देश भर में बुनियादी ढांचे का व्यापक विस्तार, जगी है बाधाओं के दूर होने की उम्मीद

यह संस्थान बुनियादी ढांचे के वित्त पोषण के लिए सुविधा प्रदाता और सक्षम बनाने वाले मजबूत प्रेरक का काम करेगा।

Update: 2021-02-09 16:37 GMT

केंद्र सरकार ने देश के बुनियादी ढांचे के वित्त पोषण की जरूरतों को हल करने के लिए एक नए विकास वित्त संस्था यानी डेवलपमेंट फाइनेंस इंस्टीट्यूशन (डीएफआइ) स्थापित करने की घोषणा की है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब देश के बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए दीर्घावधि वित्त पोषण की जरूरतें पूरी करने हेतु इस तरह के संस्थान का गठन किया जाएगा। यह संस्थान बुनियादी ढांचे के वित्त पोषण के लिए सुविधा प्रदाता और सक्षम बनाने वाले मजबूत प्रेरक का काम करेगा।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में कहा है कि सरकार की विशेष लक्ष्यों वाली नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन अर्थात एनआइपी को सरकार एवं वित्तीय क्षेत्र से वित्त पोषण बढ़ाने की जरूरत होगी। उन्होंने इसके समाधान के लिए संस्थागत ढांचा के सृजन, संपत्तियों के मुद्रीकरण और केंद्र एवं राज्य सरकार के बजट में पूंजीगत व्यय का हिस्सा बढ़ाकर इसका खाका तैयार किया है। इस तरह अवसंरचना विकास कार्यक्रम के लिए वर्ष 2025 तक अनुमानित 111 लाख करोड़ रुपये की वित्तीय जरूरत को देखते हुए विकास वित्त संस्थान की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
प्रस्तावित संस्थान की पूंजी : प्रस्तावित डीएफआइ में 20,000 करोड़ रुपये पूंजी डालकर इसकी शुरुआत की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार तीन साल में डीएफआइ के लिए कम से कम पांच लाख करोड़ रुपये उधारी पोर्टफोलियो बनाने की योजना है। भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 2017 में यह बताया था कि इस तरह के विशिष्ट संस्थान भारत की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक वित्त पोषण संबंधी आवश्कताओं को पूरा करने में मददगार साबित हो सकते हैं। इतना ही नहीं, इससे लंबे समय में वित्त पोषण के अंतर को भी कम किया जा सकेगा। चूंकि बैंक आधारभूत संरचनाओं के लिए लंबे दीर्घावधि सस्ते लोन देने में सक्षम नहीं हैं, ऐसे में विकास वित्त संस्थान की महत्ता को समझा जा सकता है। लेकिन जब तक सस्ते अंतरराष्ट्रीय स्नोतों से इसे संबद्ध नहीं किया जाएगा, तब तक इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न उठते रहेंगे।
इनविट्स और रीट : विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा बुनियादी ढांचा निवेश ट्रस्टों और रियल एस्टेट निवेश ट्रस्टों के ऋण वित्त पोषण के माध्यम से खामी दूर करने के लिए सरकार ने संबंधित कानून में संशोधन की योजना बनाई है। इससे इनविट्स (आइएनवीआइटीएस) यानी इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट ट्रस्ट और रीट (आरआइईटी) यानी रियल एस्टेट इनवेस्टमेंट ट्रस्ट का वित्त पोषण आसान होगा। इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट ट्रस्ट मूलत: आधारभूत संरचनाओं के लिए एक फंड है। इसी तरह रीट यानी रियल एस्टेट इनवेस्टमेंट ट्रस्ट भी एक तरह का फंड है, जिससे जुटाई गई रकम को बिल्डिंग, गोदाम, कार पाìकग, होटल, अस्पताल, सामुदायिक केंद्र और एसईजेड जैसे रियल एस्टेट एसेट में निवेश किया जाता है। इस दृष्टि से डीएफआइ में रीट और इनविट्स के महत्व को समझा जा सकता है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2006 में इंडिया इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस कंपनी लिमिटेड (आइआइएफसीएल) का गठन किया था, जो पूरी तरह से सरकारी कंपनी थी। इसका मकसद ऐसे ही जरूरतों के लिए दीर्घावधि वित्त पोषण था। वित्तीय सेवा सचिव देवाशीष पांडा ने मंगलवार को कहा कि आइआइएफसीएल को नए विकास वित्त संस्थान में मिलाया जा सकता है। केंद्र सरकार का कहना है कि आइआइएफसीएल को एक त्वरित शुरुआत के लिए नए डीएफआइ में रखा जा सकता है, क्योंकि उनके पास पहले से ही इस क्षेत्र की कुछ विशेषज्ञता है। उनके पास श्रमबल भी है, जो पहले से ही इस क्षेत्र में प्रशिक्षित और अनुभवी है।
डीएफआइ की जरूरत क्यों : भारतीय बैंक पहले से ही नकदी और एनपीए की गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। आधारभूत संरचना के लिए दीर्घावधि के लिए सस्ते कर्ज की जरूरत होती है। बैंक ऐसी परियोजनाओं के लिए ऋण नहीं दे सकते, क्योंकि इससे उनकी ऋण देने की दक्षता भी कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त डीएफआइ जितना जोखिम उठाता है, परंपरागत बैंक उतना जोखिम नहीं उठा सकते। यह वाणिज्यिक बैंकों के परिचालन मानदंडों के बीच एक संतुलन बनाता है, जिसमें एक ओर वाणिज्यिक बैंक और दूसरी ओर उनकी विकास संबंधी जिम्मेदारियां होती हैं।

