चुनाव सुधार 2021 : गड़बड़ी की कहानी बयां करती सरकार की हड़बड़ी
जब इस प्रस्तावित बिल को लोकसभा में पेश किया गया था तो कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा था कि
देश ने एक बार फिर देखा कि विपक्ष के भारी विरोध और उसकी तमाम आशंकाओं के बीच केंद्र सरकार ने किस तरह से हड़बड़ी में चुनाव कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 को बिना चर्चा के संसद के दोनों सदनों में ध्वनिमत पारित करा दिया. याद हो तो इससे पहले तीन कृषि विधेयकों को भी पारित कराने में सरकार ने इसी तरह की हड़बड़ी मचाई थी. अंजाम ये हुआ कि किसानों के एक साल से अधिक वक्त तक चले आंदोलनों के बाद सरकार को कानून रद्द करने का फैसला करना पड़ा. तो चुनाव सुधार बिल को भी संसद से पारित कराने में सरकार ने जो हड़बड़ी दिखाई यह विपक्ष के विरोध को जायज ठहराने का सबसे बड़ा आधार बन रहा है.
जब इस प्रस्तावित बिल को लोकसभा में पेश किया गया था तो कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा था कि विधेयक सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ है और हमारी निजता का उल्लंघन करता है. यह लोगों से उनके वोट देने के हक को छीन सकता है. लिहाजा इसे स्टैंडिंग कमेटी को भेजा जाए. एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा था कि वोटर आईडी कार्ड और आधार को जोड़ना निजता के खिलाफ है और ऐसा करके सरकार चुनाव आयोग की स्वायत्ता पर सवाल उठा रही है. यह पूरी तरह लोकतंत्र के खिलाफ है. तो क्या वास्तव में विपक्ष जो कुछ कह रहा है वह जायज है और अगर ऐसा है तो क्या किसान आंदोलन की तर्ज पर देश में 'लोकतंत्र बचाओ आंदोलन' खड़ा किया जाएगा?
बिल पास कराने को लेकर हड़बड़ी से पैदा हुआ संदेह
सत्ता पक्ष जब भी किसी विधेयक को संसद से पारित कराकर उसे कानून बनाने में हड़बड़ी दिखाए, जोर-जबरदस्ती करे, विपक्ष की आवाज को दबाने की पुरजोर कोशिश करे तो इस बात को बल मिलता है कि विधेयक में गड़बड़ी को छिपाने के लिए सरकार चर्चा और बहस से बचती है. हड़बड़ी में उसे पारित कराने की पहल करती है. हालांकि मौजूदा विधेयक में आधार नंबर को वोटर आईडी कार्ड से जोड़ने की व्यवस्था को ऐच्छिक रखा गया है और इसी आधार पर सरकार विपक्ष के विरोध को गैरजरूरी बता रही है, लेकिन फिर ऐसी हड़बड़ी क्यों जो बिल को पारित करने में सदन में दिखाई गई? राज्यसभा में तो इसे विपक्ष के वॉकआउट के बाद पारित किया गया. लोकसभा में भी इसपर ठीक से बहस करने का मौका नहीं दिया गया. बात तो यहां तक की जाने लगी है कि विपक्ष के 12 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित करने के पीछे भी सत्ता पक्ष का यही मकसद था कि राज्यसभा से यह बिल विपक्ष के विरोध के बावजूद आसानी से पारित करा लिया जाए. चुनाव सुधार संबंधी बेहद अहम संशोधन विधेयक को लेकर विपक्ष में इस तरह का अविश्वास अगर पैदा हुआ है तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी भी मीडिया में लगातार इस बात को कह रहे हैं कि उन्होंने लिखित रूप में वोटों के विभाजन की मांग की थी ताकि इस असंवैधानिक कानून के खिलाफ विरोध दर्ज करा सकें लेकिन इसकी भी अनुमति सरकार ने नहीं दी. अगर उन्हें बोलने की अनुमति दी जाती तो सरकार की नीयत का पर्दाफाश हो जाता.
चुनाव प्रक्रिया यूआईडीएआई के अधीन क्यों?
