तीनों कृषि क़ानून वापस लेकर सरकार ने दिखाया बड़ा दिल
तीनों कृषि क़ानून वापस
आइए नई शुरुआत करें! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि क़ानून वापस लेने का ऐलान करते हुए यह बात कही. उन्होंने बड़ा दिल दिखाते हुए देशवासियों से क्षमा याचना की और कहा कि उन्हें इस बात का बड़ा अफ़सोस है कि वे किसानों को समझा नहीं पाए. क़रीब साल भरे चले किसान आंदोलन के बाद केंद्र सरकार आख़िरकार झुक गई, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या देश की किसान बिरादरी समृद्धि की नई राह पर जाने से चूक तो नहीं गई?
कई बार शंकाएं इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उनके सामने अच्छी सूझबूझ वालों की बुद्धि भी चकरा जाती है. ख़ासकर जब कोई हठ पुख़्ता जड़ें जमा लेता है, तब इस बात की समीक्षा की तर्कसंगत आवश्यकता भी नहीं रह जाती कि क्या नई व्यवस्था हितकारी भी हो सकती है. लिहाज़ा तीनों कृषि क़ानून वापस लेने के फैसले से अब यह साफ़ हो गया है कि भारत में खेती-किसानी का नया दौर शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया है.
बेहतर तो यह होता कि दो-तीन वर्ष तीनों क़ानून लागू रहते और अगर नतीजे सकारात्मक नहीं निकलते, तब क़ानून वापसी का निर्णय होता. लेकिन, लोकतंत्र में लोक को अनिश्चितकाल के लिए नाराज़ नहीं रखा जा सकता और कई बार लोकहितकारी मान कर लिए गए फैसले वापस भी लेने पड़ते हैं.
आंदोलन खत्म होना चाहिए
ज़ाहिर है कि बीजेपी मोदी सरकार के क़दम को सही निर्णय करार दे रही है और किसानों समेत सभी विपक्षी राजनैतिक पार्टियां भी इसका स्वागत कर रही हैं, लेकिन अब भी कुछ शंकाएं खड़ी करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो सही नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधन के माध्यम से अपना निर्णय सुनाया है, तो किसानों के लिए भी किसी संशय की गुंजायश नहीं है, लेकिन कुछ किसान तब तक आंदोलन पर अड़े रहना चाहते हैं, जब तक एमएसपी पर गारंटी क़ानून न बना दिया जाए.
यह तो हम जानते ही हैं कि आंदोलन की शुरुआत में एमएसपी संबंधी क़ानून बनाने की मांग नहीं की गई थी, फिर भी अब अगर किसान अपने आग्रह के समर्थन में आंदोलन जारी रखने पर अड़े रहते हैं, तो इससे यही संदेश जाएगा कि यह आंदोलन असल में येनकेन प्रकारेण मोदी विरोध की धुरी पर ही केंद्रित है.
बीजेपी की चुनावी मजबूरी?
यह बात भी सही है कि उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सामने हैं. अभी उपचुनावों में जो नतीजे आए हैं, उनका अध्ययन भी भारतीय जनता पार्टी ने किया होगा. यही कारण है कि मोदी सरकार को फ़ैसला वापस लेने के लिए बाध्य होना पड़ा. अगले आम चुनावों यानी वर्ष 2024 से पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान इत्यादि राज्यों के विधानसभा चुनाव भी होने हैं. इसलिए, बीजेपी नहीं चाहेगी कि किसान आंदोलन के कारण उपजे असंतोष के थोड़े भी छींटे भी उसके दामन पर पड़ें.
हालांकि विपक्षी पार्टियां अब भी असंतोष की चिंगारी किसी न किसी तरह भड़काने का प्रयास करती रहेंगी. लेकिन बीजेपी यही समझने-समझाने की कोशिश करेगी कि अंत भला सो सब भला.
