फिल्म एप्रिसिएशन: सिने-प्रेमियों के लिए एक खास किताब और फिल्मों की अनूठी दुनिया

पहले हमारे यहां फिल्म देखना, फिल्मी पत्रिका पढ़ना या फिल्म पर बात करना बुरा माना जाता था

Update: 2022-05-19 11:06 GMT

डॉ. विजय शर्मा

पहले हमारे यहां फिल्म देखना, फिल्मी पत्रिका पढ़ना या फिल्म पर बात करना बुरा माना जाता था। फिल्म को गंभीरता से न लेते हुए शिक्षा से भी इसे दूर रखा जाता था। मगर समय बदलने के साथ समाज की सोच में परिवर्तन हुआ है। आज न केवल खुलेआम सिनेमा देखा जाता है वरन इस पर विचार-विमर्श भी होता है।
कई देशों में यह प्रारंभ से पठन-पाठन का अंग रहा है। प्रतिवर्ष 1,000 फिल्म बनाने वाले हमारे देश में भी आज गंभीर विधा के रूप में स्वीकारते हुए इसे पाठ्यक्रम का अंग बना लिया गया है। हमारे यहां आज प्राय: हर कॉलेज में इसका शिक्षण हो रहा है, विश्वविद्यालयों में सिनेमा अध्ययन के स्वतंत्र विभाग है। सिनेमा पर सेमीनार आयोजित हो रहे हैं। यह एक अच्छी बात है।
यह अच्छी बात है मगर जब फिल्म से जुड़ी गंभीर लिखित सामग्री की बात आती है तो हमें अधिकांत: विदेशी साहित्य पर आश्रित रहना होता है।
भारतीय भाषाओं में सिनेमा-ज्ञान से जुड़ी सामग्री का पर्याप्त अभाव है। न केवल क्षेत्रीय भाषाओं में इसकी कमी यह वरन यह अभाव भारत में इस विषय पर इंग्लिश भाषा में लिखी किताबों में भी है।
ऐसी किताब जो विशेषज्ञों के काम की हो साथ ही सामान्य सिने-प्रेमी की जिज्ञासा शांत करने में सक्षम हो। ऐसे में राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित फिल्म समीक्षक, रेडियो ब्रॉडकास्टर, प्रयोगात्मक फिल्म निर्देशक, प्रकाशक बहुमुखी प्रतिभा उत्पल दत्त की किताब 'फिल्म एप्रिसिएशन' स्वागत योग्य है।
मूल रूप से असमी भाषा में लिखी इस किताब को इंग्लिश में अनुवादित करने का श्रेय लेखक, सिने समीक्षक डॉ. दीपशिखा भगवती को जाता है। अनुवाद की गुणवत्ता पर दोनों भाषा के जानकार टिप्पणी कर सकते हैं।
सिनेमा को देखने का नजरिया
सिनेमा हमारा मनोरंजन करता है, इसके साथ यह और बहुत कुछ करता है। इसे सही तरीके से देखने-समझने के लिए विशेषज्ञों के अलावा सामान्य दर्शक को भी इसमें प्रशिक्षित होना आवश्यक है। इस किताब की सरल भाषा छत्र तथा सामान्य सिने-प्रेमी के लिए उपयोगी है। न केवल फिल्म एप्रिसिएशन बल्कि फिल्म निर्माण में रूचि रखने वाले व्यक्तियों को भी इससे सहायता प्राप्त होगी।
'एप्रिसिएटिंग फिल्म', 'मेथड ऑफ मेकिंग ए फिल्म', 'स्क्रीनप्ले', 'शूटिंग', 'साउंड', 'एडिटिंग', 'फिल्म एंड लिटरेचर', 'फिल्म एंड अदर मीडियम्स (मीडिया होना चाहिए था क्योंकि मीडिया शब्द बहुवचन है।) ऑफ आर्ट' (यहाँ बहुवचन शब्द आर्ट्स का प्रयोग होना चाहिए। आशा है इस भूल को अगले संस्करण में सुधार लिया जाएगा।),
डॉयरेक्शन' जैसे भिन्न अध्याय में बंटी किताब फिल्म के कई पहलुओं पर प्रकाश डालती है। इसके साथ समाहार (जिसे दसवां अध्याय लिखा गया है) है। परिशिष्ट के रूप में 'सिनेमा इन टाइमलाइन', 'मिसे-एन-सीन', 'हंड्रेड मस्ट वाच फिल्मस' तथा"रेफरेंसेस' किताब को समृद्ध बनाते हैं।
प्रो. के. सी सुरेश एवं डायोरमा सिनेमा के चेयरमैन मनोज श्रीवास्तव की भूमिकाएं तथा अनुवादक की टिप्पणी किताब को समझने में सहायक है। कवर का गैर पारम्परिक रेखांकन (रुक्साना तबस्सुम) आकर्षित करता है और किताब पढ़ने का आमंत्रण देता है।
हर अध्याय के प्रारंभ में उद्धृत सिनेमा से जुड़े भारतीय और विदेशी व्यक्तियों (यथा सेकिया, त्रुफ़ो, कुरोसावा आदि) की विभिन्न पंक्तियां इसे रोचक बनाती हैं, जैसे अलफ्रेड हिचकॉक की पंक्ति, 'एक अच्छी फिल्म को तीन चीजें चाहिए होती हैं, स्क्रीनप्ले, स्क्रीनप्ले तथा स्क्रीनप्ले'।
फिल्म के मुख्य बिन्दुओं, खासतौर पर विभिन्न प्रकार के शॉट्स (डायनमिक शॉट, वाइड एंगल, स्टेटिक कॉम्पोजीशन, लीड रूम आदि) को समझाने करने के लिए फिल्म, डॉक्युमेंट्री के स्टिल फोटोग्राफ का प्रयोग तथा भावों को स्पष्ट करने के लिए असमी, बांग्ला, हिन्दी, एवं अन्य भाषाओं की फिल्म से लिए गए प्रचुर उदाहरण किताब को महत्वपूर्ण बनाते हैं।
इसी तरह आज की पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए विभिन्न नेटसाइट के लिंक दिए गए हैं ताकि पाठक अपनी जानकारी में इजाफा कर सकें।
किताब से गुजरने पर पता चलता है कि लेखक न केवल सिनेमा से जुड़ा है वरन उसे विषय की अधुनातम जानकारी है जिसे वह पाठक से साझा करता है। 100 फिल्मों की सूची देखने के लिए उत्सुकता जगाती है और यदि आपने देखी है तो देखी गई फिल्म का लिस्ट में होना खुशी देता है।
किताब 'फ़िल्म एप्रिसिएशन' सिने-प्रेमियों को अवश्य पढ़नी चाहिए। वैसे यह किताब हर उस स्कूल-कॉलेज में होनी चाहिए जहां सिनेमा का अध्ययन-अध्यापन होता है। यह प्रत्येक सिने-विद्यार्थी/जिज्ञासु के पास अवश्य होनी चाहिए। किताब के लिए मैं उत्पल दत्त और दीपशिखा भगवती को बधाई सेती हूं और भविष्य में और किताबों की उनसे उम्मीद करती हूं।

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