अकबर से लेकर औरंगजेब तक काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करते रहे, आक्रांताओं पर आस्था की जीत की कहानी
बनारस पर कुतुबुद्दीन ऐबक, सिकंदर लोदी और औरंगजेब के हमलों की तो अक्सर चर्चा होती है
डा. विजय राणा। बनारस पर कुतुबुद्दीन ऐबक, सिकंदर लोदी और औरंगजेब के हमलों की तो अक्सर चर्चा होती है, लेकिन यहां एक ऐसे मुगल बादशाह ने भी हमला किया था, जिसकी धार्मिक सहिष्णुता के गुणगान में इतिहासकारों ने अनेक किताबें लिखी हैं। इस बादशाह का नाम था-जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर। अकबर की आधिकारिक जीवनी अकबरनामा पर सैकड़ों शोधपत्र लिखे जा चुके हैं, लेकिन किसी आधुनिक इतिहासकार ने इस हमले का जिक्र नहीं किया है।
अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है, 'जून 1567 में जौनपुर के नवाब के विद्रोह को कुचलने के लिए अकबर बनारस के रास्ते वहां जा रहा था। शाही सेना जैसे ही बनारस के बाहर पहुंची तो शहर के अज्ञानी और विश्वासघाती लोगों ने नगर के दरवाजे बंद कर दिए। इस पर शहंशाह का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने शाही सेना को शहर को लूटने का आदेश दे दिया।' हालांकि अकबरनामा में यह भी लिखा है कि शहंशाह ने जल्द ही बनारस की जनता को माफ कर दिया, लेकिन स्थानीय इतिहासकारों का कहना है कि अकबर के सैनिकों ने कई दिनों तक बनारस के कई मंदिरों को ध्वस्त किया और इनमें शहर का सबसे प्रमुख और समृद्ध विश्वेश्वर मंदिर भी था। इस हमले में विश्वेश्वर मंदिर को नुकसान पहुंचाया गया, इसका एक उल्लेख काशी के विद्वान पंडित नारायण भट्ट के ग्रंथ 'त्रिस्थलीसेतु' में मिलता है। वह लिखते हैं, 'यदि किसी कठिन परिस्थिति के कारण विश्वेश्वर लिंग अपने स्थान से हटा दिया गया हो और वहां कोई और लिंग स्थापित किया गया हो, तब भी उस स्थान पर पूजा अर्चना जारी रहनी चाहिए।' उन्होंने यह भी लिखा है, 'यदि विदेशी शासकों की शक्ति के कारण उस स्थान पर कोई शिवलिंग विद्यमान न हो तब भी उस स्थान पर हर रोज पूजा, पाठ, आरती और प्रदक्षिणा की जानी चाहिए।'
इस हमले के कुछ समय बाद जब अकबर के एक नवरत्न राजा टोडरमल अपने पितरों का श्राद्ध करने बनारस आए तो पुरोहित का दायित्व नारायण भट्ट ने ही निभाया। वह उनसे मंदिर निर्माण के अनुनय-विनय करते रहे। आखिरकार 1585 में टोडरमल के समर्थन से नारायण भट्ट ने विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। इस कार्य में अकबर के विश्वासपात्र जयपुर के राजा मान सिंह ने भी आर्थिक योगदान दिया।
विश्वेश्वर मंदिर के निर्माण के 84 वर्ष बाद, 1669 में औरंगजेब ने बनारस के मंदिरों को नष्ट करने का फरमान जारी किया। यह जानकर आश्चर्य होगा कि औरंगजेब से पहले उसके दादा जहांगीर ने भी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर उसके स्थान पर मस्जिद बनवाने का काम किया था। 1829 में एक सैनिक अधिकारी मेजर डेविड प्राइस ने ब्रिटेन की महारानी के संग्रह में उपलब्ध जहांगीरनामा का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। इसके अनुसार जहांगीर लिखता है, 'बनारस शहर में राजा मान सिंह ने 36 लाख अशर्फियों की लागत से एक मंदिर का निर्माण कराया। इसकी मुख्य प्रतिमा के मुकुट में तीन लाख अशर्फियों के हीरे-जवाहरात जड़े थे। मुख्य प्रतिमा की चार दिशाओं में ठोस सोने से बनी चार मूर्तियां भी थीं। जहन्नुमवादियों का विश्वास था कि इस देवता की उपासना से मुर्दे भी जीवित हो जाते हैैं। मैंने धोखाधड़ी के इस अड्डे को उखाडऩे का निश्चय किया और उस स्थान पर उसी मंदिर के मलबे से एक विशाल मस्जिद बनवाई। यदि अल्लाह की मेहरबानी रही तो मैं इस्लाम की निंदा करने वाले इस शहर को ईमानवालों से भर दूंगा।'
