महंगाई का भय
महामारी का प्रकोप कम होना शुरू हुआ तो एक आशा की किरण नजर आने लगी थी कि महंगाई पर काबू पा सकेंगे, लेकिन लगता है फिलहाल यह संभव नहीं है, क्योंकि यूक्रेन और रूस युद्ध के कारण रूस पर कड़े अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगा दिए गए हैं।
Written by जनसत्ता: महामारी का प्रकोप कम होना शुरू हुआ तो एक आशा की किरण नजर आने लगी थी कि महंगाई पर काबू पा सकेंगे, लेकिन लगता है फिलहाल यह संभव नहीं है, क्योंकि यूक्रेन और रूस युद्ध के कारण रूस पर कड़े अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों के साथ-साथ स्टील, कोयला, गेहूं आदि के मूल्यों में वृद्धि देखने को मिली है।
पांच विधानसभा चुनावों के बाद पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ना लगभग तय है। जीएसटी परिषद की बैठक में निर्णय लिया गया कि अब जीएसटी की न्यूनतम दर 5% से बढ़ा कर 8% की जा सकती है जिसके कारण तेल, मसाले, चीनी, दवाइयां आदि महंगी हो सकती हैं। इसके अअलावा जीएसटी परिषद राज्यों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए कुछ ऐसे उत्पादों की काट-छांट कर सकती है, जिन पर वर्तमान में छूट प्राप्त है। इन सबको देखते हुए एक बात तो तय है कि अब आम आदमी महंगाई की मार झेलने के लिए तैयार हो जाए।
अर्थशास्त्री बताते रहे हैं कि हल्की-फुल्की महंगाई देश के लिए बेहतर होती है, लेकिन जब यह विकराल रूप ले ले तो अर्थव्यवस्था को तो नुकसान पहुंचाती ही है, समाज में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। इसलिए अगर सरकारों ने समय रहते इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया तो हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
इसका पहला परिणाम होगा कि पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने से परिवहन तो महंगा होगा ही, माल भी महंगा होगा। हमें याद रहना चाहिए कि महंगाई आने से केवल आर्थिक चुनौती पैदा नहीं होती, बल्कि गरीबी, मानसिक तनाव, घरेलू हिंसा आदि समस्याएं भी पैदा होती हैं। आम लोगों की बचत पर बुरा असर पड़ता है। मुद्रास्फीति कालाबाजारी को बढ़ावा देती है, जिसके कारण उत्पादक और उपभोक्ता दोनों का शोषण होता है। महंगाई का सबसे बुरा प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ता है, क्योंकि यहां पर लोगों की आय सीमित होती है और आय के स्रोत भी।
महंगाई बढ़ने से बाजार में मांग घट जाती है, जिसके कारण उत्पादक कंपनियां अपना उत्पादन घटाती हैं और इसके बाद फिर बेरोजगारी जैसी एक और विकराल समस्या पैदा होती है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में 1।30 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जिनमें से 35% स्नातक किए हुए हैं। इसलिए केंद्र, राज्य और आरबीआई से उम्मीद है कि एक बेहतर नीति तैयार करें, ताकि हम महंगाई पर नियंत्रण पा सकें।
राहत की बात है कि यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों को वापस लाने का अभियान पूरी क्षमता के साथ चलाया जा रहा है। पर यूक्रेन के जैसे हालात हैं, उन्हें देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि हमारे छात्र हाल-फिलहाल अपनी पढ़ाई पूरी करने वहां लौट सकेंगे। यही कारण है कि अब प्रश्न उठने लगा है कि वहां से लौटे विद्यार्थियों की आगे की पढ़ाई का क्या होगा? सरकार की ओर से बताया गया है कि केंद्र स्वास्थ्य मंत्रालय, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग और नीति आयोग को ऐसे उपाय खोजने को कहा गया है, जिससे यूक्रेन से लौटे हजारों छात्र देश में ही मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर सकें। इसके तहत फारेन मेडिकल ग्रेजुएट लाइसेंस इन एक्ट में संशोधन परिवर्तन के बारे में भी सोचा जा रहा है। ऐसा कुछ किया जाना समय की मांग है।
पर सवाल है कि क्या जल्द ऐसे उपाय किए जा सकते हैं, जिससे यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों के समय की बर्बादी न हो? कोरोना काल में चीन से लौटे मेडिकल छात्र अभी तक वहां नहीं जा पाए हैं। इनमें से कई तो तीन-चार साल की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति यूक्रेन से लौटी तमाम छात्राओं की भी है। इस समस्या का कोई ठोस समाधान खोजना होगा, जिससे यूक्रेन से लौटे छात्रों के डॉक्टर बनने का सपना साकार किया जा सके। इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जाने चाहिए।