मुफ्त का जोखिम

हर चुनाव में मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के मकसद से लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां कई तरह की सुविधाएं मुहैया कराने के वादे करती हैं। इनमें कोई वस्तु या सुविधा बिल्कुल मुफ्त देने का वादा भी शामिल है।

Update: 2022-10-05 04:38 GMT

Written by जनसत्ता; हर चुनाव में मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के मकसद से लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां कई तरह की सुविधाएं मुहैया कराने के वादे करती हैं। इनमें कोई वस्तु या सुविधा बिल्कुल मुफ्त देने का वादा भी शामिल है। यों सत्ता में आने पर किसी पार्टी का वादे से मुकर जाना या उसे लेकर टालमटोल करना कोई हैरानी की बात नहीं है, लेकिन चुनावों में जीत की होड़ ने आजकल राजनीतिक दलों के सामने मुफ्त की सुविधा के कुछ वादों को जमीन पर उतारने की मजबूरी पैदा कर दी है।

हो सकता है कि इससे जनता के कुछ हिस्से को थोड़ा आर्थिक लाभ होता हो, लेकिन इस व्यवस्था के चलते राजस्व का जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई में लंबा वक्त लग जाता है। इसी के मद्देनजर भारतीय स्टेट बैंक के अर्थशास्त्रियों ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं की घोषणा भविष्य में अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकती है। यों इसकी व्यावहारिकता और इसके असर को लेकर पहले भी चिंता जताई जा चुकी है, मगर अब तक इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखी है।

दरअसल, महज चुनावी जीत और सत्ता में आने के लिए मुफ्त सुविधा के वादे एक आसान जरिया बनते गए हैं। जबकि जिन मुश्किलों की वजह से जनता किसी अभाव या मुफ्त के आकर्षण में फंसती है, उन समस्याओं के हल के प्रति कोई पार्टी गंभीर नहीं दिखती और न कोई दूरदर्शी योजना पेश करती है। इसलिए चुनावी राजनीति में वादे से लेकर योजनाओं तक में मुफ्त का आकर्षण परोसने पर रोक नहीं लग पा रही है।

इस संदर्भ में भारतीय स्टेट बैंक की रिपोर्ट में आगाह करते हुए सुझाव दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ऐसे खर्चों को राज्य के सकल घरेलू उत्पाद या कर संग्रह के एक फीसद तक सीमित कर दे। मसलन, गरीब राज्यों में गिने जाने वाले छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान में सालाना पेंशन देनदारी तीन लाख करोड़ रुपए अनुमानित है। मगर इन राज्यों के कर राजस्व के फीसद के रूप में अगर पेंशन देनदारी को देखा जाए तो यह काफी ऊंचा है। विडंबना यह है कि सरकारें मुफ्त की योजनाओं की घोषणा या उन पर अमल करते हुए यह ध्यान रखना जरूरी नहीं समझतीं कि इससे जीडीपी या कर संग्रह का संतुलन कितना कायम रहेगा।

सवाल है कि अगर आम जनता आय और क्रय शक्ति की कसौटी पर एक संतोषजनक स्थिति में रहे, उसे किसी सुविधा की कीमत और उससे हासिल राजस्व की उपयोगिता के बारे में बताया जाए तो मुफ्त का वादा परोसने की जरूरत ही क्यों पड़ेगी? मगर राजनीतिक दलों के लिए शायद यह ऐसा काम लगता है, जिससे भविष्य में एक जागरूक समाज तैयार हो सकता है, जो किसी पार्टी को उसकी दृष्टि और दूरदर्शिता की कसौटी पर देखे।

जनकल्याण की योजनाओं में जरूरतमंद तबकों की पहचान की जाती है, सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से अनिवार्य समझ कर सरकार सहायतार्थ कोई कार्यक्रम चलाती है तो उसके संदर्भ अलग होते हैं। लेकिन मुफ्त बिजली या कोई अन्य योजना जब सबके लिए घोषित की जाती है तो उसमें वैसे लोग भी इसका लाभ उठाते हैं जिन्हें किसी मदद की जरूरत नहीं होती और वे आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। ऐसी विरोधाभासी स्थितियों का विपरीत असर दूसरी ज्यादा जरूरी योजनाओं के अमल पर पड़ता है। इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि मुफ्त की घोषणाओं की होड़ आने वाले वक्त में देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकती है।


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