किसानों का भारत बंद, भारत में किसान बंद

एक साल के दौरान किसान आंदोलन कई बार भारत बंद कर चुका है

Update: 2021-09-28 13:43 GMT

रवीश कुमार। एक साल के दौरान किसान आंदोलन कई बार भारत बंद कर चुका है. हर बार भारत बंद के दौरान किसानों ने इस बात का ख़्याल रखा है कि जनता को कम से कम तकलीफ हो इसलिए भारत बंद चार बजे तक ही रखा गया है. चार बजते ही किसानों ने दिल्ली मेरठ एक्सप्रेस वे खोल दिया. भारत बंद करने वाले किसान अपने भारत में ख़ुद ही बंद नज़र आ रहे हैं. ऐसा लगता है कि किसानों ने भारत बंद नहीं किया है बल्कि सरकार ने किसानों को उनके आंदोलन में बंद कर दिया है. किसान एक साल से तरह-तरह से आंदोलन तो करते दिखाई दे रहे हैं लेकिन सरकार ने जनवरी के बाद आंदोलन की तरफ देखना बंद कर दिया है. 22 जनवरी के बाद बातचीत बंद है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इन कानूनों का अध्ययन करने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी बनी थी. उसकी रिपोर्ट जमा हुए पांच महीने हो गए मगर सार्वजनिक नहीं हुई है. कमेटी के एक सदस्य अनिल जयसिंह घनवट ने हाल ही में चीफ जस्टिस को पत्र भी लिखा था कि इसे सार्वजनिक कर दिया जाए.

अलग-अलग भाषाओं में जारी भारत बंद और आंदोलन के मुद्दे से जुड़े ये तमाम पोस्टर बता रहे हैं कि किसान आंदोलन लगातार उस भारत से संवाद करने का रास्ता खोज रहा है जिस भारत में उन्हें बंद कर दिया गया है. तीनों कृषि कानूनों के बारे में आप भूल गए होंगे लेकिन किसानों को इन कानूनों के पास होने की हर तारीख़ याद है और अब भी इस राय पर कायम हैं कि यह कानून उनके हक में नहीं है. आज भारत बंद इसलिए किया गया क्योंकि आज के ही दिन राष्ट्रपति ने संसद से कृषि कानूनों के पास होने के बाद दस्तख़त किए थे. 5 सितम्बर को मुज़फ्फरनगर में किसान पंचायत हुई थी. इस पंचायत में हज़ारों संख्या में किसानों ने भाग लिया था.
आंदोलन और इसके मुद्दे भले ही दूसरे तबकों की स्मृति से ओझल हो गए हों लेकिन किसानों की स्मृतियां अपने मुद्दों को लेकर अभी भी तेज़ हैं. उन्होंने अपने आंदोलन को खेती के सीज़न की तरह कर दिया है. ख़रीफ के बाद रबी की बुवाई की तरह महापंचायत के बाद रैली, रैली के बाद किसान संसद, किसान संसद के महापंचायत और फिर भारत बंद। आंदोलन जारी है.
भारत बंद के कारण गुरुग्राम से दिल्ली आने वाले और दिल्ली से गुरुग्राम जाने वाले सिक्स लेन पर सिंगल लेन की भांति सरकते रहे. लोगों को भयंकर दिक्कतों का सामना करना ही पड़ा. थोड़ी देर बाद जाम खुल भी गया. इस जाम में फंसे लोगों ने जाम का दोष किसानों को दिया या सरकार को, कोई एक राय तो नहीं हो सकती लेकिन प्रमुख राय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. वैसे इन जगहों पर बारिश से लेकर अलग अलग कारणों से आए दिन जाम लगता ही रहता है.