हालांकि अतीत में डीएफआइ ठीक से काम नहीं कर सके हैं और ऐसे में इस कदम को ऐतिहासिक संदर्भ में देखना और आकलन करना जरूरी है। यह पता लगाना जरूरी है कि आखिर पिछले प्रयास विफल क्यों रहे। पिछली सदी के छठे दशक में देश में पूंजी जुटाने से तात्पर्य डेट फाइनेंसिंग से था, क्योंकि ज्यादातर जोखिम सरकारी उपक्रम उठाते थे। इसके बौद्धिक कार्य की रूपरेखा में बैंक शामिल थे, जो कार्यशील पूंजी और अल्पावधि के लिए कोष मुहैया कराते थे। इसके अलावा, दीर्घावधि के वित्तपोषण के वित्तीय फर्मो की एक नई श्रेणी डीएफआइ भी सामने आई।
पहले डीएफआइ की स्थापना वर्ष 1948 में की गई थी, जिसका नाम था- आइएफसीआइ यानी इंडस्टियल फाइनेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया। इसके बाद वर्ष 1951 में एसएफसी अधिनियम के गठन के बाद राज्य स्तर पर स्टेट फाइनेंस कॉरपोरेशन (एसएफसी) का गठन किया गया। नियोजित आíथक विकास के शुरुआती दौर में कुछ और डीएफआइ की स्थापना की गई, जैसे-1955 में आइसीआइसीआइ और 1964 में यूटीआइ और आइडीबीआइ। डीएफआइ के दूसरे दौर में पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में क्षेत्र विशेष पर केंद्रित डीएफआइ का गठन किया गया, जिसमें नाबार्ड, एक्जिम बैंक इत्यादि प्रमुख हैं। तीसरी पीढ़ी के डीएफआइ में आइडीएफसी और आइआइएफसीएल महत्वपूर्ण है। इस सफर में कई मोड़ों पर जब नीति निर्माताओं को वित्तीय तंत्र के कामकाज में अशक्तता दिखी, तो उन्होंने वित्तीय नीति की नाकामियों को दूर करने की बजाय नए डीएफआइ का गठन कर दिया।
पहले डीएफआइ निजी वित्तीय फर्म की तुलना में उपयोगी थे। उस समय डीएफआइ को सरकार की ओर से सब्सिडी मिलती थी और आरबीआइ की ओर से रियायती दर पर वित्त मिला। उन्हें बहुपक्षीय और द्विपक्षीय एजेंसियों की ओर से कोष मिला। इसमें भारत सरकार ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई। डीएफआइ के बॉन्ड को बैंकों के सांविधिक तरलता अनुपात की अर्हता दी गई और बैंकों के संसाधन डीएफआइ को भेजना भी देश के वित्तीय दबाव का एक कारण बना, जिससे अंतत: वे डीएफआइ असफल साबित हुए।
जब वित्तीय सुधारों की शुरुआत हुई तो डीएफआइ के साथ विशेष व्यवहार के तत्व आंशिक रूप से समाप्त हो गए और इनमें से कई संगठनों की व्यवहार्यता जोखिम के दायरे में आ गई। जब बैलेंस शीट अल्पावधि उधारी व दीर्घावधि की जोखिम परिसंपत्तियों पर निíमत होती है, तो जोखिम प्रबंधन की समस्या होती है। उस समय भारतीय रिजर्व बैंक की कई समितियों ने भी निष्कर्ष निकाला कि डीएफआइ की अवधारणा में ढांचागत दिक्कत है। उन्होंने उन्हें बैंक या गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में बदलने की अनुशंसा भी की। आइडीबीआइ और आइसीआइसीआइ बैंक इसके उदाहरण हैं। आज डीएफआइ बनाने के प्रयास में सरकार को पुरानी गलतियों को नहीं दोहराने का संकल्प लेना होगा।


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