ट्रैक्टर रैली की आड़ में दिल्ली में गुंडागर्दी
ट्रैक्टर रैली की आड़ में दिल्ली में गुंडागर्दी कराकर किसान नेताओं ने केवल राष्ट्र का मस्तक ही नहीं झुकाया, बल्कि आम किसानों के प्रति लोगों की सहानुभूति को भी तार-तार करने का काम किया। यह कहने में संकोच नहीं कि उन्होंने किसानों को दंगाइयों में तब्दील कर दिया। देश इसे कभी न तो माफ करेगा और न ही भूलेगा, क्योंकि उन्होंने जानते-बूझते हुए गणतंत्र दिवस से गद्दारी की है। बात केवल राकेश टिकैत की ही नहीं है। अन्य तथाकथित किसान नेताओं के भी तेवर टकराव को बढ़ाने वाले ही थे। ट्रैक्टर रैली को लेकर दिल्ली पुलिस से सहमति बन जाने और रैली का रूट तय हो जाने के बाद भी किसान नेता अक्षरधाम मंदिर तक रैली ले जाने पर आमादा थे। किसान नेताओं की इस तरह की बातें नितांत फर्जी और दिखावा थीं कि देश का किसान देश के जवानों की तरह गणतंत्र दिवस मनाना चाहता है और हम उसकी गरिमा का पूरा ध्यान रखेंगे। अब यह और साफ है कि ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातें दिल्ली पुलिस और दिल्ली-एनसीआर की जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए की जा रही थीं। दिल्ली पुलिस को इसका आभास होना चाहिए था कि उसके साथ विश्वासघात हो सकता है और किसान नेता जो भी वादे कर रहे, उन्हेंं तोड़कर दिल्ली में उपद्रव करा सकते हैं। यह ठीक नहीं कि करीब एक साल पहले दिल्ली अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर भीषण दंगों का शिकार हुई और अब गणतंत्र दिवस के अवसर पर देश को शर्मसार करने वाली अराजकता से दो-चार हुई।
ट्रैक्टर रैली का मकसद वह था ही नहीं, जो किसान नेताओं की ओर से बताया जा रहा था
गणतंत्र दिवस मनाने के नाम पर निकाली गई ट्रैक्टर रैली का मकसद वह था ही नहीं, जो किसान नेताओं की ओर से बताया जा रहा था। यदि किसान नेताओं में गणतंत्र दिवस के प्रति तनिक भी आदर और सम्मान होता तो कम से कम इस दिन जोर जबरदस्ती का सहारा लेकर ट्रैक्टर रैली निकालने की जिद नहीं की जाती। यह जिद इसीलिए की गई, क्योंकि किसान नेता दिल्ली और देश के सामने अपनी ताकत का बेजा प्रदर्शन करना चाह रहे थे। इसी कारण उन्होंने ट्रैक्टर रैली की अनुमति मिलते ही एक फरवरी को संसद मार्च का एलान कर दिया। इस एलान को आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता, लेकिन जब बजट वाले दिन संसद कूच को लेकर सवाल उठे तो टीवी चैनल पर मौजूद एक किसान नेता ने कहा कि हम देखेंगे कि बजट में हमारे लिए क्या है और जो नया संसद भवन बनने जा रहा है, उसमें किसानों के लिए भी कुछ बन रहा है या नहीं?
हजारों ट्रैक्टर लाने-ले जाने में करोड़ों रुपये स्वाहा करने वाले किसान गरीब हैं क्या
एक और किसान नेता हैं योगेंद्र यादव। किसान नेता का रूप उन्होंने अभी हाल में धारण किया है। एक साल पहले वह जेएनयू में फीस वृद्धि के खिलाफ सड़कों पर थे। उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ और अब कृषि कानूनों के खिलाफ। किसान आंदोलन में ऐसे आदतन आंदोलनकारियों की अच्छी-खासी भागीदारी है। दिल्ली की सड़कों पर डेरा डाले और किसान हित के बहाने दिल्ली-एनसीआर वालों की नाक में दम करने वाले ऐसे किसान नेता अपने समर्थकों की हर अराजक गतिविधि पर आंखें मूंदे रहे-वह चाहे पंजाब में डेढ़ हजार मोबाइल टावर क्षतिग्रस्त करना हो या हरियाणा में मुख्यमंत्री खट्टर की सभा में तोड़फोड़ करना। मीडिया का एक हिस्सा भी किसान आंदोलन के नाम पर हो रही अराजकता की अनदेखी करता रहा। वह उस अतिवाद की भी पैरवी करता रहा, जो किसान नेता सरकार और सुप्रीम कोर्ट की नरमी के बाद भी दिखा रहे थे। किसान प्रेम में पुलकित मीडिया का यह हिस्सा इसकी भी खुशी-खुशी उपेक्षा करता रहा कि किसान नेता किस तरह किसानों की दीनदशा का हवाला दे रहे और सैकड़ों किलोमीटर दूर से हजारों ट्रैक्टर दिल्ली भी बुला रहे। क्या इन हजारों ट्रैक्टरों को दिल्ली लाने-ले जाने में डीजल खर्च के रूप में करोड़ों रुपये स्वाहा कर यह साबित करने की कोशिश की गई कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का किसान भी गरीब है? सवाल यह भी है कि भारत का किसान इतना फुरसत वाला कब हो गया कि अपना काम-धंधा छोड़कर दो महीने तक दिल्ली में डेरा डाले रहे?