जुलाई 2016 में गुरुग्राम में बारिश के कारण बाढ़ आ गई और लोग दस दस घंटे सड़क पर ही रह गए. ट्विटर पर मिलेनियम सिटी का मज़ाक उड़ाया जाने लगा. बारिश के कारण आज भी जाम लगता रहता है. कई बार पुलिस बैरिकेड लगाकर चली जाती है, लोग जाम में रेंगते रहते हैं. उधर गोली चल जाती है कोर्ट में. कई बार जांच के नाम पर होने वाली वसूली के कारण भी जाम लग जाता है. लोग सहिष्णु बने रहते हैं. किसान आंदोलन को इन लोगों को शुक्रिया अदा करना चाहिए कि आज जाम के कारण के रूप में कम से कम किसान नज़र आए. वर्ना साल भर जाम तो नज़र आता है लेकिन जाम का कारण नज़र नहीं आता है.
किसान आंदोलन को पता है कि समाज, मीडिया और सरकार उसे किस निगाह से देखते हैं. जिस तरह से सरकार किसान आंदोलन का हल निकालने में असफल रही है उसी तरह से इन सड़कों पर जाम की समस्या का भी हल निकालने में असफल रही है. एक किस्सा सुनाता हूं. We will take you into फ़्लैशबैक. दिसंबर 2015. उस समय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी गुरुग्राम महिपालपुर सड़क पर दो घंटे तक जाम में फंसे रहे. हीरो होंडा चौक के आस-पास. इस जाम से झुंझलाए परिवहन मंत्री ने कहा कि इसका समाधान 24 घंटे के भीतर निकाला जाएगा.
अगले दिन प्रेस में खूब सारा बयान छपा कि गुस्साए गडकरी ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अफसरों को फोन घुमा दिया और कहा कि 24 घंटे के भीतर इसे जाम मुक्त करो. एक बैठक भी बुला लेने की ख़बर छपी है. मंत्री जी दिल्ली में ट्रैफिक का अध्ययन करवा रहे हैं. 15 दिनों में रिपोर्ट आ जाएगी. दिल्ली सरकार के साथ मिलकर दिल्ली को जाम मुक्त करेंगे. खबरों में लिखा है कि इसी बैठक में गडकरी ने कहा कि मैं भरोसा देता हूं कि डेढ़ साल के भीतर दिल्ली में जाम की समस्या आधी कर दी जाएगी. कहीं छपा है दो साल के भीतर दिल्ली को जाम मुक्त कर देंगे. 2015 की वो बात थी, हम सितंबर 2021 में आ गए हैं. क्या जाम आधा हुआ है? क्या गोदी मीडिया ने फिर कभी यह सवाल पूछा कि जाम का क्या हुआ. 2015 से 2021 आ गया है.
डेढ़ दो साल में दिल्ली में लगने वाले जाम को आधा कर देने वाले गडकरी जी या आप जो हर दिन जाम में रहते हैं, क्या बता सकते हैं कि दिल्ली में जाम की समस्या आधी हो गई? हम यह सवाल पांच साल बाद पूछ रहे हैं. किसान आंदोलन से पहले क्यों पूछ रहे हैं इसका कारण प्राइम टाइम के आखिरी हिस्से में पता चलेगा.
कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन भी जाम में फंसा है. किसानों ने हर तरह के अनुशासन और लोकतांत्रिक तरीके का प्रदर्शन कर लिया लेकिन सरकार नहीं मानी. जनवरी के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने शांतिपूर्ण तरीके से हो रहे किसान आंदोलन की तारीफ की थी. भारत के किसान 11 महीनों से सड़क पर हैं. किसानों ने इस बात की चिन्ता छोड़ दी है कि आंदोलन कब तक चलेगा. उनका कहना है कि अस्तित्व और भविष्य का सवाल है इसलिए जब तक चले लेकिन चलता रहेगा. जनवरी महीने में भारत सरकार ने 18 महीने तक कृषि कानूनों को स्थगित करने का प्रस्ताव दिया था लेकिन किसानों ने कहा कि तीनों कानून रद्द किए जाएं. तब फिर सुप्रीम कोर्ट ने अगले आदेश तक इन कानूनों पर रोक लगा दिया. राकेश टिकैत का कहना है कि किसान जल्दी में नहीं है. भले एक साल लग जाए या दो साल लग जाए.
