हताशा में बढ़ती आत्मघाती प्रवृत्ति
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में एक साल में करीब 7.3 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। इसके अलावा करीब बीस लाख लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। यह स्थिति परेशान करने वाली है। इससे पता चलता है कि आज के दौर में लोग विभिन्न कारणों से किस कदर मानसिक तनाव में जी रहे हैं।
योगेश कुमार गोयल: विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में एक साल में करीब 7.3 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। इसके अलावा करीब बीस लाख लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। यह स्थिति परेशान करने वाली है। इससे पता चलता है कि आज के दौर में लोग विभिन्न कारणों से किस कदर मानसिक तनाव में जी रहे हैं।
डब्लूएचओ का मानना है कि आत्मघाती प्रवृत्ति सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए चिंता का विषय है। कोई व्यक्ति जब बहुत बुरी मानसिक स्थिति से गुजरता है, तो वह गहरे अवसाद में चला जाता है। यही अवसाद कई बार आत्महत्या का कारण बनता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में छिहत्तर फीसद आत्महत्याएं निम्न और मध्यवर्ग वाले देशों के लोग करते हैं।
लोगों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने और आत्महत्या की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के उद्देश्य से हर साल दस सितंबर को विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 2003 में 'इंटरनेशनल एसोसिएशन आफ सुसाइड प्रिवेंशन' (आइएएसपी) द्वारा की गई थी, जिसे अब विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा मानसिक स्वास्थ्य फेडरेशन द्वारा सह-प्रायोजित किया जाता है।
विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के लिए डब्लूएचओ प्रतिवर्ष एक 'थीम' निर्धारित करता है। 2021-2023 के लिए त्रैवार्षिक विषय 'क्रिएटिंग होप थ्रू एक्शन' (कार्रवाई के माध्यम से आशा बनाना) निर्धारित है। डब्लूएचओ का मानना है कि कार्रवाई के जरिए आशा पैदा करके हम आत्मघाती विचारों से ग्रस्त लोगों को संकेत दे सकते हैं कि हम उनकी परवाह करते और उनका समर्थन करना चाहते हैं।
संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है कि 2030 तक दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को एक तिहाई तक कम किया जाए। मगर इसे अगर भारत के संदर्भ में देखें तो केवल एक साल के भीतर ही आत्महत्या दर करीब दस फीसद बढ़ गई है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करना फिलहाल एक सपने जैसा लगता है।
राष्ट्रीय आत्महत्या के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में सभी आत्महत्याओं में भारत का हिस्सा करीब पच्चीस फीसद है। 18-39 आयु वर्ग की युवतियों में मृत्यु का प्रमुख कारण आत्महत्या है। पिछले दिनों राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी रिपोर्ट में 2021 में भारत में आत्महत्या की दर में 7.14 फीसद की वृद्धि देखी गई है।
भारत में पिछले पांच-छह वर्षों में आत्महत्या की दर बढ़ने के कारणों को लेकर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि लोग ज्यादा से ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। उनके प्रत्यक्ष मित्र कम और सोशल मीडिया पर मित्र अधिक हैं। ऐसे लोग अपने परिवार के सदस्यों से कट रहे हैं और अपने फोन या सोशल मीडिया घेरे तक ज्यादा सीमित हो गए हैं।
एनसीआरबी द्वारा जारी पिछले पांच वर्षों के आत्महत्या के आंकड़ों पर नजर डालें तो स्पष्ट है कि आत्महत्या की घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। एनसीआरबी के मुताबिक देश में 2017 में आत्महत्या के एक लाख 29 हजार 887 मामले दर्ज हुए थे, जिसकी दर प्रति लाख आबादी पर 9.9 थी। 2018 में यह दर बढ़ कर 10.2 पर पहुंच गई।
2019 में कुल एक लाख 39 हजार 123 लोगों ने और 2020 में एक लाख 53 हजार 52 लोगों ने आत्महत्या की। 2021 में एनसीआरबी के मुताबिक कुल एक लाख 64 हजार 33 लोगों ने आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।
