हालांकि किसान संगठनों और सरकार के बीच 11 दौर की वार्ता हुई, लेकिन किसान नेताओं की जिद के चलते कोई हल नहीं निकला। उन्होंने धरना जारी रखने के लिए न तो कोविड महामारी की परवाह की और न ही उन लाखों लोगों की, जो सड़क पर उनके कब्जे से आजिज थे। उनके ऐसे ही रवैये से 26 जनवरी को लाल किले पर उपद्रव हुआ। इस शर्मनाक घटना से किसान संगठनों की बदनामी हुई, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए और वह भी तब जब उच्चतम न्यायालय ने कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी थी। इस पूरे मामले में उच्चतम न्यायालय की भूमिका बेहद निराशाजनक रही। वह न तो सड़कों को खाली कराने का आदेश दे सका और न ही कृषि कानूनों की समीक्षा करने वाली समिति की रपट पर फैसला कर सका। वह सड़कों की घेरेबंदी को लेकर केवल टिप्पणियां करता रहा। इससे किसान संगठनों का मनोबल बढ़ा। लाल किले से लेकर लखीमपुर खीरी तक की घटनाएं यही बताती हैं कि किसान आंदोलन किस रास्ते पर जा रहा था। हालांकि किसानों का आंदोलन कमजोर पड़ता जा रहा था, लेकिन यह भी दिख रहा था कि किसान नेता पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव तक अपने आंदोलन को खींचने के मूड में हैं।
यद्यपि प्रधानमंत्री के फैसले के पीछे आगामी विधानसभा चुनावों को माना जा रहा है, लेकिन यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि इस फैसले के कुछ अन्य कारण भी रहे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि किस तरह कई देश विरोधी ताकतें इस आंदोलन के पीछे खड़ी दिख रही थीं। किसान नेता और विपक्षी दल कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा को किसानों की जीत बता रहे हैं, लेकिन इससे किसानों और खासकर छोटे किसानों को तो कुछ नहीं हासिल होने वाला। उन्हें जो हासिल होने वाला था, वह तो छिन गया। इसमें संदेह नहीं कि विपक्षी दलों और किसान संगठनों ने अपनी नकारात्मक राजनीति से किसानों का बड़ा अहित किया। उन्हें यह समझ आए तो बेहतर कि उन्होंने अपनी जिद में देश के 86 प्रतिशत किसानों के हितों की बलि ले ली।
कृषि कानूनों की वापसी के फैसले का सबसे ज्यादा असर पंजाब में देखने को मिल सकता है। जिन अमरिंदर सिंह ने एक समय किसान संगठनों को उकसाने का काम किया, वह मुख्यमंत्री पद से हटने और कांग्रेस छोड़ने के बाद भाजपा से मिलकर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। उनकी मांग थी कि चुनाव से पहले कृषि कानूनों का मसला हल होना आवश्यक है। उनकी यह मांग पूरी हो गई। पंजाब में इस समय कांग्रेस बिखरी हुई है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि भाजपा और अमरिंदर सिंह कांग्रेस के बिखराव का लाभ उठा पाएंगे या नहीं। जो भी हो, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के पहले कृषि कानूनों का फैसला कर प्रधानमंत्री ने जहां किसानों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की, वहीं यह भी संकेत किया कि यह फैसला मजबूरी में लिया गया। उन्होंने यह भी साफ किया कि किसान हित उनकी प्राथमिकता में हैं और आगे भी बने रहेंगे। उन्होंने एमएसपी को प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए एक कमेटी के गठन का एलान किया है। इसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ किसान, कृषि वैज्ञानिक और कृषि अर्थशास्त्री भी होंगे।
नि:संदेह कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद विपक्षी नेताओं को यह दुष्प्रचार करने में मुश्किल होगी कि प्रधानमंत्री हठधर्मी हैं, लेकिन सरकार को इसकी परवाह न करते हुए इस पर ध्यान देना होगा कि अराजक आंदोलनकारियों को यह संदेश न जाए कि वे दिल्ली की घेरेबंदी कर सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर सकते हैं। सरकार को इसलिए सतर्क रहना होगा, क्योंकि कल को सड़कों पर उतरकर अपनी मांगें मनवाने की जिद पकड़ने वाले सरकार के साथ आम जनता की नाक में दम कर सकते हैं। कृषि कानूनों की वापसी के फैसले से मोदी सरकार की राजनीतिक तौर पर किरकरी हुई है, लेकिन उसका ज्यादा महत्व इसलिए नहीं कि लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं। इसका लाभ उठाते हुए उसे कृषि सुधारों की दिशा में नए सिरे से पहल करनी होगी। उचित यह होगा कि कृषि सुधारों को लेकर एक माडल कानून बनाकर राज्यों को उसे लागू करने के लिए प्रेरित किया जाए। इस सबके साथ प्रधानमंत्री को यह भी संदेश देना होगा कि कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद भी वह अपने सुधारवादी एजेंडे पर कायम रहेंगे। यह एजेंडा किसी भी सूरत में कमजोर नहीं पड़ना चाहिए। प्रधानमंत्री को यह संदेश देना होगा कि कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद भी वह अपने सुधारवादी एजेंडे पर कायम रहेंगे।
[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]