राकेश टिकैत ने तो अमरीका के राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल पर भी ट्वीट कर दिया कि हम किसान प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं. टिकैत ने अपने ट्वीट में लिखा है कि 11 महीनों के प्रदर्शन के दौरान 700 से अधिक किसान मर गए हैं. हमें बचाने के लिए इन काले कानूनों को हटना चाहिए. जब आप प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात करें तो इस पर फोकस करें. फोकस क्या होना था, प्रेस को ही बाहर कर दिया गया तिस पर से बाइडन ने कह दिया कि भारत का प्रेस तो बड़ा ही शालीन है. कूटनीतिक स्तर पर गोदी मीडिया को शालीन और सुसंस्कृत कहा जाता है.
वैसे अमरीका में किसान आंदोलन के समर्थन में बैनर पोस्टर लेकर लोग सड़कों पर उतरे जिसे भारत में न के बराबर दिखाया गया. इसके पहले भी अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन के कई शहरों में किसान आंदोलन के समर्थन में कई बड़ी रैलियां हुई हैं. फरवरी में ही अमरीकी किसानों के संगठनों ने भी भारत के किसान आंदोलन के समर्थन में बड़ा मार्च निकाला था और अपना समर्थन दिया था. अमरीका में इस्तमाल कई पोस्टरों में ख़राब भाषा का इस्तमाल किया गया था, जिसे नहीं करना चाहिए था. फिर भी उन पोस्टरों को न दिखाते हुए इन प्रदर्शनों को दिखाया जा सकता था. बाइडन ने प्रधानमंत्री के सामने अहिंसा, सहिष्णुता और विविधता पर ज़ोर दिया, एक तरह से इन तीनों बातों का संबंध भारत में चल रही घटनाओं से ही है. कमला हैरिस ने तो कह दिया कि ज़रूरी है कि अपने अपने देशों में लोकतंत्र के सिद्धांतों और संस्थानों की रक्षा की जाए. प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत सारे लोकतंत्रों की मां है. क्या आप जानते हैं कि दुनिया भर में लोकतंत्र की महिमा का बखाने करने वाले प्रधानमंत्री ने सात साल में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है और अब विदेशों में भी सवालों का सामना नहीं करते हैं. 300 से भी अधिक दिनों से किसान आंदोलन कर रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री ने उनसे बात नहीं की है. जबकि उन्हीं का बयान है कि वे एक फोन काल की दूरी पर हैं. फरवरी के महीने में अमरीका का बयान है कि किसानों की समस्या का समाधान बातचीत से निकाला जाना चाहिए. भारत स्थित अमरीकी दूतावास से यह बयान आया था.
भारत सरकार के प्रतिनिधि ने दोहा में तालिबान से बात कर ली लेकिन सात महीने से किसानों से बात नहीं हो रही है. राकेश टिकैत दो टूक पूछ रहे हैं कि कहां बात करनी है और कब करनी है. किसान आंदोलन के प्रसंग में मानवाधिकार आयोग भी आ गया है. कायदे से मानवाधिकार आयोग को यह पूछना चाहिए कि किसान सड़क पर क्यों हैं, वे क्यों मर रहे हैं लेकिन आयोग ने राज्यों से पूछा है कि बताएं कि किसान आंदोलन के कारण लघु व मझोले उद्योंग बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. यह सवाल उद्योगों की संस्था CII FICCI उठा सकती थी. आयोग ने अपने नोटिस में पुलिस से पूछा है कि आंदोलन स्थल पर कोविड के नियमों का पालन नहीं हो रहा है, वह बताए कि क्या कार्रवाई हुई है. दूसरी तरफ जनवरी महीने में कोर्ट का आदेश देखिए जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने लिखा है कि अदालत इस बात को लेकर चिन्तित है कि यद्यपि सरकार और किसानों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन कोई समाधान नज़र नहीं आता है. ज़मीन पर हालात यह है कि वरिष्ठ नागरिक, महिलाएं और बच्चे धरना स्थल पर बैठे हैं. सर्दी और कोविड के कारण उनके स्वास्थ्य को बहुत ख़तरा है. कुछ लोगों की मौत भी हुई है जबकि हिंसा उसका कारण नहीं है. बीमारी से हुई है या आत्महत्या करने से हुई है.
