यूपी में लगातार इस्तीफे: क्या नेहरू, इंदिरा और मोदी की तरह हालात संभाल पाएंगे योगी?
इंदिरा और मोदी की तरह हालात संभाल पाएंगे योगी?
एक के बाद एक विधायक और मंत्रियों के इस्तीफे हो रहे हैं, बीजेपी वाले कह रहे हैं कि उनको टिकट कटने का पता चल गया था तो विरोधी कह रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ की पिछड़ा-दलित विरोधी नीतियों से परेशान थे। ऐसे में जबकि हर कोई अपना संदेश, अपना 'नरेटिव' अपनी जीत के लिए लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सच क्या है?
राजनीति के इन पेंचोखम में इतिहास क्या बताता है और इस सब कवायद का भविष्य क्या होगा? क्या जो पंडित नेहरू ने झेला, इंदिरा गांधी ने झेला, थोड़ा बहुत अटलजी ने भी और मोदी ने भी कम नहीं झेला, अपनों का विरोध। लेकिन बाद में यही लोग भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे ताकतवर नेता के रूप में उभरे तो क्या योगी आदित्यनाथ के लिए वही 'संकट' आ गया है।
योगी की मुश्किलें और नेहरू जी की चुनौतियां
योगी आदित्यनाथ अभी तक ऐसे संकट से दो चार नहीं हुए थे, जब उनके खिलाफ अपने ही आवाज उठाएं। जब उनके नाम का मुख्यमंत्री पद के लिए ऐलान हुआ था, तब लोग चौंके जरूर थे, लेकिन कोई भी आवाज उनके अपनों की उनके खिलाफ नहीं उठी थी। जबकि पंडित नेहरू, इंदिरा गाधी, अटलजी और मोदी भी इतने भाग्यशाली नहीं थे। अब भी देखा जाए तो इस्तीफा देने वाला ज्यादातर वो लोग हैं, जो दूसरी पार्टियों से आए थे, बीजेपी का कोई सशक्त चेहरा अभी भी योगी के सामने उस तरह खुलकर नहीं आया है, जैसे कि इन सभी लोगों के खिलाफ आए थे।
योगी आदित्यनाथ के मुकाबले इस वक्त यूपी में और कोई उनके कद का नेता नहीं है, लेकिन पंडित नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था। जब 1946 में अंग्रेजों ने 4 साल बाद गांधीजी समेत कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को छोड़ा तो वो आजादी के प्रावधानों की बात किससे करें, उसके लिए एक कांग्रेस अध्यक्ष चुनना था और उसी को एक तरह से बाद में आजाद भारत का प्रधानमंत्री चुना जाना था। कई साल से अध्यक्ष पद के चुनाव नहीं हुए थे, 1940 से मौलाना आजाद ही अध्यक्ष थे और केबिनेट मिशन आदि से मीटिंग्स कर रहे थे, ऐसे में उनको पूरा भरोसा था कि गांधीजी उनको ही चुनेंगे। लेकिन गांधीजी ने उनको चुनाव लड़ने से ही रोक दिया।
उस वक्त कांग्रेस की 15 प्रदेश कार्यसमितियां थीं, एक ने भी नेहरूजी का नाम नहीं भेजा, 12 ने सरदार पटेल का भेजा तो 3 ने आचार्य कृपलानी का, बावजूद इसके गांधीजी ने पटेल से नाम वापस करवाया और कृपलानी से कहकर नेहरूजी का नाम अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की तरफ से प्रस्तावित करवाया, तब वो अध्यक्ष बने और फिर अंतरिम सरकार के मुखिया।
जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल, दोनों दिग्गज कांग्रेस की दिशा तय कर रहे थे।