1632 में एक ब्रिटिश व्यापारी पीटर मंडी ने अपने संस्मरण में विश्वेश्वर मंदिर का जो विवरण दिया है, वह हाल में वजूखाने में पाए गए शिवलिंग से मिलता है। मंडी लिखता है, 'यहां कासीबीस्सेस्व महादेव का मंदिर सबसे प्रसिद्ध है। मैं इस मंदिर के भीतर गया। इसके बीचों-बीच सादा पत्थर है, जिस पर कोई नक्काशी नहीं है। एक गंवार के शब्दों में वह महादेव का लिंग था। यहां स्त्रियां अपने छोटे बच्चों को निरोग करवाने लाती हैं। शायद लिंग में प्रजनन और रक्षण के दोनों भाव निहित हैं।'
औरंगजेब के समकालीन जौनपुर के एक चिश्ती संत अरशद बद्र-अल-हक के संस्मरण 'गंज-ए-अरशदी' से भी हमें इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण का बनारस की जनता ने प्रबल विरोध किया था। 1935 में प्रकाशित इतिहासकर जहीरुद्दीन फारुकी ने अपनी पुस्तक 'औरंगजेब एंड हिज टाइम्स' में गंज-ए-अरशदी का यह विवरण इस रूप में उद्धृत किया है, 'अधर्मियों ने मस्जिद निर्माण का विरोध किया। रात में मस्जिद की दीवारें टूटी हुई पाई गईं। अगले दिन दीवारें फिर बनाई गईं, परंतु रात में उन्हें फिर गिरा दिया गया। यह क्रम तीन-चार रातों तक चला। जब यह समाचार मंडयावा में शेख यासीन तक पहुंचा तो उसने तलवार उठाई और जिहाद की घोषणा कर दी। चारों ओर से होने वाले पथराव के बीच लड़ते हुए वह चौखंबा तक पहुंचे। अंतत: शेख यासीन मंदिर तक पहुंचने में सफल हुए और उन्होंने मंदिर के दरवाजे जबरन खोल कर मूर्तियां बाहर फेंक दी।'
औरंगजेब के मंदिर ध्वंस के बाद 1750 के आसपास जयपुर नरेश सवाई मान सिंह द्वितीय ने काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए उस क्षेत्र में कई सर्वे कराए, जिनके नक्शे आज भी जयपुर राजघराने के संग्रहालय में उपलब्ध हैं। इनमें से एक नक्शे में टोडरमल की हवेली, वर्तमान मस्जिद और ज्ञानवापी कूप साफ दिखाई पड़ रहे हैं। पिछले दिनों जहां शिवलिंग मिलने का बात सामने आई, वहां यानी वर्तमान वजूखाने के स्थान को इस नक्शे में 'बिसेसुर जी कौ चबूतरो' बताया गया है, लेकिन अवध के नवाबों के विरोध के कारण सवाई मान सिंह द्वितीय का स्वप्न पूरा न हो सका। अंतत: ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में 1777 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने ज्ञानवापी मस्जिद के निकट नए काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया।
इस्लामी भारत का इतिहास हिंदू धार्मिक स्थलों के विनाश और पुनर्निर्माण की एक सतत प्रक्रिया का गवाह रहा है। अकबर से लेकर औरंगजेब तक बार-बार काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करते रहे, लेकिन हमलावर सेनाओं के लौटते ही आस्था और विश्वास से प्रेरित जनता इस मंदिर का पुनर्निर्माण करती रही। दो संस्कृतियों के इस लंबे संघर्ष में आक्रांता तो इतिहास की कहानी बनकर रह गए, लेकिन काशी विश्वनाथ की परंपरा आज भी फल-फूल रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और डाक्यूमेंट्री फिल्म 'काशी की अमर कहानी' के निर्माता हैं)