अलविदा कमला भसीन; जिनका ख्वाब था औरतों के रहने लायक दुनिया बनाना...
अलविदा कमला भसीन
प्रखर नारीवादी कमला भसीन नहीं रहीं. वह तकरीबन पांच दशक से महिलावादी आंदोलन की अगुवाई कर रही थीं. उन्होंने महिलाओं की दुनिया में एक नई रोशनाई की कोशिश की, लेकिन, इतने सालों के बाद भी इस बात पर सवाल है कि क्या अब भी कुछ बदला है. कमला भसीन जिंदगी भर जिन बातों के लिए लड़ती रहीं, जो सवाल खड़े करती रहीं, क्या उस लड़ाई का कुछ अंजाम निकला है, क्या उन सवालों के जवाब मिले हैं, या फिर और बड़ी और दुरुह परिस्थितियां बन गई हैं.
कमला भसीन के ही शब्दों में, जिन्हें उन्होंने अपनी किताब मर्द, मर्दानगी और मर्दवाद में कहा है कि जेंडर के मुद्दे सिर्फ औरतों से वास्ता नहीं रखते. हमें यह समझना होगा कि नारी तू या जनानी का अस्तित्व किसी शून्य में नहीं है, बल्कि पुरुषत्व या मर्दानगी के साथ है. एक की छवि और ताकत दूसरे की छवि और ताकत तय करती है और तू को कमतर तभी समझा जा सकता है, जब उनकी तुलना में मर्दो को बेहतर समझा जाता हो, थी तभी अधीन हो सकती हैं या हैं, जब-जब मर्दों को शासन करना सिखाया गया हो और वह उसके लिए राजी हों.
बहुत लंबे समय से ही औरतों के खिलाफ हिंसा जैसे मुद्दों की पूरी जिम्मेदारी महिला संगठन उठाते आए हैं, मानो मर्दों का इस हिंसा से कोई सरोकार ही ना हो. क्योंकि ज्यादातर हिंसा मर्द करते हैं, दूसरे मर्दों को अपने हिस्से की जिम्मेदारी उठानी होगी, उन्हें इस मुद्दे तथा जेंडर से जुड़े अन्य मुद्दों के खिलाफ जो सामाजिक मुद्दे हैं चल रहे नारीवादी संघर्ष से जुड़ना होगा. इतने सालों के संघर्ष के बाद भी यदि कुछ एक विषयों को छोड़ दिया जाए तो यह लड़ाई अब भी महिलाओं के द्वारा ही लड़ी जा रही है. इसमें पुरुषों का हिस्सा बहुत कम है, यदि ये हो रहा होता तो तस्वीर कुछ जुदा हो रही होती.
पुरुषों का गुबार तभी फूटता है, जब कुछ वीभत्स सी घटना हो जाती है, या वह अत्याचार की जगह किसी पॉलिटिकल कनेक्शन की वजह से बाहर आती है, लेकिन अब तो यह भी इतनी तेजी से गुजरती है कि उससे सबक की तो कोई बात ही नहीं होती, इसलिए एक के बाद दूसरी घटना कहीं ज्यादा हिंसक और बर्बर होती जा रही है. यदि हमने महिलाओं के मामले में समानता, विकास और शांति के सिदधांतों पर अमल किया होता, जिसकी वह प्रबल समर्थक थीं, तो निश्चित ही एक बड़ा बदलाव दिखाई देता, लेकिन अभी यह मंजिल बहुत दूर है.
कमला भसीन ने महिलावाद को केवल महिलाओं के नजरिए से नहीं देखा, बल्कि वह इस बात पर भी उतनी ही फिक्रमंद थीं कि पितृसत्तात्मक संस्कृति का असर लड़के या मर्दों पर भी होता है और वह उससे तकलीफ भी उठाते हैं, उन्होंने ऐसे बीसियों व्यवहारों को दर्ज किया है, जैसे यदि पुरुष रोएं तो कमजोर इंसान हैं, और न रोएं तो असंवेदनशील हैं, अगर मर्द कहे कि औरत कितनी अच्छी लग रही है तो यौन प्रताड़ना है और यदि चुप रहे तो अहंकार है, अगर मर्द औरत को ठोंक दे तो हिंसा है, लेकिन औरत ठोंक दे तो आत्मसुरक्षा है.
अगर मर्द औरत के लिए फूल खरीदे तो जरूर कोई मतलब है, लेकिन नहीं खरीदे तो ख्याल नहीं रखते हैं. ऐसे तमाम मामूली, लेकिन गहरे तक धंसे व्यवहारों पर उनका बारीक विश्लेषण और समझ दी, जिनके जरिए वह लोगों के जेहन में सवाल पैदा करती थीं. यदि उनके संदेश को ठीक से समझें तो वह कहती थीं कि यदि हमें एक मुकम्मल दुनिया चाहिए, अमन चैन और सार्थक रिश्ते चाहिए, टिकाउ विकास चाहिए तो हमें मर्द और मर्दानगी के सभी आयामों को समझना होगा, दोनों ही वर्गों के बीच दोस्ताना भागीदारी विकसित करनी होगी ताकि एक बेहतर दुनिया बन सके.
उनका यह भी विचार था कि इस आंदोलन की अगुआई औरतों को ही करनी पड़ेगी, लेकिन मर्दों को भी इससे जुड़ना होगा. वह सवाल जो इस वक्त की सबसे बड़ी समस्या बनकर आते हैं और राष्ट्रीय अपराध लेखागार के आंकड़ों में किस शर्मिंदगी से हर साल दर्ज होते हैं. बलात्कार जैसी गंभीर समस्याओं को हमने फांसी सरीखी सबसे सख्त सजा मुकर्रर करके भी देख लिया, लेकिन उसका भी कोई असर नहीं, उसके लिए जो असली शिक्षा और संवेदना की जरुरत है, भसीन के जाने के बाद वह और बढ़ा हो जाएगा.
उन्होंने इस बात को लोगों के जेहन तक पहुंचाने की कोशिश की कि असली मर्द बलात्कार नहीं करते, लेकिन जिस मर्दानगी का पूरा जोर खुद को कदम—कदम पर साबित करने में लगा है, वहां वह कठोर सजा को भी स्वाभिमान के नजरिए से देखने लगेगा फिर क्या कीजिएगा?
इसलिए जरूरी है कि नकारात्मक मर्दानगी का खात्मा हो. यदि एक बेहतर दुनिया बनाना है, टिकाऊ विकास करना है और समाज में शांति और समानता स्थापना करना है तो हमें कमला भसीन की बातों को बारबार याद करना होगा. यदि सब कुछ पा भी लिया और औरतों के रहने लायक दुनिया नहीं बनाई गई तो उस सब कुछ पा लेने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. इसलिए इस दुनिया में कमला भसीन जैसी महिलाओं की लंबे समय से जरूरत रहेगी. कमला भसीन के सपने जिंदा रहेंगे. लाखों औरतों में ही नहीं पुरुषों में भी उनके विचार कौंधते रहें, यही उनकी सच्ची श्रदधांजलि होगी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.