साइंस की रिसर्च से सिद्ध हुआ है कि हमारी सेहत पर हमारी भावनाओं का गहरा असर होता है। खुशी, उत्साह, आशा, निश्चय, विश्वास, स्नेह, उत्सव आदि जहां हमारे स्वास्थ्य के लिए वरदान सिद्ध होते हैं, वहीं निराशा, गुस्सा, तनाव, डर, आत्मग्लानि, अवसाद, अकेलापन, बोरियत जैसी भावनाएं हमारी सेहत के लिए नुकसानदायक हैं। पौष्टिक भोजन हमें स्वस्थ बनाता है, व्यायाम हमें स्वस्थ बनाता है, लेकिन जिस एक तथ्य को हम नहीं जानते, वो ये है कि हमारी भावनाएं भी हमें स्वस्थ या बीमार बना सकती हैं। बीसवीं शताब्दी में अस्सी के दशक में लॉस एंजेलीस में स्थित यूनिवर्सिटी ऑव कैलिफोर्निया में एक अछूता प्रयोग शुरू हुआ जहां हमारे शरीर पर भावनाओं के असर का अध्ययन किया गया। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सहयोग से कई अन्य मेडिकल विश्वविद्यालयों में भी इसी तरह के शोध आरंभ हुए और इन सबकी मिलीजुली खोज का परिणाम यही था कि हमारी भावनाएं हमारे स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती हैं। कोई गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति अगर खुशनुमा माहौल में रहे, खुद खुश रहे और उसमें जीवन के प्रति उत्साह बना रहे तो वह अपनी बीमारी से जल्दी पार पा लेता है। बहुत से मरणासन्न मरीज इस प्रयोग के चलते जीवनदान पा गए और बहुत से अन्य मरीज डॉक्टरों की उम्मीद से ज्यादा जिए। इन प्रयोगों से ये भी पता चला कि जिन मरीजों को डॉक्टर ने यह कहा था कि बीमारी इतनी अधिक गहरी है कि उनका जीवन सीमित है, वे इस खबर से इतने निराश हुए कि उनमें जीवन जीने की इच्छा ही समाप्त हो गई।परिणाम यह हुआ कि उन पर द वाइयों का असर एकदम से बंद हो गया और उनकी सेहत गिरती चली गई।
लेकिन ऐसे मरीजों में से कुछ ऐसे भाग्यशाली भी थे जो इस प्रयोग का हिस्सा बने, उनमें जीवन जीने की इच्छा का संचार हुआ और उनकी सेहत फिर से सुधरने लग गई। यह एक अकाट्य तथ्य है कि हम जो खाते हैं उससे हमारी सेहत प्रभावित होती है, हमारे लाइफस्टाइल से भी हमारी सेहत प्रभावित होती है। सारा दिन बैठे रहने वाले, सारा दिन कंप्यूटर पर काम करने वाले, सारा दिन खड़े रहकर काम करने वाले, सारा दिन भागदौड़ में व्यस्त रहने वाले, व्यायाम को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाने वाले लोगों का स्वास्थ्य उनकी दिनचर्या से प्रभावित होता है। बिल्कुल इसी तरह हमारी भावनाओं का भी हमारी सेहत पर गहरा असर होता है। क्रोध, निराशा, हताशा, पछतावा, डर, घृणा, उदासी आदि भावनाओं से ग्रस्त व्यक्ति कई तरह की बीमारियां मोल ले लेता है और अगर बीमार हो तो या तो ठीक नहीं हो पाता या फिर ठीक होने में लंबा समय लेता है। इसके विपरीत खुशमिजाज व्यक्ति कम बीमार पड़ता है और बीमार हो जाए तो जल्दी ठीक होने के अवसर बढ़ जाते हैं। यही कारण है कि चिकित्सा जगत में यह महसूस किया गया कि कोई भी बीमारी सिर्फ शारीरिक या सिर्फ मानसिक नहीं होती बल्कि हर रोग का प्रभाव मन और शरीर, दोनों पर पड़ता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के इसी रिसर्च प्रोजेक्ट में यह भी पता चला कि मानवीय विकास के लाखों सालों के इतिहास के कारण हमारा शरीर इतना सशक्त हो गया है कि लगभग 85 प्रतिशत बीमारियों से खुद ही लड़ लेता है और अगर हम कोई दवा न लें तो भी कुछ समय के बाद खुद-ब-खुद ठीक हो ही जाएंगे। दर्द और साधारण बुखार दरअसल हमें यह संदेश देते हैं कि शरीर में कहीं कुछ गड़बड़ है।