मानवाधिकार आयोग की चिन्ता और सुप्रीम कोर्ट की चिन्ता में कितना अंतर है. किसान आंदोलन को सिर्फ तीन कानूनों के विरोध का आंदोलन नहीं समझा जाना चाहिए. इलाके के हिसाब से अलग-अलग फसलों से जुड़ी मांग भी किसान आंदोलन का हिस्सा बनते जा रहे हैं. गन्ने के दाम का सवाल भी इसमें शामिल हो गया है.
खेती से कमाई इतनी बुरी स्थिति में नहीं होती तो आज भारत में 80 करोड़ लोग ग़रीबों के लिए बनी योजना के तहत मुफ्त अनाज पर आश्रित नहीं होते. खेती की लागत काफी बढ़ गई है. दाम मिल नहीं रहा है. किसान चाहते हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की ख़रीद की गारंटी दे और अधिक से अधिक अनाज खरीदे. आज भी बहुत कम अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाता है. अमरीका के किसानों को चालीस लाख से अधिक की सब्सिडी मिलती है फिर भी उनकी हालत खराब है. इसी तरह के कानूनों ने खेती से अमरीकी किसानो को निकाल तो दिया लेकिन जो बचे उनकी कमाई भी नहीं बढ़ी बल्कि निगेविट में बताई जाती है.
आप अपने स्क्रीन पर भारत के अलग अलग शहरों से आई तस्वीरों को देख रहे हैं. किसान का विस्तार हमारे कवरेज से कई गुना बड़ा है. हम कुछ ही शहरों की तस्वीरें दिखा पा रहे हैं. पंजाब के गुरदासपुर, फ़ाज़िल्का, जगराओं, फ़िरोज़पुर, अर्निवाला, दसुआ, संगरूर, बरनाला, पटियाला, लुधियाना में किसानों ने बड़े प्रदर्शन किए और भारत बंद को सफल बनाया. इस सिलसिले में आज चंडीगढ़ एयरपोर्ट के बाहर भी प्रदर्शन किया गया. बिहार के रोहतास, बेगुसराय, आरा, कटिहार, सीतामढ़ी और पटना से आई तस्वीरें बता रही हैं कि किसान आंदोलन बिहार में भी पसरा है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, बंगाल के कई शहरों में किसानों ने प्रदर्शन किया. हरियाणा के जींद, रतिया, रोहतक, सोनीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, बहादुरगढ़, चरखी दादरी, भिवानी में भी किसानों का मोर्चा निकला और भारत बंद हुआ. 2022 में किसानों की आमदनी दो गुनी होनी है. नए सर्वे के अनुसार किसानों की मौजूदा कमाई ही Rs. 10,218 है. इसमें खेती के अलावा अन्य कार्य भी शामिल हैं. यह कितना कम है. किसानों की आय दोगुनी करने के लिए भारत सरकार ने अशोक दलवाई की अध्यक्षता में कमेटी बनाई थी. इसकी रिपोर्ट में अनुमान बताया गया है कि 2015-16 में बिहार का किसान एक महीने में मात्र 3,776 रुपये कमा रहा था उसकी कमाई लक्षित वर्ष 2022-23 में 8,693 होनी चाहिए. क्या इससे किसान का काम चल जाएगा? अगर खेती छोड़ कर शहर में सिक्योरिटी गार्ड बनेगा तो 9 से 10,000 कमाएगा. जब आप शहरों में मिलने वाले काम की कमाई और खेती की कमाई के आंकड़े रखेंगे तो पता चलेगा कि आज भारत के किसानों के सामने आगे कुआं है और पीछे खाई है.
