डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए पीआईएल व गाइडलाइन्स की बजाय कानून पर अमल हो
राजस्थान में महिला डॉक्टर की आत्महत्या मामले में सीबीआई जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर हुई है
राजस्थान में महिला डॉक्टर की आत्महत्या मामले में सीबीआई जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर हुई है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए द्वारिका) की पीआईएल में डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए गाइडलाइन के साथ थानों में मेडिको लीगल सेल बनाने की मांग की गयी है. पिछले दो साल से ज्यादा समय से चल रहे कोरोना काल में डॉक्टर, नर्स और मेडिकल स्टाफ ने लोगों की जान बचाने के लिए दिन रात एक कर दिया. इसलिए सामान्य तौर पर डॉक्टरों के बारे में समाज में बेहद सम्मान है.
दूसरी तरफ राजस्थान में नेताओं की ब्लैकमेलिंग और पुलिस के उत्पीडन से डॉक्टर की आत्महत्या जैसे मामले भी देश के अधिकांश इलाकों का कड़वा सच है. आईपीसी कानून के तहत दरोगा और थानेदार को एफआईआर दर्ज करने का मनमाना अधिकार हासिल है. अपराध होने पर समय पर और सही एफआईआर दर्ज नहीं करने और निरपराधी को फंसाने के लिए गलत FIR के गोरखधंधे से भारी भ्रष्टाचार के साथ अराजकता बढ़ती है. पुलिस के उत्पीडन को रोकने और डॉक्टरों को सुरक्षा देने के लिए पहले से ही अनेक कानूनी व्यवस्था है तो फिर नई गाइडलाइन्स से समस्या का समाधान कैसे होगा?
केंद्र और राज्यों के बीच अटका डॉक्टरों की सुरक्षा का मामला
संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार स्वास्थ्य का विषय राज्यों के अधीन है. इसको समवर्ती सूची (केंद्र और राज्य दोनों के अधीन) में लाने के लिए 15वें वित्त आयोग ने अनुशंसा की थी. डॉक्टर, नर्स और मेडिकल स्टाफ की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने सन 2019 में बिल का मसौदा बनाया था लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय की आपत्ति के बाद उसे क़ानून के तौर पर मंजूरी नहीं मिली. मंत्रालय के अनुसार डॉक्टरों के लिए अलग वर्ग बनाना संविधानसम्मत नहीं होगा. डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए बने क़ानून को लगभग 23 राज्यों ने लागू कर दिया है. लेकिन केन्द्रीय क़ानून नहीं होने और आईपीसी के साथ इन कानूनों का सही तालमेल ना होने की वजह से इन पर सही अमल नहीं हो पाता. सरकारी अस्पतालों में हिंसा या काम में बाधा डालने के मामलों में गंभीर धाराओं में केस दर्ज हो सकता है, लेकिन निजी अस्पतालों को ऐसी सुरक्षा नहीं मिली. डॉक्टरों के साथ दुर्व्यवहार या हिंसा के मामलों में अस्पतालों को तुरंत एफआईआर दर्ज कराने की जिम्मेदारी है. लेकिन पुलिस और कोर्ट की थकाऊ प्रक्रिया से बचने के लिए अधिकाँश डॉक्टर और अस्पताल आपराधिक मामले दर्ज कराने से बचते हैं.
कानून के तहत पीड़ित मरीजों और परिवारजनों के अधिकार
चिकित्सकीय लापरवाही के बारे में चार तरह की कानूनी व्यवस्था है. पहला, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मरीज को भी जीवन और स्वास्थ्य का अधिकार है. दूसरा, इलाज़ में हुई लापरवाही से नुक्सान या मौत के मामलों में आईपीसी की धारा 52, 80,81, 88, 90,92, 304 ए और 337 के तहत पुलिस में मामला दर्ज हो सकता है. डॉक्टर या अस्पताल के खिलाफ मुआवजे के लिए सिविल अदालत में वाद दायर किया जा सकता है. चौथा पीड़ित मरीज या परिजन उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत भी उपभोक्ता अदालत में मुवावजा का केस दायर कर सकते हैं. आईएमए बनाम बीपी संथा मामले में सन 1995 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि कंसल्टेशन, उपचार, डायग्नोसिस और सर्जरी आदि के सभी मामलों में यदि फीस का भुगतान होने पर डॉक्टर और अस्पताल भी उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में आ सकते हैं.