भारतीय निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है जिसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया था. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संसदीय लोकतंत्र का एक हिस्सा है जो संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है. लेकिन इस प्रस्ताव को लाकर सरकार चुनावी प्रक्रिया को यूआईडीएआई के अधीन करना चाहती है जो एक स्वायत्त संस्था नहीं है. तो इस बात का समझना बेहद जरूरी है कि चुनाव आयोग तो स्वायत्त संस्था है, लेकिन यूआईडीएआई स्वायत्त संस्था नहीं है. आधार की निगरानी करने वाली यह संस्था सरकार के अधीन है. लिहाजा इसके बिना यह काम हो नहीं सकता है. अगर आयोग अपने काम में इस संस्था को पार्टनर बनाएगा तो सरकार की नीयत पर संदेह होना स्वाभाविक सी बात है. याद हो तो सुप्रीम कोर्ट ने केवल कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार के अनिवार्य उपयोग की अनुमति दी थी. लेकिन वहां भी आधार ने लोगों को बड़े पैमाने पर आधारहीन कर दिया है. बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण, तकनीकी विफलताओं से लाखों लोगों को सरकार की कल्याण योजनाओं से वंचित किया गया. सबसे बड़ी बात यह है कि आधार को वोटर आईडी कार्ड से लिंक करने से मतदाता आसानी से पहचाने जा सकेंगे.
विरोधियों और समर्थकों की पहचान आसान हो जाएगी
सत्ताधारी दल पहचान और अनुकूल मतदान की संभावना के आधार पर मतदाताओं की प्रोफाइल बना सकेंगे. वे अपने विरोधियों और समर्थकों में फर्क कर सकेंगे ताकि सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं में भेदभाव किया जा सके. विपक्ष को इस बात का अंदेशा है और यह अंदेशा गलत नहीं है. क्योंकि फरवरी 2015 में जब एक प्रयोग के तौर पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मतदाता सूची को आधार नंबर से लिंक करने की योजना शुरू हुई थी तो इसके तहत लाखों लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए थे. तब इसको लेकर खूब हंगामा मचा था कि बिना किसी जानकारी के कैसे मतदाताओं के नाम काट दिए गए और मतदाता की अनुमति के बिना कैसे आधार नंबर दे दिया गया. अगस्त 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना पर रोक लगा दी. उसके बाद जब तेलंगाना में चुनाव हुआ तो 20 लाख लोग वोट नहीं दे सके. ट्विटर पर हजारों लोग ट्रेंड कराने लगे कि मेरा वोट कहां है. जब चुनाव आयोग ने राज्य निर्वाचन अधिकारी से इसकी जांच के लिए कहा तो आंध्र प्रदेश के निवार्चन अधिकारी ने कहा कि डेटा उनसे लीक नहीं हुआ है. तेलंगाना सरकार ने एसआईटी का गठन किया लेकिन जांच नतीजे की बाट जोह रहा है.
सरकार पर यूं ही संदेह नहीं कर रहा विपक्ष
ऐसा माना जा रहा है कि आधार नंबर की पूरी जानकारी अगर राजनीतिक दलों के हाथ लग जाए तो वे इसका कई तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं. विपक्ष भी कह रहा है कि यह कानून सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने बिल का विरोध करते हुए कहा भी है "विधेयक सदन की विधायी क्षमता से बाहर है, क्योंकि ये केंद्र सरकार द्वारा अपने ही फैसले (पुट्टास्वामी बनाम केंद्र सरकार) में निर्धारित कानून की सीमाओं का उल्लंघन करता है. वोटर आईडी और आधार को जोड़ने से निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में परिभाषित किया है. सदन ऐसे कानून को बनाने के लिए सक्षम नहीं है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो." यहां तक कहा जा रहा है कि अगर आधार को वोटर कार्ड से जोड़ा गया तो इससे गैर-नागरिकों को भी मतदान का अधिकार मिल जाएगा. पुड्डुचेरी के चुनाव को याद करें तो तब भाजपा ने लोगों को एसएमएस संदेश भेजे थे जिसमें स्थानीय व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ने का लिंक दिया गया था. आरोप लगा था कि जिन मोबाइल नंबरों पर मैसेज भेजे गए हैं वो आधार से लिंक हैं और आशंका है कि ये डेटा आधार पर नजर रखने वाली संस्था यूआईडीएआई से ली गई हो. केस मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा थी और कोर्ट की तब की टिप्पणी ने एक तरह से यूआईडीएआई की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए थे. कर्नाटक हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज के.एस. पुट्टास्वामी ने भी सुप्रीम कोर्ट में आधार की वैधानिकता को लेकर एक याचिका दायर की थी क्योंकि इसके चार ही मकसद बताए गए हैं जिसमें वोटर आईडी नहीं है. उल्लेखनीय है कि इसी केस की सुनवाई के दौरान अगस्त 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की योजना पर अंतरिम रोक लगाते हुए आधार नंबर को मतदाता सूची से जोड़ने का काम रोक दिया था.
