संसद में एक छोटी सी पहल भी ला सकती है देश में समानता एवं सद्भाव
जाब मामले में मंगलवार को कर्नाटक हाई कोर्ट का फैसला आया
शंकर शरण। जाब मामले में मंगलवार को कर्नाटक हाई कोर्ट का फैसला आया। अदालत ने कहा कि ऐसी प्रथाएं पंथनिरपेक्षता और जनभागीदारी के समान अवसरों की मूल भावना के खिलाफ हैं। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि लड़कियां क्लासरूम के बाहर अपनी मर्जी के कपड़े पहन सकती हैं। इस फैसले से असहमत लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं। पता नहीं उसका क्या फैसला होगा, लेकिन हिजाब विवाद के उभार के साथ ही समान नागरिक संहिता के निर्माण की जो जरूरत जताई जाने लगी थी, वह फिर से उठ सकती है। वैसे इसकी जरूरत सुप्रीम कोर्ट भी कई बार जता चुका है, पर कुछ हुआ नहीं। इसका कारण सर्वविदित है। स्वतंत्र भारत में हमारे शासकों ने अल्पसंख्यक विशेषाधिकारों को बढ़ावा दिया। इसमें सभी दल शामिल रहे। इसीलिए संविधान के निर्देश (अनुच्छेद 44) के बावजूद समान नागरिक संहिता बनाने में अपनी ही राजनीति के बंदी बने रहे। जो भी हो, अब उचित यह होगा कि समान नागरिक संहिता बनाने के पहले हिंदुओं को अपने शिक्षा संस्थानों और अपने मंदिरों के संचालन में अन्य समुदायों के समान अधिकार देने की दिशा में बढ़ा जाए। इससे अल्पसंख्यकों का कुछ न जाएगा, केवल हिंदुओं को भी वे अधिकार मिलेंगे, जो अन्य को मिले हुए हैं। यह सार्थक ही नहीं, सरल काम भी है।
केवल संसद में एक प्रस्ताव पास करना है कि सभी मत-मजहब के नागरिकों को, बिना भेदभाव, अपने-अपने शिक्षा संस्थानों और अपने-अपने पूजा स्थलों के संचालन का समान अधिकार दिया जाता है। इसके बाद मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कर उन्हें हिंदू समाज को सौंप दिया जाए। इसके साथ ही शिक्षा का अधिकार यानी आरटीई कानून भी बिना धार्मिक भेदभाव सभी के लिए समान कर दिया जाए। अर्थात मुसलमानों, ईसाइयों द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं को जो छूट दी गई है, वह हिंदुओं द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं को भी दी जाए। ये दो काम कर देने में अल्पसंख्यकों को कोई हानि नहीं होगी। केवल बहुसंख्यकों को हो रही हानि खत्म होगी। वस्तुत: अब तक ऐसा न होना हिंदू समाज की नेतृत्वहीनता दर्शाता है। उसके नेता ठोस के बदले दिखावटी बातों में उलङो रहते हैं।
विपक्ष की उदासीनता तो समझ में आती है, पर आखिर आज के सत्ताधारी ऐसे महत्व के काम क्यों नहीं करते? लगता है चुनावी तिकड़मों के फेर में वे आवश्यक काम भी टालते रहते हैं। इसी का उदाहरण लोकसभा में मार्च 2017 से विधेयक संख्या 226/2016 का पड़े-पड़े नष्ट हो जाना है। उसे एक भाजपा सांसद ने निजी विधेयक रूप में रखा था। विधेयक में कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 25-30 को मूल अर्थ में लागू किया जाए और अनु. 15 में गलत संशोधन रद किया जाए। यदि यह लगे कि वह भाजपा सांसद का विधेयक था तो यह नोट करें कि सैयद शहाबुद्दीन ने भी अप्रैल 1995 में लोकसभा में कुछ ऐसा ही विधेयक (नं 36/1995) रखा था। उसके अनुसार संविधान के अनु. 30 में जहां-जहां 'सभी अल्पसंख्यक' लिखा है, उसे बदल कर 'भारतीय नागरिकों का कोई भी वर्ग' कर दिया जाए, ताकि सबको अपनी शैक्षिक संस्थाएं बनाने, चलाने का समान अधिकार मिले। विधेयक के उद्देश्य में शहाबुद्दीन ने लिखा था कि अभी अनु. 