भय : आत्मनिर्भरता के दायरे में केवल मुफ्त खाद्यान्न बांटना ही काफी नहीं, युद्ध संकट की काली छाया
सरकार ने एमएसएमई पर अपनी मसौदा नीति पर फीडबैक मांगा है। उम्मीद है कि शीघ्र ही इन सुझावों पर ध्यान दिया जाएगा।
वर्ष 2022 उसी तरह बीत सकता है, जैसा हमने इस साल की शुरुआत में अनिश्चितता खत्म होने पर जश्न मनाते समय सोचा था। हमारी पुरानी आशंकाएं खत्म हो गई हैं, लेकिन हम यह भी नहीं जानते कि आगे क्या होने वाला है। इस साल के शुरू होते ही ऐसा नहीं था। हममें से कई लोग महामारी के करीब आने से भयभीत थे, हालांकि स्थानीय और वैश्विक, दोनों अर्थव्यवस्थाएं तेजी से पटरी पर लौट रही थीं। हमें पता था कि यह आसान नहीं होगा और महामारी से पहले की 'सामान्य' स्थिति वापस नहीं लौट सकती है, लेकिन हमें उम्मीद थी कि हम 'कुछ हद तक सामान्य स्थिति' की ओर बढ़ रहे हैं।
फिर 24 फरवरी को रूस ने इन मान्यताओं में से कई को पलटते हुए एक संप्रभु देश यूक्रेन पर हमला कर दिया। इसने कई लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। यूक्रेन के सामान्य लोगों ने अपना जीवन, आजीविका, घर और वह सब कुछ खो दिया, जिन्हें उन्होंने संजोया था और फिर भी वे लड़ रहे हैं और वीरतापूर्वक रूस का विरोध कर रहे हैं। युद्ध क्षेत्र में फंसे भारतीय छात्र भय और अनिश्चितता के दर्दनाक अनुभवों से गुजरे। अब वे अपने देश लौट आए हैं, लेकिन उनके सामने भविष्य को लेकर सवाल खड़े हैं।
यहां तक कि युद्ध क्षेत्र से हजारों मील दूर बैठे हम लोग भी वैश्विक आपूर्ति शृंखला में व्यवधान और कई संकटों के कठिन परिणामों के चलते उससे प्रभावित हो रहे हैं। भारत में पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं और हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका मुश्किलों से गुजर रहा है। श्रीलंका के एक मित्र ने मुझे बताया, 'ऐसे कुलीन लोग भी हमारे दरवाजे पर कुछ खाने या दवा खरीदने में मदद की अपील कर रहे हैं, जिन्होंने जीवन में शायद कभी किसी से कुछ न मांगा हो। अपने कुछ अहंकारी पड़ोसियों के तंज कसने के बावजूद हमसे जो बन पड़ रहा है, हम मदद कर रहे हैं।
छोटे-मोटे अपराध अचानक बढ़ गए हैं और हम लुटने या चोरी होने के डर में जी रहे हैं।' हमारा यह पड़ोसी द्वीपीय देश, जहां मैंने काम और छुट्टी के दौरान काफी वक्त बिताया है, एक भयावह आर्थिक संकट से गुजर रहा है। और महामारी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। यूरोप के कुछ हिस्सों में कोविड के मामलों में वृद्धि देखी जा रही है, जैसा कि पड़ोसी चीन और हांगकांग के कुछ हिस्सों में भी दिख रहा है। बढ़ते संक्रमण के कारण गंभीर प्रतिबंध लगे हैं और आंशिक लॉकडाउन ने वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को बाधित किया है।
हालांकि भारत में संभवतः एक और लहर का फिलहाल कोई जोखिम नहीं है। लेकिन दूसरे देशों में बढ़ते मामलों को देखते हुए इस गंभीर बीमारी को रोकने के लिए पूर्ण टीकाकरण पर ध्यान केंद्रित करना होगा और उभरते हुए वैरिएंट को ध्यान में रखते हुए बेहतर उपाय करने होंगे। सौभाग्य से, हम 2020 में महामारी की शुरुआत की तुलना में कहीं अधिक बेहतर ढंग से तैयार हैं, जिसकी बदौलत आबादी के एक बड़े हिस्से को पूरी तरह से टीका लगाया जा रहा है। अभूतपूर्व अनिश्चितताओं को देखते हुए हैरानी की बात नहीं है कि 'आत्मनिर्भर भारत' या आत्मनिर्भरता का विमर्श बेहद प्रासंगिक हो गया है।
