चुनावी बांड और खर्चीले चुनाव

‘लोकतन्त्र’ लगातार ‘धनतन्त्र’ का गुलाम होता जा रहा है।

Update: 2020-11-22 05:07 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत की चुनाव प्रणाली के लिए सबसे गंभीर समस्या महंगे होते चुनाव रही है जिसकी वजह से 'लोकतन्त्र' लगातार 'धनतन्त्र' का गुलाम होता जा रहा है। जाहिर तौर पर इसके लिए मुख्य रूप से राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने सत्ता प्राप्ति के लिए धन की ताकत का इस्तेमाल चुनावों में करने से गुरेज नहीं किया और अपने हाथ में एक वोट की संवैधानिक ताकत रखने वाले मतदाता को धन की चकाचौंध से भरमाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। धनशक्ति के बूते पर राजनीतिक दलों की मार्फत जनप्रतिनिधि बनने का सपने पालने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती रही जिससे चुनाव धनपतियों के कब्जे में होते चले गये। भारत के लोकतन्त्र की आज सबसे बड़ी समस्या यही है कि चुनाव 'जन मूलक' न रह कर 'धन मूलक' होते जा रहे हैं। मगर दुर्भाग्य से इसकी शुरूआत भारत की सबसे शक्तिशाली मानी जाने वाली प्रधानमन्त्री श्रीमती इदिरा गांधी के शासनकाल में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम -1951 में संशोधन के साथ 1974 में तब हुई जब दिल्ली के सदर बाजार लोकसभा सीट से 1971 के चुनावों में विजयी कांग्रेस प्रत्याशी अमरनाथ चावला का चुनाव दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीमा से अधिक धन खर्च करने के मुद्दे पर अवैध करार दे दिया। तब इन्दिरा जी ने चुनाव कानून में संशोधन करके किसी भी प्रत्याशी के चुनाव पर उसकी पार्टी द्वारा किये जाने वाले खर्च को चुनाव खर्च से अलग करने का प्रावधान किया और प्रत्याशियों के शुभ चिन्तकों द्वारा भी चुनाव पर कितनी ही धनराशि खर्च करने को जायज बना दिया।

इसके बाद चुनाव इस प्रकार लगातार खर्चीले होने लगे कि धन की प्रबल ताकत रखने वाले लोगों को राजनीतिक दलों ने जनप्रतिनिधि बनने का टिकट देने में प्राथमिकता देनी शुरू कर दी। इस खतरे की तरफ तभी ध्यान दिया गया था और 1974 में चल रहे जय प्रकाश नारायण के जन आन्दोलन में चुनाव प्रणाली में सुधार को मुख्य मुद्दा बनाया गया था। तब स्व. जेपी ने रिटायर्ड न्यायाधीश श्री वी.एम. तारकुंडे की अध्यक्षता में एक गैर सरकारी चुनाव सुधार समिति भी गठित की थी जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव सरकारी खर्चे से कराने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिएं। इस बाबत उन्होंने बहुत से व्यावहारिक सुझाव भी दिये थे, परन्तु 1977 में इमरजेंसी उठने के बाद जेपी की निगरानी में ही बनी जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार ने इस समिति की रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में फेंक कर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.एल. शकधर की अध्यक्षता में एक नया चुनाव सुधार आयोग गठित कर दिया।

