आजादी, स्वायत्तता और श्रीमान आजाद

कश्मीर को लेकर, 1947 से ही, दो विरोधी विचार रहे हैं। ये विचार समय-समय पर कई रूपों में बदलते गए, जिससे यह धारणा बनी कि कश्मीर को लेकर दो से अधिक विचार थे।

Update: 2022-09-18 06:15 GMT

पी. चिदंबरम; कश्मीर को लेकर, 1947 से ही, दो विरोधी विचार रहे हैं। ये विचार समय-समय पर कई रूपों में बदलते गए, जिससे यह धारणा बनी कि कश्मीर को लेकर दो से अधिक विचार थे। दरअसल, दो ही विचार हैं और वे एक-दूसरे का विरोध करते रहते हैं।

मूल विचार कश्मीर के इतिहास से जुड़ा है। 26 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। संविधान सभा ने उस विलय को मान्यता दी थी और कांग्रेस पार्टी ने इसके पीछे के विचार को अपना लिया था। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने इन बीच के वर्षों में अपनी स्थिति कुछ कमजोर कर ली, पर जब भी 'विशेष दर्जा' को लेकर बात उठी, उसने इस विचार की मूल दृष्टि की पुष्टि की।

इसके विपरीत एक विचार की उत्पत्ति श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कारण हुई, जो 1947 में जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य थे। आरएसएस और भाजपा सहित उसकी राजनीतिक शाखाओं ने मुखर्जी के उस विचार को अपना लिया। फिर उन्होंने बरस-दर-बरस इसमें इतनी परतें जोड़ीं और इसे इस हद तक विकृत कर दिया कि उन्होंने विलय के दस्तावेज को ही अस्वीकार कर दिया।

5 अगस्त, 2019 को, भाजपा सरकार ने जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने का अतिवादी कदम उठाया। राज्य को विभाजित कर दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिए गए- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख। अगले ही दिन कांग्रेस कार्यसमिति ने एक आपात बैठक बुलाई और एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें निम्नलिखित बातें थीं:

सीडब्ल्यूसी इस एकतरफा, निर्लज्ज और पूरी तरह से अलोकतांत्रिक फैसले की निंदा करती है, जिसके तहत संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया और संविधान के प्रावधानों की गलत व्याख्या करके जम्मू और कश्मीर राज्य को अलग कर दिया गया।

अनुच्छेद 370, जम्मू और कश्मीर राज्य तथा भारत के बीच विलय संबंधी दस्तावेज की शर्तों की संवैधानिक मान्यता है। लोगों के सभी वर्गों के परामर्श के बाद, और सख्ती से भारत के संविधान के अनुसार, इसे संशोधित किए जाने तक अक्षुण्ण रखा जाना चाहिए। सीडब्ल्यूसी के वरिष्ठ और लंबे समय तक सदस्य रहे गुलाम नबी आजाद भी उस बैठक में उपस्थित थे और उन्होंने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था।

5 अगस्त, 2019 को सरकार ने 1954 के अनुच्छेद 370 (1) को अधिक्रमित करते हुए उससे मिलते-जुलते एक अनुच्छेद 367 (संविधान की व्याख्या लेख) में एक उपबंध (4) जोड़ दिया।

उसी दिन, सरकार ने संसद के समक्ष अनुच्छेद 370 के निरसन के लिए एक प्रस्ताव रखा और संविधान की धारा 370 (3) के तहत दोनों सदनों द्वारा इसे पारित कर दिया गया था।

उसी दिन, सरकार ने राज्यसभा में जम्मू और कश्मीर (पुनर्गठन) विधेयक, 2019 को पेश किया और पारित करवा लिया, जिसमें राज्य को विभाजित किया गया और दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिए गए। अगले दिन लोकसभा ने इसे पारित कर दिया। यह कथित तौर पर संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत किया गया था।

6 अगस्त, 2019 को राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 (3) के तहत एक अधिसूचना जारी की, जिसमें घोषणा की गई थी कि 6 अगस्त, 2019 से अनुच्छेद 370 के सभी खंड अमान्य करार दिए जाते हैं। उस अधिसूचना में केवल एक नए खंड को छोड़ दिया गया था।

सीडब्ल्यूसी के सभी सदस्य इस बात को लेकर मुतमईन थे कि उपरोक्त कदम अवैध और असंवैधानिक थे। उन दो घातक दिनों में सरकार ने जो कुछ भी नहीं किया, उसके लिए किसी भी सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता थी। आदेश और अधिसूचना कार्यकारी शक्तियों के प्रयोग में जारी किए गए थे, संकल्प और विधेयक को साधारण बहुमत से पारित किया गया था।

इन संदिग्ध कदमों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। अगर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी या सभी कदमों को असंवैधानिक मानता है, तो इन फैसलों को उलट दिया जाएगा। वैकल्पिक रूप से, अगर मोदी सरकार की जगह कोई और सरकार आती है, तो संभव है कि नई सरकार कुछ या सभी चरणों को उलट दे।

श्रीमान आजाद निश्चित रूप से यह सब जानते हैं। फिर, उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि एक राजनीतिक दल, जो अनुच्छेद 370 को बहाल करने का वादा कर रहा है, वह झूठ बोल और लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है, जबकि हकीकत में ऐसा कुछ नहीं करेगा?

जो मुद्दा जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए अहम है, वह अनुच्छेद 370 नहीं है। वह विशेष दर्जा है। वह अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 के निरसन का मुद्दा नहीं है। कश्मीर घाटी के अधिकांश लोग (और जम्मू और लद्दाख में भी इसे लेकर बड़ा समर्थन है) विशेष दर्जे के लिए तरसते हैं, जो कुल मिलाकर राज्य को स्वायत्तता प्रदान करता है और वे चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर हमेशा भारत गणराज्य का अभिन्न अंग बना रहे।

लोगों के साथ मेरी कई बातचीत हुई है, जिससे मुझे विश्वास हो गया था कि वे आजादी, स्वतंत्रता या अलगाव की मांग नहीं करते हैं। वे बड़े पैमाने पर स्वायत्तता चाहते हैं। वे पीवी नरसिंह राव (आसमान कोई सीमा नहीं) और अटल बिहारी वाजपेयी (इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत) के शब्दों को याद करते हैं। एक संघ के भीतर किसी राज्य की एक बड़े स्तर पर स्वायत्तता की लालसा रखना कोई असामान्य बात नहीं है।

अभी हाल में 12 अगस्त, 2022 को यूएनएचआरसी में भारत ने श्रीलंका को उसी रूप में रखने की सिफारिश की थी। नगा समूह भी सरकार के साथ बातचीत में उसी 'स्वायत्तता' की मांग करते और अड़े रहते हैं। अच्छी बात है कि श्रीमान आजाद, सदस्य सीडब्ल्यूसी, सांसद और विपक्ष के नेता, ने कश्मीर के मूल विचार को अपनी आवाज दी। मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होंने अपनी सांसद की स्थिति को छोड़ कर, कश्मीर के विपरीत विचार को अपनाया है।

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