हुआ था हल्दीराम का कारोबार
महज 100 रुपये से शुरुआत करते हुए उन्होंने हाथ गाड़ी से शुरू किए गए काम को एक इंटरनेशनल बिजनेस एंपायर में बदल दिया. बेशक वह आज स्नैक्स मार्केट के अंबानी और अडानी हैं. जब उन्होंने अपने काम की शुरुआत की थी, वे जानते थे कि उनकी विशिष्टता ही उन्हें कारोबार में सफलता दिलाएगी. उस समय जहां बाकी दुकानों में भुजिया 2 पैसे प्रति किलो के रेट पर मिलता था, उन्होंने इसका दाम 5 पैसे प्रति किलो रखा जो जल्दी ही 25 पैसे प्रति किलो की कीमत तक पहुंच गया और इस तरह इसने गंगा भीषण अग्रवाल के लिए किस्मत के दरवाजे खोल दिए.
बीकानेर में भुजिया उस समय तक कागज के कोन या फिर बैग में बिकती आई थी. ऐसे में हल्दीराम को अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ अलग करना था. तो ऐसे वह अपनी भुजिया की ब्रैंडिंग करने वाले पहले व्यक्ति बने. 1970 में उन्होंने नागपुर में नमकीन, मिठाई और पेय पदार्थों को बनाने और पैक करके बेचने की पहली पूर्ण-उत्पादन इकाई खोली.
अगर यह मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया की पहल का एक योग्य उदाहरण नहीं है, तो फिर क्या है? हल्दीराम के बारे में अब ये जान लें – ब्रैंड ट्रस्ट रिपोर्ट के अनुसार, 2014 में हल्दीराम को भारत के सबसे भरोसेमंद ब्रैंड्स में 55 वें स्थान पर रखा गया था. हल्दीराम को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बेकरी – फ्रेंच बेकरी Brioche Doree को भी भारत में लाने का श्रेय जाता है. हल्दीराम का राजस्व भारत में मैकडॉनल्ड्स की तुलना में पांच गुना ज्यादा है. मुख्य रूप से बीकानेर, कोलकाता, नागपुर और दिल्ली में फैला यह ब्रैंड सालाना 5,000 करोड़ रुपये के स्नैक्स और मिठाई बेचता है. यानी इसे सभी सक्सेस स्टोरीज का गॉडफादर कहा जा सकता है.
हल्दीराम यह सब लगभग शून्य प्रचार के साथ कर रहा है
सफलता की इस कहानी की सबसे खास बात जानते हैं? हल्दीराम यह सब लगभग शून्य प्रचार के साथ कर रहा है. उनके उत्पादों की गुणवत्ता ही उनकी सबसे बड़ी पब्लिसिटी है. टीवी पर उनके किसी विज्ञापन या कहीं प्रायोजित लिस्ट में उनका नाम देखने के लिए आपको अपने दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ेगा. और हल्दीराम के लिए यह वर्ड-ऑफ-माउथ अप्रोच उस दौर में भी अच्छा काम कर रही है जब स्विगी इंस्टामार्ट भी आईपीएल के साथ साझेदारी कर रहा है.
अब इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ट्रोल्स ने इस तरह इसको निशाने पर लिया. आखिरकर मसालेदार विवादों की ताक में बैठे लोगों को हल्दीराम के 'स्नैक्स जिहाद' का ही तो इंतजार था. प्रकृति का यह एक तथ्य है कि जब कोई बड़े नाम का जश्न मनाता है या उसे बदनाम करता है, तो लोग हमेशा उसकी ओर आकर्षित होते हैं. यह तुरंत सुर्खियों में आकर लोगों का ध्यान खींच लेता है और डिजिटल युग के लिए कहें तो वायरल हो जाता है. ट्रोल्स एक ऐसे ब्रांड को लेकर एक मूर्खतापूर्ण विवाद को हवा दे रहे हैं, जिसमें निस्संदेह वह सब कुछ है जिसके लिए उल्टा उसकी तारीफ होनी चाहिए – जमीन से उठकर कड़ी मेहनत के जरिए पाई सफलता और शाकाहरी मेन्यू के साथ विशुद्ध भारतीयता को परोसने वाली एंटरप्राइज. हल्दीराम बिना किसी शोर-शराबे के मल्टीनेशनल इंस्टेंट फूड दिग्गजों को बड़ी चुनौती दे रहा है.
एक छोटे से आउटलेट से अरबों डॉलर के अंतरराष्ट्रीय बिजनेस को खड़ा करने लिए जिस हल्दीराम की तारीफ होनी चाहिए, उसकी मेहनत का जश्न मनाने के बजाय हमारे यहां ट्रोल्स कंपनी के सामानों के पैकेट पर लिखी 'उर्दू' (जो वास्तव में अरबी है, क्योंकि हल्दीराम पश्चिम एशियाई देशों में भी बिकता है) के लिए उस पर निशाना साध रहे हैं. क्या हल्दीराम इस बेतुके विवाद से बच पाएगा? बेशक बचेगा क्योंकि हमें इसके कुरकुरे भुजिया का भरपूर स्वाद लेना है और इसलिए भी कि इसने कुछ भी गलत नहीं किया है.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)
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