'लाभार्थी' समूह इससे प्रभावित हुआ है। अब उसकी अपेक्षा है कि राज्यों में जिसकी भी सरकार बने, वह कमोबेश बेरोज़गारी और गरीबी के हालात से उबरने तक यह योजना बरकरार रखे। यह सामाजिक सुरक्षा का एक अभिनव प्रयोग है। हम इसे 'खैरात' नहीं मानते। कोरोना-काल में करोड़ों हाथ खाली हो गए थे, रोज़गार छिन गए थे, तो नागरिकों को जि़ंदा रखने के लिए सरकार प्रयास नहीं करेगी, तो कौन करेगा? हम इसे सामाजिक न्याय का भी प्रयोग मान सकते हैं। सरकारों में लाखों पद खाली हैं और निजी क्षेत्र का भी विस्तार हुआ है। औद्योगिक उत्पादन से बुनियादी ढांचे तक निजी क्षेत्र की भागीदारी भी बढ़ी है, लिहाजा सरकारें तय करें कि स्थानीय स्तर पर रोज़गार के अवसर मुहैया कराए जाएं। बेरोज़गारी का राष्ट्रीय औसत 20-22 फीसदी से घटकर 6-7 फीसदी तक आया है, तो उससे भी कम संभव है। देश के सबसे बड़े, 22-23 करोड़ की आबादी वाले और 80 लोकसभा सीटों के उप्र में गरीबी का औसत 38 फीसदी है, तो यकीनन चिंताजनक स्थिति है। यह नीति आयोग की ही एक रपट का उल्लेख है, लिहाजा जनादेश के बाद 'लाभार्थी' समूह को उबारने की अपेक्षा सर्वाधिक रहेगी। इसकी प्रासंगिकता पंजाब, उत्तराखंड, गोवा आदि राज्यों में भी है। उत्तराखंड में पर्यटन का कारोबार कोरोना के दौरान बहुत प्रभावित हुआ है। वही उसकी बुनियादी अर्थव्यवस्था रही है। नौजवान आज भी पहाड़ छोड़ कर महानगरों की ओर जा रहे हैं।
वहां भी अधिकतर अस्थायी और ठेकेनुमा रोज़गार हैं। गोवा के खनन और पर्यटन धंधों को भी सुधारने की जरूरत है। इसी तरह मणिपुर में जितनी भी सरकारें बनती रही हैं, उनके लिए सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) एक अमानवीय और नृशंस चुनौती रही है। त्रिपुरा में यह कानून समाप्त किया जा चुका है। वहां हालात सामान्य हैं। अब जनता की पुरजोर अपेक्षा रहेगी कि पूरे पूर्वोत्तर को अफस्पा से मुक्त किया जाए। अब दबाव केंद्र सरकार पर भी रहेगा, क्योंकि यह व्यवस्था भारत सरकार के स्तर पर लागू की जाती रही है। चूंकि भारत पूरी तरह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का देश है, लिहाजा जनादेश के बाद की अपेक्षाएं बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। बेशक चुनावों के दौरान जातीय विभेद, सांप्रदायिक विभाजन के तहत हिंदू-मुस्लिम, लोकलुभावन घोषणाएं, नकली वायदे, कल्याणवाद और लाखों नौकरियों के वायदे आदि प्रमुख मुद्दे या आश्वासन रहे हैं, लेकिन अब जनादेश के बाद सब कुछ निर्णायक है। यह बेहद नाजुक दौर है, लिहाजा महत्त्वपूर्ण भी है। अब सरकारों को 'डिलीवर' करना है। चुनाव समाप्त हो चुका है, लिहाजा अब बारी सुशासन की है। नीतियों की गांठ ढीली करने की है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी समाप्त हो जानी चाहिए। यदि जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी, तो मोहभंग की स्थितियां भी दूर नहीं होंगी। लोकतंत्र का नियम है कि जो दल जिन वादों पर जीते हैं, उन वादों को अपने कार्यकाल में पूरा करें। अगर वे ऐसा करने में सफल नहीं होते हैं तो फिर से चुने जाने की उनकी संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं।