हलाल बनाम झटका : बूचड़खाने के जानवर त्रस्त, अपनी-अपनी राय में सब हैं मस्त
मीट हलाल होना चाहिए या झटका? जवाब इस बात पर निर्भर करता है
संदीपन शर्मा।
मीट (Meat) हलाल होना चाहिए या झटका? (Halal or Jhatka) जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप सिर में गोली खाना चाहते हैं या अपनी ब्रेकियल आर्टरी (Brachial Artery – बकरे के गले की नस) को काटना पसंद करते हैं. मांसाहार (Non-Vegetarian) का मुद्दा भारत में बेतुकी बहस का विषय रहा है. इन परस्पर विरोधी विचारों के शोर में, एकमात्र प्रश्न जो प्रासंगिक है वह यह है: क्या जानवरों या पक्षियों या मछली को मनुष्यों द्वारा खाने के लिए मार दिया जाना चाहिए? एक बार जब इस प्रश्न का समाधान हो जाए, तो हत्या कैसे और क्यों की जाती है, यह निरर्थक मुद्दा बन जाता है. तो चलिए शुरू करते हैं मांसाहार से.
क्या मांसाहर जायज़ है?
मांसाहार के खिलाफ मूल तर्क यह है कि जानवरों को भी जीने का हक़ है. इंटेलीजेंट पर्सन्स गाइड टू एथिक्स (Intelligent Person's Guide to Ethics) में मैरी वार्नॉक (Mary Warnock) इस प्रश्न का हमेशा हमेशा के लिए जवाब दे देती हैं. वह पूछती हैं, 'क्या वे (पशु) शिकार किए जा सकते हैं?' इस पर वह लिखती हैं, आमतौर पर इसका जवाब है नहीं, इंसानों के द्वारा नहीं; लेकिन संभवतः तब उनके अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है यदि उनका शिकार इंसानों के अलावा किसी अन्य जानवरों के द्वारा किया जाता है. 'और यहीं से असली मुश्किलें शुरू होती हैं. यदि सभी जानवरों को बिना पीड़ा के अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता का अधिकार होता, तो किसी न किसी को उन्हें एक दूसरे से बचाना होता. लेकिन यह बेतुका है.'
दरअसल बात यह है कि जानवर जानवरों को खाते हैं, पक्षी पक्षियों को खाते हैं और बड़ी मछली छोटी मछली का शिकार करती है. असल में, कई जानवर तो इतने निष्ठुर होते हैं कि वे अपने बच्चों को खा जाते हैं. यदि मनुष्य भी भोजन के लिए ऐसा ही करता है, तो इसमें कोई बुराई या अनैतिकता नहीं है. मनुष्यों के बिना एक काल्पनिक दुनिया में वैसे भी भोजन के लिए हर खाद्य प्रजाति (edible species) का शिकार किया जाएगा.
आंकड़े बताते हैं भारतीयों की पसंद है मीट
कई दार्शनिकों और धर्म गुरुओं ने मांसाहार से जुड़ी पहेली का विश्लेषण किया है, और नैतिकता को छोड़ दिया जाए तो सब एकमत हैं कि इस सृष्टि का निर्माण फ़ूड चेन (food chain) के इर्द-गिर्द हुआ था और जो कुछ भी खाने योग्य है उसे खाया जा सकता है. आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय मीट पसंद करते हैं, भले ही वे इस बारे में खुलकर बात करना पसंद न करते हों. इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित बालमुरली नटराजन और सूरज जैकब द्वारा लिखित 2018 की एक स्टडी में तर्क दिया गया कि 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय मांसाहारी हैं. लेखकों ने राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (NSSO) डेटा का इस्तेमाल करते हुए बताया कि 58 प्रतिशत हिंदू, 93 प्रतिशत ईसाई, 21 प्रतिशत सिख और 78 प्रतिशत बौद्ध मांस खाने वाले हैं. उनके अनुसार 30 प्रतिशत ब्राह्मण भी मांस खाते हैं.
वातापी और इलावाला की कहानी
महाभारत के अपने उम्दा अंग्रेजी अनुवाद में, एक तमिल ब्राह्मण, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, वातापी और इलावाला की कहानी बताते हैं कि दो राक्षस कैसे ऋषि अगस्त्य को मारने और लूटने के इरादे से बकरा बने उन्हें मायावी वातापि का मांस पकाकर खिलाता है. अगस्त्य ने बकरे का मांस कैसे खाया, इस बारे में अपने हैरान पाठकों को समझाते हुए, राजगोपालाचारी एक रहस्यमय वाक्य के साथ कहानी समाप्त करते हैं: 'उन दिनों, ब्राह्मण मांस खाते थे.' तो, आइए हम मान लें कि भारत में भी जानवरों को खाया जा सकता है और उन्हें खाया जा रहा है.