'स्वैच्छिक है अनिवार्य नहीं' एक बड़ा धोखा
याद हो तो आधार की व्यवस्था अब तक की सबसे विवादित व्यवस्था रही है. हर बार इसे स्वेच्छा की आड़ लेकर लागू किया जाता है और धीरे-धीरे इसे अनिवार्य कर दिया जाता है. मतलब व्यवहार में आधार को लेकर स्वेच्छा और अनिवार्य का अंतर अब मिट चुका है. लिहाजा केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की इस बात पर भरोसा करना मुश्किल हो रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की सलाह के बाद सरकार ने इसे स्वैच्छिक कर दिया. मतलब वोटर आईडी कार्ड को आधार से लिंक करना अनिवार्य नहीं है. यह आपकी इच्छा पर निर्भर होगा. लेकिन कानून की समझ रखने वालों का कहना है कि सरकार का यह दावा कि स्वेच्छा पर निर्भर करेगा इसे साफ-साफ बिल में नहीं लिखा गया है. बिल में यह स्पष्ट नहीं है कि मतदाता आधार नंबर देने से मना कर सकता है. अगर यह नहीं लिखा है तो तय मानिए कि आधार नंबर देना अनिवार्य होगा. बिल की भाषा में यहां तक लिखा हुआ है कि आधार नंबर न देने के पर्याप्त आधार मतदाता के पास होने चाहिए. जाहिर सी बात है, पर्याप्त आधार के नाम पर आने वाले वक्त में ऐसे नियम बनने लगेंगे जिससे आधार नंबर देना अनिवार्य हो जाएगा. आम मतदाता के लिए यह समझना तक मुश्किल हो जाएगा कि अगर मतदाता सूची को आधार नंबर से लिंक कर दिया गया तो उसके वोट देने के अधिकार पर कैसे असर पड़ेगा? कैसे किसी को मतदाता सूची से अलग कर दिया जाएगा या किसी समूह का मतदान केंद्र उसके घर से इतना दूर कर दिया जाएगा कि वोट देने जाने के लिए सोचना पड़ेगा? विपक्ष सत्ता पक्ष के इन तमाम दांवपेच को समझ रहा है और आने वाले राजनीतिक व लोकतांत्रिक खतरे को भांपते हुए विरोध की आवाज तेज कर रहा है.
ये बड़ी हास्यास्पद बात है कि कानून मंत्री किरण रिजिजू ने विधेयक का समर्थन करते हुए विपक्षी सदस्यों की यह कहकर आलोचना की कि वे इस विधेयक को समझ ही नहीं पाए हैं. अगर मंत्री की इस आलोचना को ही सच मान लिया जाए, तब भी क्या सरकार के लिए यह जरूरी नहीं था कि ऐसे तमाम सदस्यों को विधेयक समझने का मौका दिया जाता, सदन में बहस की जाती, विपक्ष की आशंकाएं दूर करती? लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. आखिर सरकार इतनी जल्दी में क्यों थी? कहीं इसका संबंध आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा से तो नहीं जुड़ा हुआ है? बहरहाल, सरकार को इस बात की समझ तो होनी ही चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र में असहमति के लिए हमेशा गुंजाइश रहती है, जिसे हर कीमत पर बनाए रखना चाहिए. दुर्भाग्य से सरकार असहमति की इस गुंजाइश को मिटा देना चाहती है. ऐसे में विपक्ष सत्ता की नीयत पर संदेह भी करेगा और उसके फैसले का विरोध भी.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)