By: divyahimachal
पल भर के लिए सोचें कि हिमाचल में विकास के रास्ते पर वन विभाग का डेरा न होता, तो गुजरना कितना आसान होता। मीडिया ने समाज की आंखों में पर्यावरण संरक्षण का सुरमा इस कद्र डाल दिया है कि समाज पौंगा पंडित बन गया है। अपने आसपास विकास दरख्वास्तों पर कभी वन संरक्षण कानून के नाखून देखना। अनुमतियों की हर फाइल पर वन विभाग की नागफनी इस कद्र चढ़ गई है कि हर अनापत्ति की कीमत इस राज्य को या तो अवसर गंवा कर चुकानी पड़ती या इसके बदले चढ़त चढ़ानी पड़ती है। अभी हालिया दौर में तीन परियोजनाओं का ही जिक्र कर लें। हेलिपोर्ट बनाने की महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत हमीरपुर व रक्कड़ की जमीन के लिए सरकार को 65 लाख रुपए वन विभाग को देने पड़ेंगे, जबकि केंद्रीय विश्वविद्यालय के जदरांगल परिसर के लिए तीस करोड़ की व्यवस्था करने का फरमान अब सियासत को आगे आने का अवसर दे रहा है। सरकारों को विकास के लिए अपने ही राज्य के जंगल से डरना पड़ता है। ‘एक तफतीश से गुजर के ही रह गया, तेरा वजूद इस जंगल की कैद में रह गया।’ जंगल हिमाचल के वजूद, हिमाचल की आवश्यकता और हिमाचल की महत्त्वाकांक्षा से सौदा करता है। यही स्थिति पड़ोसी पंजाब और हरियाणा में भिन्न है। वहां सार्वजनिक जमीन पर विकास के नक्शे सरेआम बनते हैं, जबकि हिमाचल में हर कदम पर वन विभाग की बुर्जियां हैं।
कल हो सकता है आपके गांव के शमशानघाट में जंगल उग आए या गांव के मैदान की निशानदेही में वन के बूटे खड़े हो जाएं। सडक़ों के किनारे खड़े सूखे पेड़ तो देखे होंगे। यह सडक़ तो वहां तक चौड़ी है, जहां जंगल का वारिस पेड़ खड़ा है। क्या पीडब्ल्यूडी में दम है कि इसे हटा पाए। किसी दिन गिरेगा यही पेड़ आपकी दुकान पर या कोई वाहन इसके नीचे आकर टूटेगा, तो खबर बन जाएगी। खबरें तो इस बार भी बनीं। पेड़ गिरे, लेकिन बदनाम हुई जनता। पेड़ गिरते रहेंगे और बदनाम शिमला होता रहेगा, क्योंकि राजधानी के जंगल में मंगल की छूट नहीं है। इधर वन विभाग न पेड़ उगाता है और न ही इसकी रक्षा करता है, बल्कि इन्हें गिन लेता है। गिन लेता है जंगल उन पेड़ों को जो चीड़ के बीजों की वजह से कहीं भी उग आते हैं। जरा सोचें कि अगर हमीरपुर के जंगल से हेलिपोर्ट की तरह दस परियोजनाओं को जमीन चाहिए, तो अकेले फोरेस्ट डिपार्टमेंट की जेब में 390 लाख रुपए डालने पड़ेंगे। परियोजनाएं इससे ज्यादा तादाद और आकार में हुईं, तो हमेशा उसी राज्य का खजाना खाली होगा, जिसने जंगल उगाए। हमने 70 फीसदी राज्य की जमीन को वन घोषित करके क्या हासिल किया। क्यों नहीं यह समझा या समझाया गया कि पड़ोसी पंजाब और हरियाणा अगर पांच प्रतिशत से भी कम जमीन को वनों के तहत लाकर केंद्रीय योजनाओं के चहेते बने, तो हिमाचल में जंगल का अर्थ अब विकास की जंजीर क्यों हो गया। प्रदेश के सत्तर लाख लोगों की आत्मनिर्भरता तथा विकास के लिए तीस प्रतिशत बची हुई जमीन हर मायने व मानदंड में अपर्याप्त है। हिमाचल में जंगल को बचाने की तहरीरें एक हद तक सही हंै, लेकिन प्रदेश की जनता वनवासी नहीं है। हमसे बेहतर स्थिति तो उन प्रदेशों की है जहां वनवासी रहते हैं।
ओडिशा, महाराष्ट्र राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, आंधप्रदेश, प. बंगाल और कर्नाटक की वनवासी आबादी के कारण 2006 का एफआरए एक्ट इन्हें जीने के कई अधिकार देता है। पट्टों के परिवर्तन, बंदोबस्त तथा कई सामुदायिक अधिकार इन राज्यों को प्राप्त हैं, लेकिन हिमाचल के ट्राइबल क्षेत्रों को छोड़ कर बाकी सारे जंगल केवल जंगल के कानून को बड़ा करते हैं। जाहिर तौर पर वनाधिकारों के कारण परिभाषित छूट जिन राज्यों की वनवासी या आदिवासी आबादी का उद्धार कर रही है, उस तरह के जंगल हिमाचल में नहीं हैं। यहां जंगल हैं, तो वहां एकछत्र जंगल के कानून पूरी आबादी और हिमाचलवासियों की उम्मीदों के खिलाफ खड़े और अड़े हैं। बेशक किन्नौर, लाहुल-स्पीति और शिमला-मंडी, कुल्लू, बिलासपुर, चंबा और सिरमौर के दुर्गम इलाकों में वनाच्छादित क्षेत्र बढऩे चाहिएं, लेकिन इसी फांस में कांगड़ा, हमीरपुर, ऊना, बिलासपुर, मंडी व सिरमौर के समतल क्षेत्रों को वनों की अत्यधिकता में आबादी के घनत्व के अनुरूप छूट मिलनी चाहिए। वनवासियों की तहजीब से भिन्न हिमाचल के वन क्षेत्रों से जनता के हर तरह के सामाजिक, सामुदायिक विकासात्मक तथा आर्थिक अधिकार सुनिश्चित होने चाहिएं, वरना जंगल में हमारा वजूद यूं ही तड़पता रहेगा।