अब खेल-प्रबंधक, खेल-नीति और खिलाडि़यों को बनाने तथा तराशने पर चिंतन-मंथन होना चाहिए। 2024 का पेरिस ओलंपिक बहुत दूर नहीं है। सिर्फ स्वर्ण पदक की ही चिंता नहीं की जानी चाहिए, बल्कि विशेषज्ञ उन खिलाडि़यों के प्रदर्शन का गहन विश्लेषण करें, जो टोक्यो ओलंपिक में 'पदकवीर' बनने से वंचित रह गए। निशानेबाजी के सौरभ चौधरी और मनु भाकर, एशियाई चैंपियन रहीं राही सरनोबत समेत 15 शूटर कहां और क्यों चूक गए? ज्यादातर शूटर तो विश्व स्तरीय खिलाड़ी रहे हैं, लिहाजा उनका मनोविज्ञान मैदान में कैसे लड़खड़ा गया? तीरंदाजी में विश्व चैंपियन दीपिका कुमारी कोरिया की चुनौती के सामने क्यों पराजित हो जाती हैं? वह 3 ओलंपिक खेल चुकी हैं और फिलहाल वर्ल्ड नंबर 1 खिलाड़ी हैं, लेकिन ओलंपिक के संदर्भ में अभी तक खाली हाथ हैं। मुक्केबाजी और कुश्ती से भारत को अपेक्षाएं और उम्मीदें थीं। अमित पंघल जैसा विश्वस्तरीय मुक्केबाज शुरुआती चरण में ही धराशायी कैसे हो गया?
विनेश फोगाट के प्राण तो कुश्ती में ही बसे हैं। वह भी शुरुआत में ही कैसे हार गईं। अब मैरी कॉम का विकल्प भी तलाश करना और तैयार करना शुरू करना चाहिए, क्योंकि अब उम्र उनके साथ नहीं है। यकीनन हॉकी ने अपेक्षाओं के पार जाकर भारत की झोली भरी है। अब हमारी पुरुष टीम तो विश्व की तीसरी ताकतवर टीम बन गई है, जबकि महिला टीम 12वें स्थान से उछल कर 7-8वें स्थान पर आ गई है। यह तो नई करवट की शुरुआत है। अब सशक्तता और सटीकता का अगला चरण हासिल करने के लिए खूब मशक्कत करनी पड़ेगी। नए विदेशी कोचों का भी अनुबंध यथाशीघ्र तय करना होगा। कुल मिलाकर अब खेल पर गहन चिंतन का वक्त है, क्योंकि विश्व चैंपियनशिप, कॉमनवेल्थ गेम्स और एशियाई चैंपियनशिप सरीखी प्रतिस्पर्द्धाएं इसी साल और 2022 में होनी हैं। इस सवाल पर भी ईमानदार मंथन होना चाहिए कि स्वतंत्र भारत में मात्र दो ही खिलाड़ी ओलंपिक में स्वर्ण पदक क्यों जीत पाए? एक, शूटर अभिनव बिंद्रा और दूसरे, भाला फेंक चैंपियन नीरज चोपड़ा! एथलेटिक्स में तो एक ही खिलाड़ी नीरज ने यह अप्रतिम उपलब्धि हासिल की है। 'उड़नसिख' मिल्खा सिंह तो एथलेटिक्स को ही सभी खेलों की मां कहा करते थे। बहरहाल 2008 और 2021 के बीच भी 13 लंबे, सूखे सालों का फासला क्यों रहा? ऐसे सवालों पर भी ईमानदारी से विमर्श किया जाना चाहिए। हम 'ईमानदारी' शब्द का बार-बार इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका भी मकसद है। यह फिज़ूल नहीं है।
खेलों में नाकामी का एक बुनियादी कारण खेल बजट और सरकारों की लापरवाह अनदेखी भी है। अमरीका 39 स्वर्ण पदक जीत कर प्रथम और चीन 38 स्वर्ण पदकों के साथ दूसरे स्थान पर रहा है। क्या प्रतिस्पर्द्धा रही होगी? भारत एक ही स्वर्ण पदक के साथ 48वें स्थान पर रहा। हम इस दुर्भाग्यपूर्ण और विरोधाभासी नतीजे को नजरअंदाज़ नहीं कर सकते, क्योंकि भारत भी विश्व-शक्ति देशों की जमात में है। ओलंपिक के कुल 125 सालों में अमरीका ने सर्वाधिक 2636 पदक जीते हैं और चीन 634 पदकों के साथ चौथे स्थान पर है, लेकिन भारत 35 पदकों के साथ 54वें स्थान पर है। बेहद व्यापक फासला है। सीधा-सपाट जवाब दिया जा सकता है कि भारत में खेल पर मात्र 3 पैसे प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं, जबकि चीन का यह औसत 6.10 रुपए है। यानी 200 गुणा ज्यादा…! अमरीका खेल-खिलाडि़यों पर निजी कंपनियों से करीब 20,000 करोड़ रुपए सालाना खर्च कराता है। ब्रिटेन 11,000 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करता है और अलोकतांत्रिक देश चीन भी 18-20 हजार करोड़ रुपए खर्च करता रहा है। भारत का खेल बजट 2596 करोड़ रुपए है। अब इन तमाम पहलुओं पर नए सिरे से सोचने और नीतियों को अंजाम देने का वक्त आ गया है।
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