फैज अहमद फैज और लाल रंग की छतरी: सुरेखा सीकरी की याद में
फिल्मी दुनिया में कमर्शियल फिल्मों का रुख कर चुका था.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| मनीषा पांडेय| फिल्म रिपोर्टिंग के मेरे तब तक के अनुभव में वो पहली ऐसी एक्ट्रेस थीं, जिनकी किसी फिल्म पत्रकार को इंटरव्यू देने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी. बारिशों के दिन थे. एडीटर ने उन लोगों की लंबी लिस्ट पकड़ा रखी थी, जिनका इंटरव्यू किया जाना था. एक कुलीग ने लिस्ट पर नजर डाली और कहा, ये तीनों तो यारी रोड पर ही रहते हैं. तीनों से एक ही दिन के लिए लाइन अप कर लो. उनमें से एक फिल्मों में मेथड रोल करता था, दूसरा पुराने जमाने की कला फिल्मों से गंभीर अभिनेता की ख्याति पाने और लंबी गुमनामी में रहने के बाद बदलती हुई फिल्मी दुनिया में कमर्शियल फिल्मों का रुख कर
चुका था.
तीसरी एक्ट्रेस थी वो महिला, जो थिएटर की दुनिया में उस वटवृक्ष की तरह थीं, जिनकी छाया में बाद की कई पीढि़यां पनाह और राह दोनों पा चुकी थीं. तब तक दो बार नेशनल फिल्म अवॉर्ड से नवाजी जा चुकी थीं. कुछ कमाल की फिल्मों में काम किया था, लेकिन धन-संपदा शायद उतनी नहीं कमाई, जितनी फिल्मों का रुख करने के बाद लोगों का सपना होता है.
यारी रोड पर उनके जिस घर में मैं मिलने गई थी, वो कमरो बेहद सादा और मामूली थी. लकड़ी के सोफे की पॉलिश धुंधली पड़ चुकी थी, कपड़े का रंग मटमैला हो गया था. कमरे में किताबों और फिल्मों के अलावा और कोई सामान, फर्नीचर वगैरह नहीं था. एक कोने में लकड़ी की पुरानी सी मेज पर एक ग्रामोफोन रखा था और कुछ रिकॉर्ड. बाकी कमरा पूरा खाली थी.
फिल्म 'मम्मो' के एक दृश्य में सुरेखा सीकरी
बस कुछ मिनटों के इंतजार के बाद वो आई थीं. हरे रंग का कुर्ता और काली शलवार पहने, कुछ बिखरे, कुछ बंधे बालों में वो सामने सोफे पर बैठी हुई थीं. एक टीवी सीरियल में उनकी भूमिका उन दिनों खासी चर्चा में थी. हिंदी अखबारों के फिल्मी पन्ने पर आए दिन उनके नाम का जिक्र होता. उसी सीरियल के चार और अभिनेताओं-अभिनेत्रियों का इंटरव्यू करने के बाद मैं उन तक पहुंची थी. बाकियों ने अपने इंटरव्यू को लेकर जितनी दिलचस्पी दिखाई थी, खुद को और उनके रोल को जितना ऐतिहासिक और कालजयी बताया था, उस सीरियल के सबसे महत्वपूर्ण किरदार को निभा रही 60 साल की उस अभिनेत्री के लिए मानो वो सीरियल, वो रोल और वो खुद मानो संसार की सबसे मामूली चीज थी. इतनी मामूली कि चार लाइन के सवाल के लिए वो चार शब्द भी खर्च करने को तैयार न थीं. पूरे वक्त वो जिस तरह पैर पर पैर चढ़ाए, दोनों हथेलियों को आपस में बांधे और आधे समय कमरे की छत को ताकते हुए सामने ऐसे बैठी रहीं, मानो बस उस इंटरव्यू के बीत जाने का इंतजार कर रही हों.
पूरे इंटरव्यू के दौरान सिर्फ एक बार उनके चेहरे पर हंसी की मामूली सी झलक आई थी, जब इंटरव्यू खत्म करने के बाद मैंने पूछा, "आप फैज को पढ़ती हैं?" कांच वाली टेबल के नीचे आधी खुली हुई फैज की कविताओं की किताब रखी थी- "सारे सुखन हमारे."
फिल्म 'जुबैदा' के एक दृश्य में सुरेखा सीकरी
सवाल के जवाब में उन्होंने दूसरा सवाल पूछ लिया, "आपने पढ़ा है फैज?"
मैंने हां में सिर हिलाया. वो मुस्कुराईं. किसी ने आगे कुछ कहा नहीं. लेकिन तकरीबन 40 मिनट के उस पूरे साथ में वो एक लम्हा सबसे सुंदर था, जब किसी ने कुछ कहा नहीं, लेकिन फिर भी समझ लिया.
वो भी जुलाई का महीना था. जिनसे बात करके मैं लौटी थी, उस अभिनेत्री का नाम था सुरेखा सीकरी. बालिका वधू सीरियल की दादी सा.
जब मैं जाने को हुई तो बाहर बहुत तेज बारिश हो रही थी. उन्होंने देखा कि मेरे कंधे पर सिर्फ एक झोला है और हाथ में डायरी और कलम. उन्हाेंने पूछा, "आपके पास छाता नहीं है?" मैंने फिर ना में सिर हिलाया. वो भीतर गईं और एक लाल रंग की छतरी मुझे लाकर दी. मैंने मना किया, लेकिन उन्होंने मुझे पकड़ा दी. बोलीं, "मुंबई में कभी भी बारिश हो सकती है. छतरी साथ लेकर चला करो."
सुरेखा सीकरी
मैंने छतरी लौटाने के वादे के साथ लौट आई, लेकिन कभी लौटाई नहीं.
उस दिन बालिका वधू में उनके रोल से जुड़े सवालों के अलावा हर बात में कुछ बात थी.
एक बार और मिलना हुआ उसके बाद, उसी सीरियल के सेट पर. वो दूर से देखकर मुस्कुराईं. हमने कोई बात नहीं की.
बहुत दिन बीत गए. फिर कभी मिले नहीं. लाल रंग की छतरी पहले टूटी, फिर खो गई.
मुंबई छोड़ने से पहले मैंने फिल्मों और टेलीविजन के और भी सितारों का इंटरव्यू किया, लेकिन शहर छूटते-छूटते ये बात मुझे समझ आ चुकी थी कि मुझे उन्हीं लोगों का इंटरव्यू करना सबसे अच्छा लगा, जिनकी इंटरव्यू देने में कोई रुचि नहीं थी.