ये कितने जायज या प्रासंगिक हैं, इससे कहीं अलग हटकर हमें यह भी सोचना होगा कि हिमाचल में मुख्यमंत्री की सीट आखिर 'एकछत्र साम्राज्य' की शक्तियों से परिपूर्ण क्यों होती रही है और हर बार राजनीतिक चुनौतियों का एहसास कराते हुए चुनाव क्यों विपक्ष को ही सेहरा पहना देते हैं। डा. वाईएस परमार से शुरू हुआ आंतरिक विरोध का पतन आज तक नहीं हुआ, तो राजनीति के इन संदर्भों में वीरभद्र सिंह, शांता कुमार, प्रेम कुमार धूमल और अब जयराम ठाकुर के कौशल, कर्म और करवटों का जिक्र तो होगा ही। आखिर क्यों हर बार चुनाव के मौसम में सारे तीतर, फसली बुटेर हो जाते हैं। क्यों हर बार मुख्यमंत्री के साथ एक राजनीतिक क्षेत्रवाद जुड़ जाता है और प्रदेश में सत्ता की हिस्सेदारी के प्रश्न पर इतना मोहभंग हो जाता है कि हर बार हार सत्ता को सता जाती है या यह कहें कि हिमाचली राजनीति का मिशन रिपीट से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। धूमल की हार भी आज तक भाजपा की भीतरी परतों को शिकायत का मौका देती है, तो इसका विश्लेषण और विश्लेषण के छींटे उस डिजाइन पर पड़ेंगे, जिन्होंने सत्ता के शुभ मुहूर्त को छीन कर चोट पहुंचाई। बहरहाल यह भाजपा के श्रेष्ठ नेतृत्व का फैसला है कि धामी को लेकर पार्टी आदर्शों का नया धर्म शुरू हो रहा है, लेकिन हिमाचल में धूमल को लेकर बाहर निकला मलाल अब मुखर होने लगा है। प्रदेश इस समय चुनावी बुखार के लक्षणों से घिरा है और हर तरह की राजनीतिक आरजू समय की सीमा घटा रही है। हम यह भी कह सकते हैं कि इस बार चुनाव हर बूहे और बारी के रास्ते इतना नजदीक आ रहा है कि पार्टियों के भीतर अनुशासनहीनता का सबब कई चोर रास्ते ढूंढेगा। जिस तरह आप पार्टी का पदार्पण प्रदेश में हो रहा है, उसे देखते हुए व्यक्तिवाद के मुहावरे बदलेंगे और हस्तियां भी बदलेंगी। आप पार्टी की मुहिम भले ही अभी अंगड़ाई ले रही है, लेकिन इससे चुनावी फितरत बदल रही है। यकीनन चुनाव की एक नई परिपाटी हिमाचल में सोशल मीडिया को ही विचारधारा में बदल सकती है।
यह एक व्यापक अंतर होगा अगर मतदाताओं की अभिव्यक्ति में सोशल मीडिया ही विचारधारा में बदल जाता है। इस मामले में कांग्रेस फिसड्डी साबित हुई है, क्योंकि यह पार्टी पुरातन प्रथा में न अपनी विचारधारा को सामने ला पा रही है और न ही अपने घर से भागते मंजर को रोक पा रही है। आप की शक्ति अन्य पार्टियों के खोए हुए प्रभाव से पाने की रही है और इसी के अनुरूप जनाक्रोश को साधने की तमाम खूबियां इस पार्टी में हैं। भले ही धामी बनाम धूमल के अध्याय को भाजपा नगण्य समझे, लेकिन यही फासले जब आगे बढ़ेंगे, तो विकल्पों की छांव में आप के लक्ष्य पूरे होंगे। आप केवल एक चुनावी मशीनरी नहीं, समाज की अपेक्षाओं और आम जनता के एहसास को पुख्ता करने का बंदोबस्त है, जो आगे चलकर नेताओं का रंग और ढंग बदलेगा। पहली बार मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की तलाश शुरू हुई है और अगर प्रश्न हर नेता के व्यक्तित्व में सामर्थ्य ढूंढने का होगा, तो सोचिए समाज की कंद्राओं में आज तक उपेक्षित रहे कितने ही अव्वल लोग बाहर निकल कर विकल्प बन सकते हैं। आगामी चुनाव की फितरत भी अगर बदल जाए, तो राजनीतिक आमने-सामने हमेशा काबिलीयत का विश्लेषण करेंगे।