30 केवल अल्पसंख्यकों पर लागू किया जाता है, जबकि 'एक विशाल और विविधता भरे समाज में लगभग सभी समूह जिनकी पहचान पंथ, संप्रदाय और भाषा आदि के आधार पर होती है, व्यवहारत: कहीं न कहीं अल्पसंख्यक ही होते हैं, चाहे किसी खास स्तर पर वे बहुसंख्यक क्यों न हों। विश्व में सांस्कृतिक पहचान के उभार के दौर में हर समूह अपनी पहचान के प्रति समान रूप से चिंतित है और अपनी पसंद की शैक्षिक संस्था बनाने की सुविधा चाहता है।.. इसलिए उचित होगा कि संविधान के अनु. 30 के दायरे में देश के सभी समुदाय और हिस्से शामिल किए जाएं।'
उक्त विधेयक को पढ़कर उसका महत्व समझ सकते हैं। इसे आज भी संसद में लाकर पारित कर देना एक बड़ा कार्य होगा। यह हिंदू समाज के नेताओं की अचेतावस्था का प्रमाण है कि वह विधेयक भी यूं ही पड़ा-पड़ा खत्म हो गया, जिसे देश के सबसे प्रखर मुस्लिम नेता ने पेश किया था। उसे पारित करने से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की जड़ ही कमजोर हो जाती, क्योंकि उसी अनुच्छेद का विकृत अर्थ करके हिंदुओं को समान शैक्षिक, धार्मिक अधिकारों से वंचित किया गया। यद्यपि संविधान निर्माताओं का यह आशय नहीं था, लेकिन वामपंथियों ने धीरे-धीरे उसका यही अर्थ कर डाला कि वह अधिकार तो केवल अल्पसंख्यकों को है। इस तरह अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकारी वर्ग बना दिया गया। इस पूरी प्रक्रिया पर चुप्पी रखते हुए सभी दल वोटबैंक के लोभ में गिर गए। कितनी बड़ी विडंबना है कि हिंदुओं को जो कानूनी वंचना ब्रिटिश राज में भी नहीं थी, वह स्वतंत्र भारत में हो गई। उक्त दो विधेयकों की तुलना में समान नागरिक संहिता पर अनावश्यक तनाव उभारेगा। उसे लागू करना भी कठिन है। पहले ही ऐसे कई कानून हैं, जिनकी अवहेलना होती रहती है और हमारे शासक उसकी अनदेखी करते हैं। शाहीन बाग से बंगाल तक कानून को खुली चुनौती देने वाले मजे से घूमते हैं। शासन उन पर हाथ नहीं डालता। इसलिए आवश्यक है कि पहले शिक्षा-संस्कृति-धार्मिक मामलों में हिंदुओं को समान नागरिक अधिकार दिया जाए। केवल विशेष समुदाय को वित्तीय सहायता, केवल हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा और हिंदुओं के स्कूल-कालेज चलाने में भेदभाव खत्म हो। इससे जो सामाजिक संतुलन बनेगा, वह कई अन्य समस्याएं सुलझाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि संविधान के अनु. 25-26 मुसलमानों, ईसाइयों को जो अधिकार देते हैं, वे हिंदुओं को वंचित नहीं करते। कोर्ट ने 'रत्तीलाल पनाचंद गांधी बनाम बंबई प्रांत' मुकदमे में कहा था कि किसी धार्मिक संस्था के संचालन का अधिकार उसी मत-संप्रदाय के लोगों का है। उनसे छीनकर किसी सेक्युलर प्राधिकरण को देना उस संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है, जो सब को दिया गया है। वास्तव में शिक्षा संस्थानों और मंदिरों के संचालन में अन्य समुदायों की तरह हिंदू समुदाय को समान नागरिक अधिकार देना सर्वाधिक जरूरी काम है। यह तुलनात्मक रूप से आसान और देशहित की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण भी है।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)