यदि टीचर बच्चों को एक्स्ट्रा समय नहीं दे पाएं तो उनके स्कूल से ड्रॉप-आउट होने का डर

ओपिनियन

Update: 2022-04-08 07:09 GMT
रीतिका खेड़ा का कॉलम: 
आखिर दो साल बाद सब स्कूल खुल चुके हैं। छोटे बच्चों की जिंदगी में दो साल बहुत लंबा समय होता है। पिछले साल 'तालीम पर ताला' सर्वे रिपोर्ट में हमने 15 राज्यों में स्कूल शिक्षा पर अध्ययन किया था। इसमें हमने पाया कि शहरी क्षेत्रों में केवल एक चौथाई बच्चे नियमित रूप से पढ़ रहे थे और ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी संख्या 10% से भी कम थी। आधे से ज्यादा बच्चे अपने शिक्षक से पिछले एक महीने से मिले ही नहीं थे।
हालांकि सक्षम वर्ग के बच्चों के लिए ऑनलाइन पढ़ाई एक कारगर विकल्प रहा। जो बच्चे कमजोर वर्ग से आते हैं, उनके लिए यह दरवाजा भी बंद था। सबसे पहली चुनौती है कि बच्चे स्कूल से ड्रॉप-आउट न करें। यूनिसेफ के अनुसार एक सर्वे में पाया गया कि 38% उत्तरदाता ऐसी किसी लड़की, जिसने स्कूल छोड़ दिया हो, को जानते थे। सरकारी आंकड़ों (2020-21) के अध्ययन से पता चलता है कि सेकेंडरी स्कूल में ड्रॉप-आउट दर 14% है।
दूसरी चुनौती है कि जब बच्चे स्कूल लौटें तो पढ़ाई में आने वाली दिक्कतों से हौसला न हारें। जो बच्चे पहली कक्षा से तीसरी में या फिर तीसरी से पांचवी तक बिना एक भी दिन स्कूल गए पहुंच गए हैं, उनके लिए ध्यानपूर्वक नीति बनाने की जरूरत है। उन्हें फिर से सुबह-सुबह उठकर, तैयार होकर, स्कूल जाने की, क्लास में लगातार स्थिर बैठने की आदत डालनी होगी। इसमें घर-परिवार के समर्थन की जरूरत है।
स्कूल की ओर आकर्षित करने के लिए सरकार कई कदम उठा सकती है। हालांकि स्कूल खुल गए हैं, सब राज्यों में मध्याह्न भोजन फिर से आरंभ नहीं हुए। बच्चों के हक का मध्याह्न भोजन नियमित रूप से तुरंत दिया जाना चाहिए। कई वर्षों से कई राज्यों से मांग रही है कि मध्याह्न भोजन के मेन्यू में पौष्टिक खाना (जैसे कि अंडे) शामिल किया जाए।
मध्याह्न भोजन से यह होगा कि बच्चे खाने के लालच से रोज स्कूल भी आएंगे, लेकिन साथ ही भर पेट खाकर पढ़ाई में ज्यादा प्रयास करने के योग्य होंगे। दिल्ली में एक अध्ययन ने पाया था कि जिन बच्चों को पका हुआ खाना मिला, उन्होंने अन्य बच्चों की तुलना में भूल भुलैया पहेली को सुलझाने में ज्यादा समय तक प्रयास किया। कोविड से पहले ही एनुअल सर्वे ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) के अनुसार बच्चे जिस कक्षा में हैं, उसके अनुसार उनकी उपलब्धियां कम हुआ करती थीं।
अब इन बच्चों को दो साल कुछ भी अभ्यास किए बिना, कुछ भी सीखे बिना, अपनी क्षमता से दो वर्ष आगे की पढ़ाई करनी होगी। शिक्षकों के लिए यह बड़ी चुनौती है। पढ़ाई में पिछड़े बच्चे, जिन्हें पिछले दो साल घर पर पढ़ाई करने का मौका नहीं मिला, जब स्कूल लौटेंगे तो बिना सही समर्थन के पढ़ाई में संघर्ष करेंगे। यदि स्कूल टीचर उन्हें प्रोत्साहित न करे, उन्हे एक्स्ट्रा समय नहीं दे पाए तो इन बच्चों का मनोबल टूट जाएगा और कुछ ही समय में स्कूल से ड्रॉप-आउट होने का डर है।
इससे बचने के लिए स्कूल में संवेदनशील माहौल बनाने की सख्त जरूरत है। कुछ राज्यों में इन चुनौतियों को पहचाना गया है और कुछ सकारात्मक कदम भी उठाए गए हैं। झारखंड सरकार ने महीने भर के लिए बैक टु स्कूल अभियान चलाया है, जिसमें बस्ते से मुक्ति दिवस भी शामिल है, जिससे उम्मीद है कि बच्चे स्कूल लौटने से घबराएं नहींं। तमिलनाडु में पिछले साल जब बड़ी कक्षा के स्कूल खुले, तब बच्चों को मानसिक समर्थन के लिए काउंसलिंग उपलब्ध करवाने का प्रयास किया गया।
दो साल बाद लौटने पर जायज ही था कि बच्चे व्याकुल होते। दिल्ली में हैपीनेस करिक्युलम में रोज दो घंटे बेसिक क्षमताओं पर जोर दिया जाएगा। कुछ राज्यों ने ब्रिज कोर्स बनाए हैं, किन बच्चों का बुनियादी क्षमताओं में कितना नुकसान हुआ है उसका आंकलन किया है। और भी काफी कुछ करने की जरूरत है, जैसे कि बच्चों के लिए पढ़ाई में एक्स्ट्रा समर्थन आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को मानदेय देकर दिलाया जा सकता है। लेकिन ज्यादातर राज्यों में शायद इन मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा।
दुनिया भर में स्कूल लौटते बच्चों को संवेदनशील समर्थन देने की पहल हुई है। बड़ी चुनौती है कि हम इन मुद्दों पर चर्चा करें वरना बच्चे छोटी कक्षाओं में ही स्कूल छोड़ देंगे। इससे एक पूरी पीढ़ी के बच्चे मौलिक शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाएंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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