मेडिकल लापरवाही के मामलों में हर्जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अहम् फैसले
सन 2010 में कृष्णराव बनाम निखिल सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हर्जाना देते हुए Res Ipsa Loquor के सिद्धांत को मान्यता दी थी, जिसके अनुसार लापरवाही से हुआ नुकसान खुदबखुद प्रमाण है. एनआरआई डॉक्टर कुणाल शाह की पत्नी की सन 1998 में मौत के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सन 2013 के फैसले से कोलकाता के अस्पताल और तीन डॉक्टरों को चिकित्सकीय लापरवाही के लिए जिम्मेदार मानते हुए लगभग 6 करोड़ का हर्जाना देने का आदेश दिया था. एक दुसरे मामले में प्रीमेच्योर बच्चे की डिलीवरी के केस में सन 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने एम्स की रिपोर्ट के आधार पर अस्पताल और डॉक्टरों को चिकित्सकीय लापरवाही के लिए जिम्मेदार मानते हुए उन्हें 76 लाख रूपये का हर्जाना देने का आदेश दिया था.
चिकित्सकीय लापरवाही के मामले में हत्या का मुकदमा कैसे दर्ज हुआ
सन 2021 में बॉम्बे हॉस्पिटल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मरीज की मौत का हर मामले को चिकित्सकीय लापरवाही से जोड़ना गलत है. अगर चिकित्सकीय लापरवाही है भी तो मरीजों व परिजनों को डॉक्टरों के साथ दुर्व्यवहार या हिंसा करने का कोई कानूनी हक़ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के अनुसार मरीज़ का गलत इलाज, देखरेख में कमी, गलत या ख़राब तरीके से सर्जरी, खतरों के बारे में पूरी जानकारी नहीं देना, अस्पताल की सेवा में कमी, अपात्र डॉक्टर द्वारा जानलेवा इलाज़ जैसे मामले चिकित्सक लापरवाही के दायरे में आते हैं. चिकित्सा में लापरवाही का मामला विशेषज्ञता का विषय है जिसकी जांच अन्य स्वतंत और विशेषज्ञ डॉक्टरों द्वारा ही की जा सकती है। पुलिस, अदालत या सरकार इन मामलों में मेडिकल बोर्ड, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन या एम्स जैसे बड़े संस्थानों की जांच रिपोर्ट के आधार पर कारवाई कर सकते हैं. लेकिन किसी भी हालत में ऐसे मामलों में IPC की धारा 302 के तहत मामला दर्ज नहीं किया जा सकता.
दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त कारवाई हो
आईपीसी की धारा 88 और 92 के तहत डॉक्टरों को वैधानिक सुरक्षा कवच मिला है, जिसकी वजह से उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करना गलत है. गलत एफआईआर दर्ज करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 167, 218 और 220 के तहत कार्रवाई का प्रावधान है. आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए धारा 309 के तहत मामला दर्ज होना चाहिए. ऐसे मामलों में वसूली और संगठित भ्रष्टाचार के भी पहलू होते हैं, जिसके लिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, जिससे कि भविष्य में अन्य पुलिस अधिकारी अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने से पहले कई बार सोंचे.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विराग गुप्ता एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान तथा साइबर कानून के जानकार हैं. राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित लेखन के साथ टीवी डिबेट्स का भी नियमित हिस्सा रहते हैं. कानून, साहित्य, इतिहास और बच्चों से संबंधित इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पिछले 6 वर्ष से लगातार विधि लेखन हेतु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा संविधान दिवस पर सम्मानित हो चुके हैं. ट्विटर- @viraggupta.