कब तक शोषित और उपेक्षित होते रहेंगे असंगठित क्षेत्र के मजदूर?

कहा जाता है कि इंसान सही रास्ते से पैसे कमाकर इज्जत की जिंदगी जीना चाहता है

Update: 2021-10-18 17:33 GMT

कहा जाता है कि इंसान सही रास्ते से पैसे कमाकर इज्जत की जिंदगी जीना चाहता है. लेकिन क्या वाकई हर इंसान पैसे कमाकर भी इज्जत और सुकून से रह पाता है ? इस विश्व में एक वर्ग है 'मजदूर वर्ग' जो अपना जीवन यापन करने के लिए जीतोड़ मेहनत करता है. कोई पढ़ लिखकर फैक्टरी में काम कर रहा तो कोई मनरेगा या फिर दूसरी किसी तरह की मजदूरी कर रहा है . ये सब असंगठित क्षेत्र के मजदूर माने जाते हैं . इनकी सामाजिक सुरक्षा नाममात्र की भी नहीं है . इन्हें सुविधाओं से कोसों दूर रखा जाता है और हकीकत ये है कि सिर्फ भारत ही नहीं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को अपने कंधों पर लेकर चलने वाले इन कामगारों की जिंदगी क्या सुकून में है या सिर्फ शोषण का शिकार हो रहें हैं !

सच बात तो यह है कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था में इस असंगठित क्षेत्र के कामगारों की भूमिका को अलग कर दिया जाए तो हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की टॉप-100 अर्थव्यवस्थाओं में भी शामिल नहीं हो पाएगी और भारत की ही क्यों, हम दुनिया की बात क्यों न करें ? पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में 2 अरब ऐसे ही असंगठित क्षेत्र के कामगारों के खून-पसीने की मेहनत शामिल है जिसकी बदौलत दुनिया का विकास कामयाबी की नई-नई ऊंचाइयां छू रहा है. भले ही भारत की तरह दूसरे देशों में असंगठित क्षेत्र के इन कामगारों की उतनी दुर्दशा न हो, लेकिन हकीकत यही है कि पूरी दुनिया में कहीं पर भी इन्हें संगठित क्षेत्र के कामगारों जितना न तो वेतन मिलता है, न सुविधाएं मिलती हैं और न ही श्रेय मिलता है, जबकि दुनिया में जितने कामगार हैं, उनमें इन असंगठित क्षेत्र के कामगारों की तादाद आधी ही है.
तथ्य देते हैं शोषण की गवाही
दुनिया की सकल वर्क फोर्स के 50 फीसदी ये कामगार संगठित क्षेत्र के महज 10 फीसदी कामगारों के बराबर वेतन पाते हैं, इससे यह समझा जा सकता है कि इनका किस कदर शोषण होता है. भारत में इन्हें किन विपरीत स्थितियों में काम करना पड़ता है, इसकी गवाही ये तथ्य देते हैं. जिनके मुताबिक 80 फीसदी असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अपने कार्यस्थल में सैनीटेशन की सुविधा प्राप्त नहीं होती है, इनमें सिर्फ बेहद गैर पढ़े-लिखे कामगार ही नहीं हैं, बल्कि ऐसे पढ़े-लिखे कामगार भी हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. इनमें भी महज 35 से 36 फीसदी कामगारों को अपने कार्यस्थल में सैनीटेशन की सुविधा हासिल होती है. अगर पीने वाले पानी की बात करें तो असंगठित क्षेत्र के गैर पढ़े-लिखे कामगारों में से 70 फीसदी को अपने कार्यस्थल में पीने का शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं कराया जाता और 60 फीसदी ऐसे कामगारों को तो अपने काम की जगहों में हाथ धोने तक की सुविधा नहीं हासिल होती.
मूक कामगारों को कभी नहीं मिलता श्रेय
मशहूर अर्थशास्त्री और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डेवलपमेंट स्टडीज की प्रो. इमर्टिअस बारबरा हैरिस वाइट कहती हैं- 'भारतीय अर्थव्यवस्था जो कुछ भी है, वह असंगठित अर्थव्यवस्था ही है क्योंकि शेष अर्थव्यवस्था उसके बिना कुछ भी नहीं कर सकती.' यही बात कुछ दूसरे तरीके से अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल इम्प्लॉयमेंट केंद्र के मुखिया अमित बसौले कहते हैं कि भारत के असंगठित क्षेत्र के कामगारों की अपार कुशलता की हम अनदेखी नहीं कर सकते. सच्चाई तो यह है कि इनकी कुशलता की बदौलत ही भारतीय अर्थव्यवस्था का संगठित क्षेत्र कुलांचे भर पाता है. दरअसल असंगठित क्षेत्र के कामगार उन मूक योद्धाओं जैसे हैं, जो अपनी तमाम वीरता, अपने तमाम कठिन परिश्रम के बाद भी इसके रत्तीभर श्रेय से भी वंचित रहते हैं.
कब समाप्त होगी गुलामी
भारत की अर्थव्यवस्था में रोजगार प्रदान करने की जो क्षमता है, उसमें 90 फीसदी क्षमता इसी असंगठित क्षेत्र में है. मतलब यह कि भारत के कुल कामगारों में से 90 प्रतिशत को काम इसी असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था से मिलता है. असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बिना जी निर्माण क्षेत्र, मालभाड़ा परिवहन क्षेत्र और घरेलू साफ-सफाई के काम हो ही नहीं सकते, ये कामगार हफ्ते में 53 घंटे तक काम करते हैं. जबकि संगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सप्ताह में अधिकतम 45 घंटे तक ही काम करना जरूरी होता है. इसी तरह सबसे ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में 66 फीसदी कामगार इसी असंगठित क्षेत्र से आते हैं. इनमें भी 42 फीसदी महिलाएं होती हैं और 32 फीसदी पुरुष हैं. लेकिन अर्थव्यवस्था की धुरी होने के बावजूद इनको कोई भी देश महत्व नहीं देता. यह अकारण नहीं है कि पिछले 2 वर्षों में कोरोना महामारी के संक्रमण में सबसे ज्यादा परेशानी इन मजदूरों को ही उठानी पड़ी है. पिछले 21 महीनों में पूरी दुनिया में 1.6 अरब असंगठित क्षेत्र के कामगार कोविड-19 से प्रभावित हुए हैं. सबसे ज्यादा मौत भी इन्हीं की हुई है. जबकि इस दौरान इनकी कमाई 60 फीसदी तक गिर गई. लेकिन अकेले भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में ज्यादातर देशों की सरकारों ने इन नींव के पत्थरों की ही सबसे ज्यादा अनदेखी की है.


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