सोचिए कितना मुश्किल रहा होगा पंडित नेहरू के लिए, ये जानते हुए भी पद लेना, जब उन्हें कोई चाहता ही ना हो। उसके बाद भी उनके लिए कम मुश्किले नहीं रहीं। पटेल को गांधीजी के नाम पर माउंटबेटन ने इमोशनल करके नेहरूजी की अगुवाई में सरकार में शामिल करने के लिए मना जरूर लिया था, लेकिन कई मौकों पर पटेल की ज्यादा तवज्जो मिलती थी। जिस तरह से उन्होंने नेहरूजी के आग्रह पर कश्मीर छोड़कर बाकी 564 रियासतों को भारत से जोड़ा था, उससे उनकी इज्जत पार्टी और देश में काफी ज्यादा बढ़ गई थी। 1950 में जब आचार्य कृपलानी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर उनका 1946 का कर्ज चुकाना चाहा तो आड़े आ गए सरदार पटेल।
पटेल ने नेहरू के विरोधी रहे इलाहाबाद के ही पुरुषोत्तम दास टंडन को कृपलान के खिलाफ ना केवल खड़ा किया बल्कि जिता भी दिया। नेहरू ने इस्तीफे की धमकी तक दे डाली। उनकी मुश्किलें तभी कम हो पाईं, जब पटेल की उसी साल मौत हो गई। बीच में ही टंडन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया, फिर कई साल तक खुद ही पीएम और कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर जमे रहकर अपने विरोधियों को ठिकाने लगा दिया। 1955 से अपने विश्वस्त यूएन ढेबर को फिर 1959 में इंदिरा गांधी को अध्यक्ष बनवाया। उनकी कांग्रेस पर पकड़ चीन युद्ध के बाद ही ढीली हुई और कामराज की अगुवाई में सिंडिकेट मजबूत होता चला गया। लेकिन 1950 से 1962 तक का काल में नेहरूजी सर्वशक्तिमान थे।
आज तमाम बुद्धिजीवियों को, जो उनके गुण गाते हुए आप देखते हैं, उनमें तमाम वो लोग भी शामिल हैं, जिनके परिवारों को नेहरूजी ने इसी दौर में फर्श से अर्श तक पहुंचा दिया। वहीं पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जेपी, आचार्य कृपलानी, मौलाना आजाद जैसे गांधीजी के साथियों और उनका खुद का परिवार राष्ट्रीय परिदृश्य से लापता है। आचार्य कृपलानी भी बाद में नेहरूजी से नाराज हो गए थे और वही थे जो उनके खिलाफ पहला अविश्वास प्रस्ताव भारत की संसद में लेकर आए थे। वहीं जेपी और सी राजगोपालाचारी ने उनके खिलाफ स्वतंत्र पार्टी को जन्म दिया था।
इंदिरा गांधी के लिए भी आसान नहीं थी राह
नेहरूजी के समय ही दक्षिण के दिग्गज कांग्रेस नेताओं का ग्रुप 'सिंडिकेट' हावी हो चला था। ऐसे में नेहरूजी की मौत के बाद शास्त्रीजी के नाम पर भी सर्व सहमति नहीं थी, तब मोरारजी देसाई के मुकाबले शास्त्रीजी को समर्थन देकर सिंडिकेट के कामराज ने उनको पीएम बनवाया। तब लंदन मे बसने की सोच रहीं इंदिरा गांधी को तीन मूर्ति भवन छोड़ना पडा। नेहरूजी के करीबियों ने भरोसा दिलाया कि वह भी पीएम बन सकती हैं।
शास्त्रीजी को भी इंदिरा के रूप में कम मुसीबतें नहीं झेलनी पड़ीं। कभी वो बिना बताए भारत पाक युद्ध के दौरान बॉर्डर पर पहुंच गईं, कभी हिंदी विरोधी आंदोलन में बिना पूछे मद्रास जाकर आंदोलनकारियों से कुछ वायदा कर आईं।
एक बार तो शास्त्रीजी ने रक्षा मंत्री बदला तो सवाल उठा दिए कि मुझसे बिना चर्चा किए इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया। एक बार तो उन्होंने बयान दे दिया था कि "यस, आई हैव जम्प्ड ओवर द प्राइम मिनिस्टर'स हैड और आई वुड डू इट अगेन व्हैन एवर द नीड एराइजेज", सोचिए क्या किसी भी पीएम को ऐसा सुनने को मिला है कभी?
