पर्यावरण की चिंता
मिस्र के शर्म अल-शेख में शुरू हुए अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन यानी कॉप 27 के मंच से गुतारेस ने साफ कहा कि मानव जाति को बचाने के लिए अब कोई बहुत वक्त नहीं बचा है।
Written by जनसत्ता: मिस्र के शर्म अल-शेख में शुरू हुए अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन यानी कॉप 27 के मंच से गुतारेस ने साफ कहा कि मानव जाति को बचाने के लिए अब कोई बहुत वक्त नहीं बचा है।
इसलिए हमें अब यह तय करना होगा कि धरती को बचाने के लिए या तो हम एकजुट होकर तेजी से काम करें या सामूहिक रूप से खुदकुशी का फैसला कर लें। हालांकि ऐसी चेतावनी कोई पहली बार नहीं आई है। हर साल होने वाले इस वैश्विक पर्यावरण सम्मेलन में विशेषज्ञ और प्रतिनिधि देशों के नेता यह चिंता जाहिर करते आए हैं। लेकिन विडंबना यह है कि अभी तक धरती को बचाने के प्रयासों में वैसी तेजी दिखाई नहीं दी है, जैसी होनी चाहिए। इसके पीछे कारण कोई नए नहीं हैं। कहना न होगा कि धरती को बचाने की मुहिम अमीर और गरीब देशों के खेमे में बंट गई है और अमीर-गरीब की इस राजनीति में पर्यावरण बचाने की मुहिम कहीं पीछे छूटती नजर आ रही है।
इसीलिए यह सवाल भी लंबे समय से बना हुआ है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए होने वाला खर्च कहां से आए? क्या सिर्फ विकासशील और गरीब देश ही पर्यावरण खराब कर रहे हैं? हकीकत तो यह है कि पिछली दो सदियों के दौरान पश्चिम में जिस तरह का भौतिकवादी विकास हुआ है, वह पर्यावरण की कीमत पर ही हुआ है। जबकि धरती के पर्यावरण को बिगाड़ने का ठीकरा गरीब और विकासशील देशों पर फोड़ा जाता रहा है।
पर्यावरण को सुधारने के लिए अमीर देशों का गुट गरीब देशों पर ही दबाव बनाते रहे हैं। इसके लिए उन पर कठोर कदम उठाने का दबाव डाला जा रहा है। यह ऐसा जटिल मुद्दा है जो शर्म अल-शेख में पहले दो दिन में उठा है। छोटे से देश बारबाडोस के प्रधानमंत्री ने इस मंच से साफ कहा कि जो कंपनियां जीवाश्म र्इंधन का इस्तेमाल कर पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही हैं, उनसे पैसा वसूला जाए और उस पैसे को जलवायु संकट से निपटने के लिए गरीब देशों को दिया जाए। ऐसे मुद्दे को समर्थन देने वालों में भारत भी है।
हाल में आक्सफेम ने अपनी एक रिपोर्ट जारी कर सबको चौंका दिया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के एक सौ पच्चीस सबसे अमीर लोग कार्बन उत्सर्जन के मामले में भी सबसे आगे हैं। इन लोगों के जो उद्योग हैं, वे कार्बन उत्सर्जन करते हैं, जबकि पर्यावरण को बचाने में इनकी कोई भागीदारी या जिम्मेदारी नहीं है। विडंबना तो यह है कि अमीर देशों का गुट लंबे समय से जीवाश्म इंधन के इस्तेमाल को घटाने और इसे पूरी तरह से बंद करने पर जोर दे रहा है।
ऐसा दबाव विकासशील और गरीबों देशों पर ज्यादा है। इसमें भी एशिया के देशों की संख्या कहीं ज्यादा है। लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई बड़े और अमीर देशों में अभी भी जीवाश्म र्इंधन का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हो रहा है। एशिया में चीन में अभी दशकों तक जीवाश्म र्इंधन का प्रयोग बंद नहीं होने वाला। अब तक के पर्यावरण सम्मेलनों में अमीर देशों का क्या रुख रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। अगर धरती को बचाना है तो बड़ों को अपनी जिम्मेदारी पहले निभानी होगी।