2017 से 2021 तक इन मामलों में 26 फीसद से भी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। 2021 में आत्महत्या करने वाले लोगों में एक बड़ा वर्ग उन लोगों का था, जिनका स्वयं का रोजगार था। इसी प्रकार पेशेवर या वेतनभोगी श्रेणी के लोगों की संख्या 15 हजार 870, बेरोजगारों की संख्या 13 हजार 714 और छात्रों की संख्या 13 हजार 89 रही। वर्ष 2021 में आत्महत्या करने वालों में 23 हजार 179 गृहणियां भी शामिल थीं।
देश में 25.6 फीसद दिहाड़ी मजदूरों, 14.1 फीसद गृहिणियों, 12.3 फीसद स्वनियोजित लोगों, 9.7 फीसद पेशेवर या वेतनभोगियों, 8.4 फीसद बेरोजगारों, 8 फीसद विद्यार्थियों, 6.6 फीसद कृषि कार्य से जुड़े लोगों, 0.9 फीसद सेवानिवृत्त लोगों और 14.4 अन्य ने आत्महत्या की।
हालांकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया भर में दर्ज होने वाले आत्महत्या के मामलों के मुकाबले आमतौर पर वास्तविक संख्या चार से बीस गुना ज्यादा होती है। उनके मुताबिक अगर भारत में भी आत्महत्या के मामलों की दर्ज संख्या देखें तो वह वास्तविक संख्या से बहुत कम है।
इस संबंध में उनका मानना है कि समाज में आत्महत्या पर खुल कर बात नहीं होती और इसे आज भी एक कलंक के तौर पर देखा जाता है। अधिकांश परिवार इसे छिपाने का प्रयास करते हैं। ग्रामीण भारत में शव परीक्षण की जरूरत ही नहीं समझी जाती और अमीर लोग प्राय: स्थानीय पुलिस के जरिए आत्महत्या के मामलों को आकस्मिक मृत्यु के रूप में दिखाने का प्रयास करते हैं।
एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट में भारत में आत्महत्या के कारणों के लिए पेशेवर या करिअर संबंधी समस्याओं, अलगाव की भावना, दुर्व्यवहार, हिंसा, पारिवारिक समस्याओं, मानसिक विकार, शराब की लत, वित्तीय नुकसान, पुराने दर्द आदि को प्रमुख कारण माना है।
विशेषज्ञों के मुताबिक अवसाद जैसे शारीरिक और विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को अक्षम करने वाले कारक इस सूची में सबसे आम हैं। इसके अलावा खराब वित्तीय स्थिति से उपजी चिड़चिड़ाहट, आक्रामकता, शोषण और दुर्व्यवहार के अनुभव तक परस्पर संबंधित कारक हैं, जो आत्महत्या के लिए उकासाने वाली दर्द और निराशा की भावनाओं को बढ़ावा दे सकते हैं।
बदलती जीवनशैली, खुद के लिए समय की कमी, बीमारियां, पारिवारिक संबंधों में दूरियां, घर का नकारात्मक माहौल, प्रेम में विफलता, अकेलापन, शिक्षा तथा कैरियर में गलाकाट प्रतिस्पर्धा आदि ऐसे कारण हैं, जिनसे लोगों में अवसाद पनप रहा है और अनेक मामलों में इस वजह से भी लोग आत्महत्या करते हैं।
आज की भागदौड़ भरी जीवनशैली में हम जिस प्रकार का बनावटी और दोहरे मापदंड वाला जीवन जी रहे हैं, उसमें तनाव विद्यमान है, जिससे समाज का लगभग प्रत्येक वर्ग प्रभावित है। जहां दहेज जैसी कुप्रथा और पारिवारिक समस्याओं के कारण महिलाओं की आत्महत्या के मामले सामने आते हैं, वहीं युवाओं द्वारा पढ़ाई का दबाव, करिअर संबंधी समस्याएं और खराब होते रिश्ते आत्महत्या जैसे घातक कदम उठाने की प्रमुख वजह बन रहे हैं।
महामारी के दौर में नौकरियां छिन जाने, अपने करीबियों को खोने और अकेलेपन ने लोगों को चिंतित, उदास, एकाकी और अति संवेदनशील बना दिया है, जिसके कारण भी कुछ लोग जीवन में आई मुसीबतों का मुकाबला करने के बजाय आत्महत्या की तरफ कदम उठा रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक आत्महत्या को रोकने का सबसे अच्छा तरीका चेतावनी संकेतों को पहचानना और इस तरह के संकट का जवाब देना है।
देश में हर साल लाखों आत्महत्याएं समाज में हताशा और निराशा व्याप्त होने का जीता-जागता प्रमाण है। हालांकि आत्महत्या की समस्या केवल आर्थिक या राजनीतिक समस्या नहीं है, बल्कि इसके पीछे सामाजिक और मानसिक कारण भी मौजूद होते हैं। अगर आर्थिक और राजनीतिक कारणों से समाज में हताशा या निराशा व्याप्त होती है, तो उनके निवारण की जिम्मेदारी भी सरकारों की है। हमारा जीवन अनमोल है। तनाव, निराशा या हताशा का समाधान आत्महत्या नहीं है।
मनोचिकित्सकों का मानना है कि अवसाद से ग्रस्त लोगों की मानसिक चिकित्सा के जरिए उन्हें स्वस्थ बनाया जा सकता है। इसके अलावा परिवार और समाज का भावनात्मक संबल भी अवसाद में जाने से बचाने में मददगार हो सकता है। इस प्रकार देश में लगातार आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ को तेजी से नीचे लाने में काफी मदद मिल सकती है।