बीती ताहि बिसार दे
कुल मिलाकर किसानों को जीत की बधाई. अब इन बातों का कोई लाभ नहीं है कि सरकार के फलां मंत्री या बीजेपी के फलां नेता ने फलां बयान क्यों दिया था? किसानों को ख़ालिस्तानी कहा, आतंकवादी कहा इत्यादि इत्यादि. किसी भी नेता ने सभी किसानों के लिए इस तरह के संबोधन का इस्तेमाल नहीं किया. लेकिन इस बात को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि नकारात्मक ताक़तें इस तरह के बड़े जमावड़ों का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए करती हैं या करना चाहती हैं.
किसान आंदोलन के कंधे पर बैठकर ख़ालिस्तान आंदोलन के पक्षधर भारत के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं रच रहे थे, यह बात तथ्यों से परे नहीं है. देश को बदनाम करने वाली काली ताक़तें भी इस दौरान काफ़ी सक्रि रहीं, यह भी ग़लत नहीं है. ऐसी शक्तियों को अब सरकार के फैसले से बहुत निराशा हो रही होगी. अब वे नए सिरे से फन फैलाने की साज़िशें करेंगी.
अब क्या होगी आगे की राह?
सरकार ने फ़ैसला वापस ले लिया है, तो आगे की राह बनाने के बारे में भी ज़रूर विचार-विमर्श कर लिया होगा. क़ानून वापसी की प्रक्रिया के बाद सरकार की नई किसान नीति का आभास संसद के आगामी सत्र में या पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद मिल सकता है. हालाकि आर्थिक मामलों के जानकार विजय सरदाना के अनुसार, मोदी सरकार के क़ानून वापस लेने के फैसले को कोई भी संवेदनशील आदमी अच्छा नहीं मानेगा. उनके मुताबिक़ चंद किसान ही क़ानून वापसी की मांग कर रहे थे.
बहुसंख्य किसान क़ानूनों के पक्ष में थे. ऐसे में क़ानून वापसी की कोई ज़रूरत नहीं थी. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. अब किसान वापस दलालों और कमीशन एजेंटों के चंगुल में फंसने को मजबूर हो जाएंगे. विजय सरदाना की राय से इत्तेफ़ाक रखने वालों की संख्या भले ही अच्छी-ख़ासी होगी, लेकिन अब इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला.
किसानों से बात ज़रूरी
फ़ैसला वापसी के लिए गुरुनानन जी की जयंती प्रकाश पर्व से अच्छा अवसर हो नहीं सकता था. मोदी सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया था. इस वादे को अमली जामा पहनाने के इरादे से ही सरकार तीनों कृषि विपणन क़ानून लेकर आई थी. अब जबकि यह रास्ता बंद हो गया है, तो मोदी सरकार को कोई नई राह तैयार करनी होगी. बेहतर होगा कि अब केंद्र सरकार जो भी निर्णय ले, किसानों से बातचीत के बाद ही ले.
अगर यह काम तीनों कृषि विपणन क़ानूनों का मसौदा तैयार होने से पहले ही कर लिया गया होता, तो शायद दिल्ली की सीमाओं को क़रीब साल भर तक बंधन नहीं रहना पड़ता. आम आदमी को इससे अच्छी-ख़ासी परेशानी हुई है. अब किसान केंद्र सरकार के निर्णय का सम्मान करते हुए घर चले जाएंगे, यह उम्मीद की जानी चाहिए.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
रवि पाराशर , वरिष्ठ पत्रकार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं. नवभारत टाइम्स, ज़ी न्यूज़, आजतक और सहारा टीवी नेटवर्क में विभिन्न पदों पर 30 साल से ज़्यादा का अनुभव रखते हैं. कई विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग फ़ैकल्टी रहे हैं. विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में शामिल हो चुके हैं. ग़ज़लों का संकलन 'एक पत्ता हम भी लेंगे' प्रकाशित हो चुका है।