यह मांसाहार को लेकर हर तरफ उठ रही आवाजों के बीच, कुछ लोगों का तर्क है कि हलाल मीट झटका मीट से अधिक बेरहम और अमानवीय है. क्या ऐसा है? सबसे अच्छे ज़वाब के लिए, उन्हें वास्तव में हलाल किए जा रहे मेमने से पूछना चाहिए कि क्या वह ख़ून बहाकर मरना चाहेगा या एक झटके में मरना पसंद करेगा? चूंकि मेमने बात नहीं करते हैं, शायद वे इंसानों से पूछ सकते हैं कि क्या उन्हें लाठी-सोंटे से पीट-पीटकर मरना अच्छा लगेगा या फांसी के फंदे पर चढ़कर?
क्या झटका मीट हलाल से ज्यादा रहमदिल है?
रिलेटिव क्रूअल्टी (relative cruelty) यानि तुलनात्मक क्रूरता का यह सिद्धांत बेतुका है. किसी की हत्या करना अपने आप में क्रूर है. चाहे यह धीरे-धीरे किया जाए, कुछ धार्मिक मंत्रों के जाप के बाद, या सिर पर गोली मारकर, यह किसी भी तरह से कम घातक नहीं होता है. जो लोग यह तर्क देकर अपनी अंतरात्मा की सफाई करने की कोशिश कर रहे हैं कि झटका मीट हलाल मीट से ज्यादा रहमदिल है, वे सिर्फ अच्छे कर्मों के लिए अपनाए जाने वाले मार्ग पर छल और धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं. क्रूरता की हद तक वही तर्कहीन बातें, संयोगवश, मछली या झींगे या अन्य समुद्री भोजन पर लागू नहीं होते हैं. कोई भी कभी भी यह तर्क नहीं देता है कि कई मिनटों तक ऑक्सीजन के लिए डेक पर इधर-उधर तड़पने के लिए मछली को छोड़ देने के बजाय तुरंत काट दिया जाना चाहिए.
जबरन परहेज़ ही सही मगर पेट के लिए गुणकारी
इसी तरह, हिंदू त्योहारों के आसपास मीट पर प्रतिबंध लगाने का क्या मतलब है? भारत में कई देवताओं को मांस चढ़ाया जाता है. कुछ मंदिरों के गर्भगृह में जानवरों की बलि दी जाती है. इसलिए, भारतीय देवता मांस खाने वालों को अनैतिक या पापी (पापी) नहीं मानते हैं. प्रतिबंध के कारण जबरन परहेज़ पेट के लिए अच्छा हो सकता है, जैसा कि सभी उपवास करते हैं, लेकिन इससे बेचारे जानवर को कोई फर्क नहीं पड़ता. भेड़ का बच्चा आपको थैंक यू नहीं बोलेगा क्योंकि आपने उसे गुड़ी पड़वा (Gudi Padwa), उगादी (Ugadi) या रामनवमी के एक दिन बाद मेनू में रखा था. अंत में, त्योहारों पर हलाल और मीट पर प्रतिबंध के बारे में फर्जी बहस का सिर्फ एक ही मकसद हैं: हलाल करने, उसे इकठ्ठा करने और आहार के तौर पर इस्तेमाल करने के तरीकों पर बेतुकी बहस कर लोगों के बीच घृणा की भावना का संचार करना और समाज के गले पर उस्तरा चला देना.
मांस मांस सब एक है
इससे बेचारे जानवर के अलावा किसी को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि उसका मीट झटका है या हलाल. मीट के मामले में केवल एक चीज जो तय की जा सकती थी कि क्या अंतिम उत्पाद की गुणवत्ता के मामले में पहला दूसरे से बेहतर है. लेकिन भले ही मुसलमानों का मानना है कि धीमी गति से बहता खून मांस से टॉक्सिन (toxins) यानि विषाक्त पदार्थों को निकालने में मदद करता है, लेकिन इस तर्क के समर्थन में कोई बहुत अधिक वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं. हलाल की परंपरा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान है जिसमें बहुत कम या कोई साइंस जुड़ा नहीं है. अंत में, मीट मीट है. भले ही जानवर को जिस विधि से काटा जाए, इसका स्वाद वैसा ही होता है. अच्छा लगे तो झटका और हलाल पर बेमतलब की बहस करने के बजाय, बस खा लें. यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो हमेशा सब्जी खाने का विकल्प है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)