गुरु का सही स्थान
किसी इनसान को इनसान बनाने में एक शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।
दिव्याहिमाचल.
'जीवन पथ पर सही-गलत का भेद आया न होता/मेरे शिक्षक ने पाठ मानवता का अगर पढ़ाया न होता/ मिट्टी का खिलौना था, खंडहर बना रहता अगर/मेरे गुरु ने सींच-सींच कर फूलों-सा सजाया न होता/ न जाने किस पग पर मैं, ठिठक जाता थक-हार कर/सूरज बनकर अगर मेरी राह का अंधकार मिटाया न होता। जी हां! बात हो रही है समाज के निर्माता और दिशा-निर्धारक शिक्षक, अध्यापक, गुरु, टीचर या उस्ताद की। किसी इनसान को इनसान बनाने में एक शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। या यूं कहा जाए कि हम आज जो भी हैं, उसके पीछे हमारे गुरुओं का बहुत योगदान रहता है। कबीर दास जी ने यहां तक कह दिया कि गुरु का स्थान भगवान से पहले है। हर इनसान के जीवन में यदि मां-बाप के अतिरिक्त किसी का महत्त्व है तो वह है शिक्षक का, क्योंकि हमारा शिक्षक ही हमारे चरित्र निर्माण, क्षमता विकास और भविष्य को संवारने का काम करता है। भारत में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
असल में भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद और महान दार्शनिक तथा देश के पूर्व राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में सन् 1962 से मनाने की परंपरा चली आ रही है। तमिलनाडु में जन्मे डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब राष्ट्रपति बने तो उनके प्रशंसकों ने उनका जन्मदिन मनाने की बात कही। इस पर डा. राधाकृष्णन ने इसे 'शिक्षक दिवसÓ के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। तब से लेकर हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य हमारे देश के असंख्य अध्यापकों और उस्तादों के प्रति स्नेह, विश्वास और श्रद्धा व्यक्त करना है। नि:संदेह एक शिक्षक जीवन भर ज्ञान अर्जित करता है और स्वयं मोमबत्ती की तरह जलकर प्रकाश देकर अंधेरे को मिटाने का काम करता है। समाज के इस निर्माता के लिए सच्ची श्रद्धा का नाम है शिक्षक दिवस। इस दिवस को विद्यालयों में बच्चे कई कार्यक्रम प्रस्तुत करके मनाते हैं। अनेक तरह के रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
आधुनिक शिक्षा पद्धति कुछ हद तक एडवांस जरूर है, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं शिक्षा के बाजारीकरण, व्यापारीकरण और निजीकरण ने शिक्षा और शिक्षक, छात्र और शिक्षक के बीच परस्पर मायने बदल दिए हैं। आज का छात्र नि:संदेह पहले के छात्रों से भिन्न है। भारत में शिक्षा का बदलता स्वरूप भी विकराल रूप धारण कर रहा है। नि:संदेह इस दिशा में आज हर किसी को सोचने की आवश्यकता है। कहने का तात्पर्य है कि भारत में शिक्षा असमान होती जा रही है। एक समय था जब कक्षा में गरीब का बच्चा, धनाढ्य का बच्चा, किसी मंत्री, अधिकारी या कर्मचारी का बच्चा या उसी स्कूल के अध्यापक का बच्चा, सभी एक साथ पढ़ते थे। आज स्थिति और है। आज शिक्षा और शिक्षण पद्धति में काफी बदलाव आ गया है। एक सरकारी अध्यापक इतनी मेहनत के बाद अध्यापक बनता है। किसी गरीब और आम आदमी के बच्चों को पढ़ाने का ज़रूर जिम्मा लेता है। लेकिन दूसरे ही पल अपने बच्चों को किसी निजी विद्यालय में दाखिल कर देता है। अब सवाल यह है कि क्या वह इतना सक्षम और योग्य नहीं कि अपने बच्चों को स्वयं उसी स्कूल में पढ़ा सके? अगर नहीं, तो फिर औरों के बच्चों को भी पढ़ाने का हक नहीं। आज शिक्षा में असमानता पैदा हो गई है, जिसे दूर करना होगा।गुरु का सही स्थान
टीसी सावन, लेखक चंबा से हैं