ऐसा व्यवहार था इंदिरा गांधी का शायद तभी उन्हें ही सबसे ज्यादा अपनों का विरोध झेलना पड़ा और सबको ठिकाने लगाने के बाद जनता ने उन्हें ही सबसे ताकतवर माना। शुरूआत हुई शास्त्रीजी की मौत के बाद पीएम पद के चुनाव के लिए। बड़ी मुश्किल से उनके अपनों ने कामराज को उनके नाम के लिए मनाया तो फिर से मोरारजी देसाई उनके खिलाफ भी खड़े हो गए। उससे पहले दो-दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा ने भी पीएम पद के लिए अपनी खातिर उनसे समर्थन मांगा।
सिंडिकेट के जरिए गुलजारी लाल नंदा से निपटीं तो सांसदों की सीधी वोटिंग में मोराराजी देसाई को हराया। तब जाकर पीएम बनीं। लेकिन राह इतनी आसान कहां थी। धीरे- धीरे सिंडिकेट के नेता ही उनके खिलाफ हो गए।
इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री रहते हुए कांग्रेस के नेताओं ने पार्टी से बाहर कर दिया था।
इंदिरा गांधी ने सिंडिकेट द्वारा घोषित राष्ट्रपति पद के कांग्रेस प्रत्याशी नीलम संजीवा रेड्डी की जगह निर्दलीय वीवी गिरि को समर्थन देकर 'आत्मा की आवाज' का आव्हान करके गिरि को राष्ट्रपति बनवा दिया। देश में पहली बार ऐसा हुआ कि पीएम ने अपनी पार्टी का प्रत्याशी हरवा दिया और वो पहली पीएम ऐसी बनीं जिसे उनकी ही पार्टी के अध्यक्ष निंजालिंगप्पा ने पार्टी से निकाल बाहर किया। सोचिए योगीजी ने तो अभी इसका पांच फीसदी भी नहीं झेला है।
खैर, इंदिरा गांधी ने अपनी कांग्रेस बनाई, कांग्रेस (इंदिरा गांधी) यानी कांग्रेस (आई), फिर सिंडिकेट का अस्तित्व ही खत्म हो गया, नेता धीरे-धीरे किनारे लग गए। फिर इमरजेंसी की कहानी तो सबको पता ही है। उन दिनों कांग्रेस से इस्तीफा देकर नई पार्टी बनाने वालों में एके एंटनी, शरद पवार, प्रियरंजन दास मुंशी, चौधरी चरण सिंह, बाबू जगजीवन राम, यशवंत राव चाह्वाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, देवकांत बरुआ आदि शामिल थे। फिर इंदिरा के खिलाफ आ गए इन ऐसे तमाम दिग्गज नेताओं के संरक्षक, जयप्रकाश जेपी।
इंदिरा को पहली बार ना केवल सत्ता से हाथ धोना पड़ गया बल्कि दो-दो बार जेल की सलाखों के पीछे भी जाना पड़ा। इन सबका इतिहास पढ़ेंगे तो पाएंगे स्वामी प्रसाद मौर्या और धर्म सैनी जैसे नेता तो गिनती में कहीं नहीं हैं। हालांकि योगी भी अभी उस मुकाम पर नहीं पहुंचे हैं।
हालांकि अटलजी संघर्ष करते करते जिस मुकाम पर पहुंचे, जो उन्होंने खुद पाया था। इंदिरा की तरह नेहरू के नाम और करीबी लोगों का साथ नहीं मिला, सो उनको अपनों का विरोध कम ही झेलना पड़ा, काफी हद तक सर्वमान्य थे। कभी बलराज मधोक का विरोध करना या गोविंदाचार्य का 'मुखौटा' जैसे बयान बेमानी ही थे। बिना संगठन के संगठन खड़ा करना और पार्टी को जीत हासिल करवाना और बिना सत्ता के लम्बे समय तक कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाना आसान काम नहीं था। लेकिन नरेन्द्र मोदी के लिए ये राह आसान नहीं थी।