एक दर्जन से अधिक विपक्षी दलों ने किसान आंदोलन को समर्थन दिया है. क्या वाकई ये दल सरकार में आने पर किसानों को उस तरह का संरक्षण देंगे जिसकी ज़रूरत है. यही कारण है कि समर्थन देने के तमाम एलानों के बाद भी किसान अपने दम पर आंदोलन का विस्तार कर रहा है.
कितने ही दल है जिनके चुनाव चिन्ह का संबंध खेती किसानी से है. कभी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय और बछड़ा हुआ करता था. जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह हल जोतता हुआ किसान था. बोडोलैंड पिपुल फ्रंट का चुनाव चिन्ह हल है. जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस का चुनाव चिन्ह हल है. जनता दल सेकुलर का चुनाव चिन्ह महिला किसान है जो सर पर धान की गठरी लादे हुए हैं. माकपा और भाकपा के चुनाव चिन्हों का संबंध भी खेती किसानी से है. इसके बाद भी भारत का किसान अपना राजनीतिक और आर्थिक भविष्य तलाश रहा है. वह अपनी समस्या के ईमानदार समाधान की कोशिश के लिए 11 महीनों से सड़क पर है. चुनाव में सभी दल किसानों को अन्नदाता कहते हैं लेकिन सरकार में आते ही सभी विधाता बन जाते हैं. आज गाज़ीपुर से दिल्ली कांग्रेस से जु़ड़े नेता को किसानों ने भगा दिया. छत्तीसगढ़ में भी किसान महापंचायत होने जा रही है. किसान समझ रहे हैं कि उन्हें अपने मुद्दों को लेकर स्पष्ट रहना होगा. बिना मीडिया और विपक्षी दलों के समर्थन के किसानों ने इतना लंबा आंदोलन चला कर दिखा भी दिया है.
फिर से आते हैं किसान आंदोलन और जाम की समस्या पर. जाम तब भी लगता है जब किसानों का आंदोलन नहीं था और तब भी लगेगा जब किसानों का आंदोलन नहीं होगा. आंदोलन का हल निकलाने में सरकार असफल है, लेकिन इस असफलता को आप जाम की समस्या से नहीं ढंक सकते हैं. तब फिर जाम के कारणों और हर शहर के जाम की बात होनी चाहिए जिसके कारण हर दिन नागरिकों को दस मिनट के बजाए आधे से दो घंटे लग जाते हैं. नोएडा की निवासी मोनिका अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर की है कि नोएडा से दिल्ली तक उसका सफर सड़क जाम के कारण सामान्य 20 मिनट के बजाय दो घंटे का समय ले रहा है. क्या यह अदालत का काम है? क्या तब शहर के पचासों जगहों पर लगने वाले दैनिक जाम को लेकर कोर्ट जाना चाहिए? नितिन गडकरी दो साल में दिल्ली को जाम मुक्त कर नहीं कर पाए। इसमें अदालत क्या कर सकती है.