ये सिर्फ संदेशवाहक हैं, दूत हैं। पेनकिलर लेकर या बुखार की दवाई लेकर हम संदेशवाहक के काम में बाधा डाल रहे हैं। आयुर्वेद और नैचुरोपैथी में तो इसे एक नियम की तरह स्वीकार किया गया है कि दर्द, खांसी और साधारण बुखार को दबाने के बजाय कारण समझना चाहिए कि खांसी क्यों हुई या बुखार क्यों हआ और फिर उस कारण का इलाज करना चाहिए, न कि दर्द का या बुखार का। हमारा इम्यून सिस्टम हमारे जीवन का प्रतिबिंब है, हमारे लाइफस्टाइल का आईना है। बायोकैमिकल परिवर्तन से, माइक्रो आर्गेनिज्म से, हार्मोन की गड़बड़ी की वजह से जहां हमारी सेहत पर असर पड़ता है, वहीं हमारी खुशी और हमारे गम, हमारी आशा-निराशा, हमारा उत्साह या बोरियत, हमारी हंसी या आंसू, हमारी समस्याएं या अवसर आदि भी हमारी सेहत को प्रभावित करते ही हैं। हमारे चिकित्सा केंद्र, कॉस्मिक हैपीनेस सेंटर में आने वाले लोगों की समस्याओं का निदान करते हुए मुझे बार-बार यह अनुभव होता है कि खुद उनका अवचेतन मन अपने बारे में जितना जानता है, मैं उनके बारे में उतना जान पाने की बात सोच भी नहीं सकता। हमारा शरीर एक सुपर कंप्यूटर है तो हमारा अवचेतन मन उसकी हार्ड डिस्क है जिसमें जीवन की सभी घटनाओं का लेखा-जोखा मौजूद है। एक स्पिरिचुअल हीलर, यानी आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में जब मैं उनकी समस्याओं के निदान की प्रक्रिया आरंभ करता हूं तो मेरा काम सिर्फ इतना सा ही होता है कि मैं उन्हें उनके अवचेतन मन की राह दिखा दूं। अपने अवचेतन मन की गहराइयों में उतर कर वे खुद अपनी समस्या के सही रूप को समझते हैं और उसका निदान भी खुद करते हैं। व्यक्ति अपना चिकित्सक खुद बन जाता है, मैं सिर्फ एक पथ-प्रदर्शक का रोल अदा करता हूं। स्पिरिचुअल हीलिंग की इस प्रोसेस में दवा का प्रयोग न होने के कारण कोई साइड इफैक्ट भी नहीं है और कोई खतरा भी नहीं है।
स्पिरिचुअल हीलिंग दवाई का बदल नहीं है, चिकित्सा का बदल नहीं है, डाक्टर का बदल नहीं है, इसलिए ऐसी कोई दिलासा नहीं दी जा सकती कि स्पिरिचुअल हीलिंग से शरीर की हर बीमारी ठीक हो जाएगी। ऐसी हर दिलासा झूठी दिलासा होगी। इसके साथ ही यह भी सच है कि किसी गंभीर बीमारी के कारण अगर किसी मरीज के मन में कोई डर बैठ जाए तो वह डर भी झूठा होगा क्योंकि एक तो हमारा शरीर ही बहुत सी बीमारियों का इलाज खुद कर सकता है, दूसरे अगर मरीज में जीवित रहने की भावना प्रबल हो, वह खुश रहे, उसके आसपास का वातावरण आशाजनक हो तो बहुत सी गंभीर मानी जाने वाली या जानलेवा मानी जाने वाली बीमारियों से भी निजात मिल सकती है। आशा के संचार से इलाज के दौरान या आपरेशन के बाद मरीजों के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार होता देखा गया है। अगर हमारी भावनाएं नेगेटिव हों तो हमारा दिमाग ऐसे रसायन पैदा करता है जो हमारी सेहत का कबाड़ा कर सकते हैं और भावनाएं पाजिटिव हों तो वही दिमाग शक्तिवर्धक रसायन पैदा करके इलाज में सहायक हो जाता है। स्पिरिचुअल हीलिंग के माध्यम से व्यक्ति को खुशमिजाज रहकर बीमार होने से बचाया जा सकता है या बीमारियों के इलाज में सहायक हुआ जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की रिसर्च में जो बड़ी बात सामने आई वो ये थी कि मरीज कोई भी हो, बीमारी कोई भी हो, अगर इलाज के समय डॉक्टर सिर्फ क्लीनिकल टैस्ट और लैबोरेट्री टैस्ट तक ही सीमित न रहे, बल्कि बीमारी के समय की स्थितियों को भी समझे, मरीज की मानसिक दशा का भी अध्ययन करे तो इलाज बहुत प्रभावी होगा। स्पिरिचुअल हीलिंग इस दिशा में एक बड़ा कदम है। स्पिरिचुअल हीलिंग को बड़े स्तर पर अपनाया जाए तो देश के आधे अस्पताल खाली हो जाएंगे। यही कारण है कि हमने कॉस्मिक हैपीनेस सैंटर में इसी विधि को अपनाया है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
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By: divyahimachal