मोदी के लिए अपने शुरुआती समय में जगह बनाना आसान नहीं था।
मोदी के लिए भी कम नहीं रहीं चुनौतियां
इमरजेंसी से पहले छात्र आंदोलन की कमान और फिर इमरजेंसी के दौरान गुजरात लोक संघर्ष समिति का महासचिव चुना जाना मोदी के विरोधियों को रास नहीं आ रहा था। इमरजेंसी में उनका कद बढ़ गया था, सो 1979 में कुछ समय के लिए उनको दिल्ली भेज दिया गया। ऐसा ही 1992 मे भी शंकर सिंह वाघेला से रिश्ते खराब होने के बाद किया गया था। 1979 मे जब आए तो उन्होंने समय का सदुपयोग किया और इमरजेंसी में गुजरात की घटनाक्रम पर एक किताब लिख डाली।
1987 में गुजरात प्रदेश के संगठन मंत्री बने तो 1990 की आडवाणीजी की रथ यात्रा और 1991-92 की मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा ने उनका कद काफी ऊंचा कर दिया। लेकिन शंकर सिंह वाघेला को ये रास नहीं आया, उनको फिर से दिल्ली आना पड़ा। गुजरात ने उनको वनवास दे दिया। 1994 में वो फिर चुनावी राजनीति में उतरे और 1995 में बीजेपी की सरकार गुजरात में बनी, मोदी को राष्ट्रीय महासचिव बनाकर फिर दिल्ली बुलाया गया और हिमाचल व हरियाणा का प्रभार दे दिया गया। लेकिन वाघेला ने केशुभाई के अमेरिकी यात्रा पर जाते ही मोदी और केशुभाई दोनों की गैरमौजूदगी में बीजेपी को तोड़कर सरकार गिरा दी, सुरेश मेहता को सीएम बनाया गया।
इधर, फिर चुनाव हुए, मोदी वापस लौटे और फिर केशुभाई को सीएम बनवाया, लेकिन अब नेतृत्व उनसे नाखुश हो चला था। ऐसे में अगले तीन सालों में जनता का रोष, केशुभाई की गिरता स्वास्थ्य, उपचुनाव में हार और फिर 2001 भुज भूकम्प ने मोदी के लिए सत्ता के दरवाजे उसी तरह अचानक खोल दिए, जैसे योगी आदित्य नाथ के लिए 2017 की जीत के बाद खोले थे। क्योंकि जैसे बाघेला और केशुभाई मोदी के रास्ते से हटे थे, वैसे ही राजनाथ और कल्याण सिंह जैसे दिग्गज भी अब यूपी में नहीं थे।
2002 दंगों के बाद तो मोदी ने फिर अमेरिका से लेकर नेशनल टीवी चैनल्स और दुनियाभर के एनजीओ संगठनों का विरोध ही झेला है। पीएम बनने से पहले आडवाणीजी का शालीन विरोध और फिर पीएम बनने के बाद यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा से लेकर अब सत्यपाल मलिक जैसे अपनों का विरोध उनकी आदत में आ गया है और किसी मजबूत नेता का भारी विरोध दोतरफा असर करता है।
आम जनता में उसकी लोकप्रियता उतनी ही तेजी से बढ़ती है। ऐन चुनाव के वक्त योगी के खिलाफ जो मोर्चा उनके अपनों ने खोला है, इतिहास के हिसाब से आंकलन करें तो वो उनको जबरदस्त फायदा पहुंचाने वाला है। अगर मोदी और इंदिरा की तरह उनके सारे पासे वैसा ही नतीजा दें, जैसा सोचकर वो फेंके गए हैं। तो ऐसे में इसे योगी आदित्यनाथ का लिटमस टेस्ट कहना सही ही है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।