बिल्कुल नागरिकों को तकलीफ होती है लेकिन इन तकलीफों की आड़ में लोकतांत्रिक आंदोलनों को निशाना बनाना ख़तरनाक है. अगर कोई सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शन नहीं करेगा, तो कहां करेगा. हम एक ऐसे दौर में है जहां मीडिया भी जनता की बात सरकार तक नहीं पहुंचाता है केवल सरकार की तारीफ को जनता तक पहुंचाता रहता है. ऐसी स्थिति में कमज़ोर जनता कहां जाएगी. पहले ही देश के कई शहरों के बीच से आंदोलन स्थलों को हटा दिया गया है. इतनी दूर कर दिया गया है कि वहां मीडिया नहीं जाता और किसी को दिखाई नहीं देता. क्या ऐसा कर हमने जाम की समस्या से मुक्ति पा ली है या लोकंतत्र की आत्मा को ही कुचला जा रहा है? मोनिका अग्रवाल की रिट याचिका पर जारी नोटिस के जवाब में हरियाणा सरकार ने कहा है कि प्रदर्शनकारी किसानों को राज्य और नेशनल हाईवे से जाम हटाने के लिए मनाने की कोशिश जारी है लेकिन किसान ने सार्वजनिक स्थानों पर आंदोलन के मुद्दे को हल करने के लिए गठित पैनल से नहीं मिले हैं. यूपी सरकार ने अपने जवाब में कहा है कि अदालत के आदेशों के तहत सड़कों को जाम करने के घोर अवैध काम पर किसानों को समझाने का प्रयास कर रही है. SC ने साफ कहा है कि यदि प्रदर्शनकारी नीति को स्वीकार नहीं करते तो दूसरों को नुकसान नहीं होना चाहिए. कोर्ट ने कहा है कि एक गांव बना लें लेकिन दूसरे लोगों के लिए बाधा न बनें. वहीं इस मामले में केंद्र सरकार ने कहा कि इस मुद्दे को हल करने का प्रयास कर कर रहा है और दो सप्ताह का समय चाहिए.
संसद में भी सांसद अपनी बात सुनवाने के लिए हंगामा करते हैं, बहिष्कार करते हैं. उसी तरह से जनता जब अपनी बात सुनवाना चाहती है तो सड़क जाम करती है. धरना प्रदर्शन करती है. आज कल इस लोकतांत्रिक कार्य को अनुशासनहीनता के रूप में पेश किया जा रहा है. बल्कि सवाल करने के हर तरीके को अनुशासनहीनता करार दिया जा रहा है.
27 जून को बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने मुंबई पुणे एक्सप्रेस हाइवे पर चक्का जाम किया था. उनकी मांग थी कि महाराष्ट्र सरकार ओबीसी आरक्षण दे. इस प्रदर्शन के कारण बीजेपी के कुछ कार्यकर्ता गिरफ्तार भी हुए और बाद में रिहा कर दिए गए. क्या प्रधानमंत्री यह अपील कर सकते हैं कि मेरी पार्टी कभी चक्का जाम नहीं करेगी. क्या बीजेपी इसे स्वीकार कर लेगी? धरना प्रदर्शन इस तरह से नहीं करेगी. हमेशा शहर के बाहर प्रदर्शन करेगी ताकि जाम न लगे. तो फिर जाम के नाम पर अदालत के आदेश का सहारा क्यों लिया जा रहा है.
शाहीन बाग के समय भी यही तरीका अपनाया गया. एक आंदोलन से उठ रहे सवाल को जाम की समस्या के सवालों की तरफ मोड़ा गया. सरकार ने शाहीन बाग के आंदोलनकारियों से बात नहीं की, अंत में कोर्ट को ही वार्ताकार नियुक्त करना पड़ा. किसान आंदोलन के मामले में भी कानून का अध्ययन करने के लिए कोर्ट को कमेटी बनानी पड़ी. क्या अब किसी आंदोलन से बात करने, उसकी मांगों का अध्ययन करने और उसे हटाने की ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है? अगर हम आंदोलन को जाम की समस्या की नज़र से देखने लगेंगे तो मेरी एक बात लिखकर पर्स में रख लीजिए, वैसे भी जनता के पर्स में पैसे नहीं हैं. मेरी बात ही सही. अगर आंदोलन बंद हुए और शहर से बाहर किए गए तो सरकारें आवारा और निरंकुश हो जाएंगी. नुकसान जनता को होगा. जनता के पास अब प्रेस नहीं है. विपक्ष की आवाज़ है तो वह भी प्रेस से गायब कर दिया जाता है.
आपके पास एक सड़क ही बची है. वह सड़क कभी जाम से मुक्त तो नहीं होगी लेकिन जाम के नाम पर जनता उस सड़क से ग़ायब कर दी जाएगी. Do you get my point.


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