1979 के अन्त तक मोरारजी देसाई सरकार ताश के पत्तों की तरह बिखर गई और 1980 में पुनः इंदिरा जी सत्ता में आ गईं और चुनाव सुधारों की बात आई-गई हो गयी। मगर इस बीच मोरारजी सरकार ने कार्पोरेट जगत के लिए चुनावी चन्दा देने की कुछ नियम बनाये जिसके लिए कई कार्पोरेट घरानों ने चुनाव कोष का गठन भी किया। इनमें टाटा उद्योग समूह प्रमुख था। चुनावी चन्दे में इससे पारदर्शिता तो आयी मगर चुनाव नियमों में संशोधन होने की वजह से चुनाव लगातार और ज्यादा खर्चीले ही होते गये। इसमें सबसे बड़ी समस्या यह आयी कि चुनावों में काला धन धड़ल्ले से खर्च होने लगा। राजनीतिक दल अपने हिसाब-किताब का लेखा-जोखा हर साल चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करते थे। इसमें वह अधिकाधिक धन छोटी धनराशियों में जमा चन्दा के रूप में दिखाने लगे जिसकी रसीद काटनी आवश्यक नहीं होती थी। इससे उन्हें मिलने वाले चन्दे के स्रोतों पर पर्दा ही पड़ा रहा। कार्पोरेट क्षेत्र से मिले चन्दे की जानकारी सार्वजनिक होने के बावजूद बिना रसीद काटे मिले चन्दे की धनराशियां राजनीतिक दलों के खजाने को मालामाल करती रहीं। इस समस्या से निपटने के लिए 2017 में 'चुनावी बांड" जारी करने हेतु पुनः जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया और प्रावधान किया गया कि भारतीय स्टेट बैंक द्वारा जारी इन बांडों को कोई भी व्यक्ति या संस्था या कम्पनी खरीद कर अपनी मनपसन्द की राजनीतिक पार्टी को चन्दा दे सकती है। बांड खरीदने वाले की पहचान बैंक गुप्त रखेगा और केवल किसी संवैधानिक जांच एजेंसी या न्यायालय द्वारा मांगे जाने पर ही उसकी पहचान बतायेगा।

राजनीतिक दलों द्वारा भी दानदाता की पहचान सार्वजनिक करने की शर्त समाप्त कर दी गई। प्रारम्भ में चुनाव आयोग ने भी इस पर आपत्ति की मगर बाद में इसे वापस ले लिया। इसकी वजह यह बताई गई कि पहचान जाहिर होने पर सत्तारूढ़ पार्टी विपक्षी पार्टी को बांड देने वाले व्यक्तियों के प्रति दुराग्रह का भाव पाल सकती है। मगर पेंच यह है कि स्टेट बैंक के पास बांड खरीदने वाले व्यक्ति की पहचान सुरक्षित रहती है और सरकार की निगाहें उस पर जब चाहें पड़ सकती हैं। इसके बावजूद चुनाव आयोग को दिये गये वार्षिक विवरण में राजनीतिक दलों को बांड जमा करने वालों की पहचान का ब्यौरा देना होता है।

भारतीय लोकतन्त्र में चुनाव आयोग ही राजनीतिक दलों की निगरानी करता है अतः उसके पास विवरण जमा होने का अर्थ पारदर्शिता मानी जायेगी। अभी हाल ही में हुए बिहार विधानसभा चुनावों से पहले कुल 282 करोड़ रुपए के चुनावी बांड स्टेट बैंक से खरीदे गये। जाहिर है ये विभिन्न राजनीतिक दलों को ही दिये गये होंगे। अतः इतना तो कहा ही जा सकता है कि 282 करोड़ रुपया बिहार विधानसभा चुनावों पर खर्च हुआ होगा। मगर इसमें कितनी धनराशि के बांड विदेशी कम्पनियों ने लिए हैं इस बारे में कोई सूचना आसानी से बाहर नहीं आ सकती क्योंकि 2018 में विदेशी कम्पनियों की परिभाषा ही बदल दी गई थी। अतः संविधान सम्मत राजनीतिक दलों को मदद करने का अधिकार वाणिज्यिक जगत को हमारे संविधान निर्माताओं ने दिया और अपेक्षा की कि जिस भी राजनीतिक दल की सरकार सत्तारूढ़ होगी वह जनहित में इस प्रकार काम करेगी कि आम आदमी का विकास सुनिश्चित हो और उसका विकास तभी संभव होगा जब देश में उद्योग से लेकर व्यापार व कृषि क्षेत्र फले-फूलेगा। अतः लोकतन्त्र सभी की हिस्सेदारी से फलता-फूलता है। इसमें असन्तुलन आने पर सामाजिक-आर्थिक समीकरण बिगड़ने का खतरा पैदा हो जाता है। चुनाव प्रणाली इस व्यवस्था की गंगोत्री मानी जाती है अतः इसका शुद्धिकरण समय-समय पर किये जाता रहना जरूरी होता है।

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