मोदी सरकार ने 2014 में मेक इन इंडिया और 2020 में आत्मनिर्भर भारत सहित कई पहल शुरू की है। लेकिन तथ्य यह है कि भारत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने से बहुत दूर है। कई देशों की तरह भारत भी वैश्विक शृंखला में व्यवधान से प्रभावित हुआ है और ऐसा सिर्फ सैन्य हथियारों के लिए रूस पर हमारी निर्भरता के कारण नहीं है। भारत का दवा उद्योग चीनी एपीआई (सक्रिय फार्मास्युटिकल सामग्री) या बल्क ड्रग्स पर बहुत अधिक निर्भर है- एक दवा में सक्रिय घटक, जो किसी स्थिति के इलाज के लिए शरीर पर आवश्यक प्रभाव पैदा करते हैं।
हालांकि भारत घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने की योजना बना रहा है और वास्तव में, भारत ने वर्ष 2015 को एपीआई वर्ष घोषित भी किया था, लेकिन हम अब भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। हम इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो पार्ट्स और चिकित्सा उपकरणों के लिए भी चीन पर निर्भर हैं। यह सच्चाई है। जाहिर है, आत्मनिर्भरता एक अच्छा विकल्प है, लेकिन हर चीज में आत्मनिर्भरता बहुत महंगी पड़ सकती है और दुनिया से खुद को काट लेना कोई विकल्प नहीं है। यह हमें वैसी आत्मनिर्भरता के कठिन सवाल पर लाता है, जिसकी हमें आवश्यकता है।
मेरे विचार में, भारतीय संदर्भ में आत्मनिर्भरता का अर्थ अनिश्चितताओं से उबरने से है, जिसमें भावी झटके, वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में बड़े पैमाने पर व्यवधान और उसका सबसे कमजोर लोगों पर संचयी प्रभाव जैसे कारक शामिल हैं। जमीनी स्तर पर, इसका मतलब भारत के सबसे गरीब और सबसे हाशिये पर रहने वाले लोगों की बुनियादी जरूरतों के लिए प्रावधान करना है, जो आमतौर पर गहन अनिश्चितता के दौरान संकट में फंस जाते हैं।
27 मार्च, 2020 को घोषित भारत के कोविड-19 सामाजिक सहायता पैकेज (प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना या पीएम-जीकेवाई) को कमजोर आबादी को तत्काल राहत प्रदान करने के लिए तैयार किया गया था। पीएम-जीकेवाई ने कम आय वाले परिवारों को मौजूदा योजनाओं के माध्यम से नकद हस्तांतरण और अन्य सहायता (खाद्य राशन, रसोई गैस) प्रदान की। अप्रैल 2021 में, संक्रमण की दूसरी लहर के जवाब में केंद्र सरकार ने घोषणा की कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाएगा, जो 2020 में प्रदान किए गए अतिरिक्त खाद्य राशन के समान है।
केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना को छह महीने और बढ़ाने का फैसला किया है। विस्तारित पीएम-जीकेवाई के तहत प्रत्येक लाभार्थी को उसके सामान्य खाद्यान्न के अलावा प्रति व्यक्ति प्रति माह अतिरिक्त पांच किलो मुफ्त राशन मिलेगा। लेकिन केवल मुफ्त खाद्यान्न बांटना ही पर्याप्त नहीं होगा। कमजोर लोगों को जीवित रहने एवं उनकी जीविका में मदद करने के लिए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। सरकार द्वारा घोषित सभी प्रोत्साहन पैकेजों के बावजूद एक क्षेत्र लगातार संघर्ष कर रहा है, वह है सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र। यह क्षेत्र लाखों भारतीयों को जीविका प्रदान करता है। सरकार ने एमएसएमई पर अपनी मसौदा नीति पर फीडबैक मांगा है। उम्मीद है कि शीघ्र ही इन सुझावों पर ध्यान दिया जाएगा।
सोर्स: अमर उजाला